नई दिल्ली: हमास “इज़राइल द्वारा बनाया गया” था, लेकिन फ़िलिस्तीनी किसी को भी इसे आतंकवादी संगठन घोषित करने की अनुमति नहीं देंगे, भारत में फ़िलिस्तीन के राजदूत अब्दुल्ला अबू शावेश ने दिप्रिंट से एक विस्तृत बातचीत में यह बात कही.
राजदूत ने यह भी साफ़ किया कि 7 अक्टूबर को हमास द्वारा किए गए हमलों से फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण का कोई लेना-देना नहीं है. इन हमलों के जवाब में इज़राइल ने सैन्य कार्रवाई की, जो डेढ़ साल से जारी है. उन्होंने कहा, “हम 7 अक्टूबर पर हमास से सहमत नहीं हैं. राष्ट्रपति (महमूद) अब्बास स्पष्ट थे—बंधकों को रिहा किया जाना चाहिए.”
हालांकि उन्होंने कहा कि हमास “फ़िलिस्तीनी जनता का एक अहम हिस्सा” है, लेकिन उन्होंने फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (PLO) से इसका स्पष्ट अंतर बताया. शावेश ने याद दिलाया कि 2007 में हमास ने “हमें ग़ाज़ा से बाहर निकाल दिया था.”
हमास की उत्पत्ति बताते हुए, राजदूत ने आरोप लगाया कि ब्रिटिशों के कथित प्रोत्साहन से, 1980 के दशक के अंत में इज़राइल ने इस्लामवादी आंदोलन के उदय को बढ़ावा दिया ताकि PLO को कमजोर किया जा सके. उस समय तक PLO को फ़िलिस्तीनी लोगों का एकमात्र वैध प्रतिनिधि मानते हुए अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल चुकी थी.
उन्होंने कहा, “1974 में अरब लीग और भारत द्वारा PLO को मान्यता दिए जाने के बाद, इज़राइल ने बातचीत की मेज़ पर बैठने का विकल्प नहीं चुना. इसके बजाय, उसने शेख अहमद यासीन के तहत अल-मुजम्मा अल-इस्लामिया, जो मूल हमास था, बनाया. उन्होंने फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण की सुरक्षा व्यवस्था को नष्ट कर दिया और हमास को खाली जगह भरने दी.”
साथ ही, उन्होंने यह भी साफ़ किया कि फ़िलिस्तीन हमास को आतंकवादी संगठन घोषित नहीं करेगा और भारत भी इसे आतंकवादी संगठन नहीं मानता.
उन्होंने कहा, “हमास फ़िलिस्तीनी जनता का एक अहम हिस्सा है. लेकिन हमास फ़िलिस्तीनी जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करता. फ़िलिस्तीनी फतह आंदोलन के रूप में, जिसका नेतृत्व यासिर अराफ़ात ने किया, हम मानते हैं कि कब्जे का विरोध करना—जिसमें सशस्त्र संघर्ष भी शामिल है—अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत एक अधिकार है. इसलिए, हम हमास को आतंकवादी समूह घोषित करने के किसी भी प्रयास को खारिज करते हैं.”
इस बातचीत में, जो इतिहास से जुड़े कई संदर्भों से भरी थी, राजदूत ने 7 अक्टूबर के हमलों के बाद खासतौर पर, इज़राइल-हमास संघर्ष पर आम धारणा के उलट, अपना व्यक्तिगत और साफ़-साफ़ नजरिया पेश किया.
पीएलओ बनाम हमास
शावेश ने जोर देकर कहा कि अब्बास के नेतृत्व वाला पीएलओ शांतिपूर्ण विरोध और कूटनीति का समर्थन करता है, जबकि हमास का रुख ज्यादा उग्र है. हालांकि, वह इस बात पर भी अड़े रहे कि हमास आतंकवादी संगठन है या क्रांतिकारी, इस पर बहस हो सकती है. लेकिन उनका कहना था कि हमास “फिलिस्तीनी लोगों का एक अहम हिस्सा” है.
वर्तमान में हमास को फिलिस्तीनी चुनावों में भाग लेने की अनुमति नहीं है. राजदूत ने बताया कि इसका कारण है कि “उसने पीएलओ की राजनीतिक जिम्मेदारियां स्वीकार नहीं की हैं.”

“जो भी हमारे राजनीतिक जीवन में शामिल होना चाहता है, उसे पीएलओ की जिम्मेदारियां स्वीकार करनी होंगी. इसमें ओस्लो समझौते को मानना और हमारे ऐतिहासिक भूमि के सिर्फ 22 प्रतिशत हिस्से पर राज्य बनाने के अधिकार को स्वीकार करना शामिल है,” उन्होंने कहा.
शावेश ने 2023 के संघर्ष के बाद बनी कहानियों का जिक्र करते हुए कहा, “इतिहास 7 अक्टूबर से क्यों शुरू होता है? कोई यह नहीं बताता कि सिर्फ 2023 में उस दिन से पहले 400 फिलिस्तीनी मारे गए थे, या हजारों लोग इज़राइली जेलों में पड़े हैं.”
उन्होंने 7 अक्टूबर की घटनाओं के पहले और बाद में अंतरराष्ट्रीय जांच की मांग की. “हम सच चाहते हैं. किसने हमास को समर्थन दिया? किसने 7 अक्टूबर को संभव बनाया? चलिए सबकी जांच करें.”
भारत के औपनिवेशिक अतीत से समानता बताते हुए उन्होंने कहा कि फिलिस्तीनी भी वही हालात झेल रहे हैं. “1857 में भारत ने वही स्थिति झेली थी जो हम आज झेल रहे हैं. हजारों आपके पूर्वज मारे गए क्योंकि उन्होंने सशस्त्र विरोध शुरू किया. इतिहास मौजूद है और हम, फिलिस्तीनी, आपका उदाहरण अपना रहे हैं.”
राजदूत ने फिलिस्तीन के लिए भारत के शुरुआती समर्थन को रेखांकित किया, खासकर 1947 में संयुक्त राष्ट्र के विभाजन प्रस्ताव के खिलाफ दिए गए वोट को.
“1974 में अरब लीग के बाद पीएलओ को मान्यता देने वाला भारत पहला देश था. लेकिन आज, आपके टीवी चैनलों पर रोज इज़राइल का राजदूत आता है. हमें बोलने का मौका भी नहीं मिलता,” उन्होंने कहा. उन्होंने आगे जोड़ा, “हम कब्जे के शिकार हैं और दुर्भाग्य से हमें अपनी कहानी कहने का अधिकार भी नहीं मिलता.”
‘7 अक्टूबर और पहलगाम में कोई तुलना नहीं’
फिलिस्तीनी राजदूत ने यह भी कहा कि 7 अक्टूबर के हमास हमले और पहलगाम आतंकी हमले की तुलना नहीं की जानी चाहिए. उन्होंने ऐसी तुलना को भारत के “पक्ष में नहीं” बताया.
शावेश ने कहा, “कोई भी दो महीने पहले हुई घटना की तुलना 7 अक्टूबर से नहीं करे. आपकी सेना कब्जे वाली सेना नहीं है. आप कब्जाधारी नहीं हैं. आपकी अपनी सीमा है. यह आपके सरकार के अनुसार हुआ.”
“आप कब्जा नहीं कर रहे. आप लोगों को उनके मुस्लिम या हिंदू होने की वजह से निशाना नहीं बना रहे, या आपके सैनिक उन्हें उनके धर्म की वजह से निशाना नहीं बना रहे. हमें इसलिए निशाना बनाया जाता था क्योंकि हम गाज़ा के हैं, हम फिलिस्तीनी हैं.”
शावेश ने स्पष्ट किया कि भारत ने पाकिस्तान को लेकर संतुलित प्रतिक्रिया दी और भारतीय सेना ने कोई “नरसंहार” नहीं किया. उन्होंने यह भी बताया कि संयुक्त राष्ट्र ने बच्चों की सुरक्षा में असफल रहने के लिए भारतीय सेना को कभी ब्लैकलिस्ट नहीं किया है.
इसके विपरीत, इज़राइल डिफेंस फोर्स (आईडीएफ) को जून में बच्चों की सुरक्षा में असफल रहने वालों की सूची में शामिल किया गया. आईडीएफ और भारतीय सेना के बीच के ये बड़े अंतर अप्रैल और मई में दक्षिण एशिया की घटनाओं और 7 अक्टूबर की तुलना को भारतीय समाज के लिए “अनुचित” बनाते हैं.
गाज़ा पट्टी में 7 अक्टूबर के हमलों के जवाब में इज़राइल की कार्रवाई शुरू होने के बाद से कम से कम 60,000 लोग मारे जा चुके हैं. गाज़ा का बड़ा हिस्सा 650 से ज्यादा दिनों की लगातार बमबारी में तबाह हो चुका है.
पिछले महीने दिप्रिंट से बातचीत में इज़राइल के राजदूत रियूवेन अज़ार ने गाज़ा में तेल अवीव की कार्रवाई को नई दिल्ली के ऑपरेशन सिंदूर के समान बताया. पहलगाम के जवाब में भारत ने पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों और ढांचे को निशाना बनाया था, जिनमें जैश-ए-मोहम्मद का बहावलपुर और लश्कर-ए-तैयबा की मुरीदके सुविधाएं शामिल थीं.
अज़ार ने बताया था कि 7 अक्टूबर की घटनाएं, जिसमें करीब 1,100 इज़राइली मारे गए और 250 लोगों को बंधक बनाया गया, जनसंख्या के हिसाब से पहलगाम आतंकी हमले की तुलना में लगभग 10,000 गुना ज्यादा गंभीर थीं.
अपनी ओर से, फिलिस्तीनी राजदूत ने गाज़ा की स्थिति को उसी पैमाने पर समझाने की कोशिश की. “क्या मैं यह पैमाना इस्तेमाल कर सकता हूं? हम 7 प्रतिशत गाज़ावासियों के मारे जाने और घायल होने की बात कर रहे हैं. खुदा न करे, अगर इसे 1.5 अरब भारतीयों पर लागू करें तो यह कितने करोड़ होंगे? गाज़ा के 95 प्रतिशत लोग पूरी तरह से बनाए गए शिविरों में, विस्थापित होकर रह रहे हैं.”
“इसका मतलब है कि अगर मैं बिल्कुल यही पैमाना इस्तेमाल करूं, तो लगभग 1.3 अरब, अगर ज्यादा नहीं, भारतीयों ने अपने घर खो दिए होंगे.”
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