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Sunday, 22 December, 2024
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‘विस्तारवादी’ नेहरू, तिब्बती स्वायत्तता, ‘नया चीन’ – माओ ने 1962 में भारत के साथ युद्ध क्यों किया

चीनी नेहरू को भारतीय पूंजीपति वर्ग के एक ऐसे सदस्य के तौर पर देखते थे जो एक 'महान भारतीय साम्राज्य' बनाने की ओर नजर बनाए हुए थे. पीआरसी ने भारत को झटका देकर अपनी ताकत साबित करने की भी कोशिश की थी.

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नई दिल्ली: साठ साल पहले जब दुनिया घबराहट में अमेरिका और सोवियत संघ को क्यूबा मिसाइल संकट में घिसटता देख रही थी, तब चीन और भारत युद्ध की ओर चले गए. ‘भारत कहां गलत हुआ’ इसे लेकर भारतीय शिक्षाविदों, रक्षा विशेषज्ञों और राजनयिकों ने अलग-अलग नकारात्मक पहलुओं के बारे में काफी कुछ कहा है. लेकिन 1962 के युद्ध के पीछे चीन के इरादों को लेकर उसके सार्वजनिक क्षेत्र में ज्यादा कुछ लिखा या कहा नजर नहीं आता है.

अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ जॉन डब्ल्यू गार्वर बताते है कि चीनी प्रीमियर माओत्से तुंग ने युद्ध में जाने का फैसला क्यों किया, इसे लेकर चीन में बहुत कम प्रकाशित हुआ है. जबकि कोरियाई युद्ध, इंडोचीन युद्धों और 1950 के दशक में अपतटीय द्वीपों पर संघर्ष और 1974 के पैरासेल द्वीप अभियान के बारे में इसके विपरीत आपको काफी कुछ मिल जाएगा. तर्क दिया जा सकता है कि चीनी इरादे बहुत साफ न होने के कारण आज भी स्थिति में अस्पष्टता बनी हुई है, जिसका नतीजा 2020 में गलवान संघर्ष के तौर पर सामने भी आ चुका है.

उन्होंने कहा, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि तिब्बत की स्वायत्तता पर सवालों के अलावा, चीनी नेतृत्व को कुछ हद तक तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लेकर बनी उनकी धारणाओं ने इस ओर जाने के लिए निर्देशित किया था. गार्वर के अनुसार, नेहरू को – साम्यवाद के लेंस से देखते हुए – भारतीय पूंजीपति वर्ग के एक ऐसे सदस्य के रूप में देखा जाता था, जो ‘महान भारतीय साम्राज्य’ बनाने और अंग्रेजों द्वारा छोड़े गए शून्य को भरने की ओर देख रहे थे.’

1959 तक, बीजिंग को भारत के साथ अपने तनाव के अंतर्राष्ट्रीय नतीजों के बारे में कुछ चिंताएं थीं. खासकर ये कि क्या इसमें अमेरिकी अपनी दखलंदाजी करेगा,  सोवियत प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चेव संघर्ष के दौरान चीन के उठाए गए कदमों को किस तरह से लेंगे और बदले में ये सभी कारक वैश्विक कम्युनिस्ट आंदोलन में चीन की स्थिति को कैसे प्रभावित कर सकते हैं.

CIA के अधिकारिक तौर पर घोषित पोलो अभिलेखागार पर ध्यान देने से पता चलता है कि चीनी नीति हालांकि 1961 तक परस्पर विरोधी धारणाओं पर आधारित थी. इसके मुताबिक, जबकि चीनियों ने महसूस किया कि नेहरू के साथ ‘एकजुट’ होना जरूरी है क्योंकि भारत को ‘समाजवादी’ और ‘साम्राज्यवादी’ शिविरों की तरफ पैर फैलाते हुए देखा जा रहा था. उनका यह भी मानना था कि पड़ोसी देश के साथ लड़ाई चीन की ताकत को साबित करने में एक लंबा रास्ता तय करेगी.

विशेषज्ञों ने नोट किया है कि यहां भारत को ‘एक सबक’ सिखाने की इच्छा भी दिखाई दी.


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नेहरू को ‘विस्तारवादी’ समझना

नेहरू को लेकर बनी चीनियों की अवधारणा ने 1959 और 1962 के बीच बीजिंग के उठाए गए कदमों के समर्थन में एक प्रमुख भूमिका निभाई.

सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के अनुसार, मार्च 1959 में तिब्बती विद्रोह से पहले चीनी नेताओं की यह सोच थी कि नेहरू उनके प्रति भारतीय विपक्ष, प्रेस और यहां तक कि उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों की तुलना में अधिक मिलनसार थे.

लेकिन तिब्बती विद्रोह के बाद, जब भारत में ‘चीन-विरोधी’ स्वर उठे तो यह महसूस किया गया कि नेहरू ने इसे प्रोत्साहित किया होगा. इससे यह धारणा भी बनी तटस्थता के मामले में नेहरू के ‘दो चेहरे’ हैं – जिन्होंने एक तरफ तो तटस्थता का दावा किया लेकिन वास्तव में प्रमुख मुद्दों पर चीन के विरोधी हैं.

18 अप्रैल 1959 को तेजपुर में दलाई लामा के बयान ने मामले को और उलझा दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने ल्हासा छोड़ दिया क्योंकि चीनी कम्युनिस्टों के अधीन तिब्बत की कोई स्वायत्तता नहीं है.

27 अप्रैल 1959 को संसद में नेहरू के भाषण में स्थिति को साफ करने की कोशिश की गई थी. उन्होंने कहा, ‘मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि दलाई लामा इस बयान के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं. हमारे अधिकारियों का इन बयानों की ड्राफ्टिंग करने या तैयार करने से कोई लेना-देना नहीं है.’

लेकिन उनका ये भाषण भी उनके प्रति चीनी सोच को बदलने के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया. सीआईए के ऐतिहासिक अभिलेख में नोट किया गया है, ‘कुछ भी हो, भाषण ने नेहरू को ‘वास्तविक तिब्बती स्वायत्तता’ के आह्वान के प्रति अधिक ‘सहमत’ बना दिया.’

सीआईए अभिलेख में आगे कहा गया कि लगभग एक महीने बाद चीन सरकार द्वारा चलाये जा रहे समाचार पत्र पीपुल्स डेली ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) और जनता से नेहरू के भाषण का ‘अध्ययन’ करने का आह्वान किया, जिसके बाद चीनियों ने भारतीय प्रधानमंत्री की अपनी आलोचना और तेज कर दी.

इसके अलावा माओ ने नेहरू को भारतीय पूंजीपति वर्ग के सदस्य के रूप में देखा, जिन्हें ब्रिटिश ‘विस्तारवादी’ रणनीतियां विरासत में मिली थीं और उन्होंने तिब्बत को ‘बफर जोन’ में बदलने की मांग की, ताकि बाद में यह भारत का संरक्षक या उपनिवेश बन सके.

गार्वर कहते हैं, ‘इस तरह के बफर जोन का निर्माण ब्रिटिश साम्राज्यवादी रणनीति का उद्देश्य था और नेहरू इस संबंध में ब्रिटेन के ‘पूर्ण उत्तराधिकारी’ थे. नेहरू का उद्देश्य दक्षिण एशिया में उस क्षेत्र से ब्रिटिशों द्वारा छोड़े गए ‘शून्य को भरकर’ एक ‘महान भारतीय साम्राज्य’ का निर्माण करना था.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हालांकि यह एक गहरी गलत धारणा थी.’

यकीनन सटीक धारणा यह नजर आती है कि नेहरू ने बातचीत को प्राथमिकता दी और युद्ध में जाने के लिए तैयार नहीं थे. यह मानचित्रों पर चीनी और भारतीय दावों के बीच व्यापक अंतर को लेकर बीजिंग की जान बूझकर बनाई गई दोहरी सोच को बढ़ावा देने और सैन्य कार्रवाई की वजह बनी.

सीआईए के अनुसार, चीनी जानबूझकर नक्शों को लेकर भ्रामक थे, उन्हें लगा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को सीमांकित करने की जरूरत नहीं है, मामला ‘अधर’ में लटका रहेगा और नेहरू को इसके बारे में सचेत करने की कोई आवश्यकता नहीं है. सीआईए ने कहा, ‘चीन ने नेहरू को इसे स्वीकार करने के लिए मजबूर करने के स्पष्ट लक्ष्य के साथ एक निश्चित सीमा स्थिति को लिखित रूप में स्थापित करने का काम किया. उन्होंने शायद अनुमान लगाया कि सैन्य कार्रवाई के लिए उनकी लगातार सुलह प्रतिक्रिया सशस्त्र संघर्ष को जोखिम में डालने की उनकी अनिच्छा को दर्शाती है.’


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भारत को सबक सिखाना

युद्ध के दौरान जिस चीज ने चीन को प्रभावित किया, वह थी भारत को ‘नए चीन’ की शक्ति को स्वीकार करने की जरूरत. ‘नया चीन’ नवनिर्मित पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) को संदर्भित करता है, जो 1962 के युद्ध से बमुश्किल 13 साल पहले चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के तहत बनाई गई थी और अभी भी संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में जाने के लिए होड़ में थी.

यह चीन की ताकत साबित करने की चाहत का भाव था. भारत की फॉरवर्ड पॉलिसी पर कैसे प्रतिक्रिया दी जाए, इस बारे में चीनी सोच में यह स्पष्ट तौर पर नजर आता है.

गार्वर कहते हैं, ‘भारतीय सेना को एक बड़ी और दर्दनाक हार देने का अंतिम चीनी निर्णय इस भावना से काफी हद तक प्रभावित था कि सिर्फ इस तरह का झटका ही भारत को चीनी शक्ति को गंभीरता से लेने के लिए मजबूर कर सकता है.’

25-26 अगस्त 1959 की झड़पों ने चीनी राष्ट्रीय भावनाओं को भी आहत किया क्योंकि बीजिंग का मानना था कि भारत तिब्बती विद्रोहियों को तिब्बत में फिर से प्रवेश करने में मदद कर रहा है, खासकर मिग्युटुन क्षेत्र में.

भारत और चीन की एक-दूसरे के प्रति धारणाओं के बीच की खाई, और कैसे एक-दूसरे की विदेश नीति में शामिल हुई, यह चीनी विदेश मंत्रालय की जनवरी 1961 की रिपोर्ट में स्पष्ट था.

रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन ने अमेरिका को अपने प्रमुख विश्व शत्रु के रूप में देखा, उसके बाद भारत और इंडोनेशिया उस सूची में कहीं नीचे आते हैं. हालांकि, जैसा कि सीआईए ने बताया, भारत इस पदानुक्रम से अंजान नहीं था और भारतीयों के लिए, यहां तक कि चीनी दुश्मनी की सबसे छोटा से कृत्य भी संबंधों में उत्तेजना पैदा कर सकता था.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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