आतंकवादी अटवाल ने कनाडा में अकाली नेता मलकियत सिंह को जो गोली मारी थी उसने उनकी जान तो नहीं ली मगर उसे वे अपनी पीठ में रखे रहे लेकिन वर्षों बाद वे एक आतंकवादी की गोली से ही मारे गए.
चंडीगढ़: पंजाब के पूर्व मंत्री मलकियत सिंह सिद्ध पर कनाडा के सिख आतंकवादी जसपाल सिंह अटवाल ने 1986 में गोली चलाई थी मगर गोली लगने के बावजूद वे जीवित बचे रहे. मलकियत उस ‘अनूठे’ उपहार (उस गोली) को शरीर में छिपाए हुए स्वदेश लौट आए. वह गोली उनकी रीढ़ की हड्डी के बगल में ऐसी गैरनुकसानदेह जगह अटकी रही कि 56 वर्षीय अकाली नेता ने इसे निकलवाने के लिए सर्जरी नहीं करवाने का फैसला किया.
मलकियत सिद्धू के 60 वर्षीय पुत्र जसपाल सिद्धू बताते हैं, ‘‘वे कहा करते थे कि यह तो कनाडा का उपहार है. वह गोली उनकी मौत तक उनके शरीर में ही रही.’’
पिछले हफ्ते मुंबई में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडू द्वारा आयोजित सरकारी भोज में अटवाल की मौजूदगी ने पंजाब के उस खूनी इतिहास के एक विस्मृत अध्याय के पन्नो को फिर से खोल कर सामने कर दिया. चंडीगढ़ के अपने घर में बातचीत करते हुए जसपाल सिद्धू ने याद करते हुए कहा, ‘‘सरकार में मंत्री बनने के एक साल बाद मेरे पापा-मम्मी एक भतीजे की शादी में कनाडा गए थे. शादी के बाद वे ताऊ जी तथा ताई जी के साथ सैर करने गए थे कि कुछ नकाबपोश लोगों ने उनकी कार को घेर लिया और पापा पर गोली चला दी. उन्हें दो गोलियां लगी थीं.’’
वहां से गुजर रही एक महिला ट्रक ड्राइवर ने एंबुलेंस बुलाई और मलकियत सिद्धू को अस्पताल पहुंचाया गया. जसपाल बताते हैं कि एक गोली तो तुरंत निकाल दी गई थी, ‘‘हादसे के बाद कनाडा सरकार ने उनका इलाज करवाया और पूरी देखभाल की. उसने दूसरी गोली भी निकलवाने का सुझाव दिया. लेकिन पापा ने कहा कि यह तो कनाडा का उपहार है.’’
1991 का विधानसभा चुनाव के लड़ने के लिए जिन करीब दो दर्जन उम्मीदवारों का चयन किया गया था उनमें मलकियत सिद्धू भी थे. आतंकवादियों ने उनमें से कुछ उम्मीदवारों की हत्या कर दी थी, जिसके कारण चुनाव रद्द कर दिया गया था.
वकालत से नेतागीरी तक
नरमपंथी अकाली नेता मलकियत सिद्धू 1956 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के सदस्य बने. पेशे से वकील मलकियत पंजाब राज्य बिजली बोर्ड की शुरुआत में ही इसके सदस्य थे, जब राज्य के आला पुलिस अधिकारी रहे के.पी.एस. गिल के पिता आर.एस. गिल इसके अध्यक्ष थे. 1972 में मोगा से शुरू हुए पंजाब छात्र आंदोलन के घमासान के दौरान उन्हें छात्रों की कानूनी सहायता करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था.
लेकिन 1984 में घटी उस घटना के, जिसे ‘मिनी ऑपरेशन ब्लूस्टार’ कहा जाता है, दौरान उन्होंने शांति तथा सुलह कराने में जो शानदार भूमिका निभाई थी, उसे कम ही लोग याद करते हैं. उस समय असली कार्रवाई शुरू ह¨ने के करीब एक महीने पहले मोगा में स्थिति बेहद विस्फोटक बन गई थी.
‘इंडिया टुडे’ के संवाददाता गोविंद ठुकराल ने लिखा था- ‘भारत की इस दूसरी सबसे बड़ी अनाज मंडी मे तनाव का माहौल खत्म होने पर कई लोगों ने राहत की सांस ली है. गनीमत है कि सुरक्षा बलों और सिखों के बीच जबरदस्त टकराव की स्थिति के कारण आशंकित भारी खूनखराबे को टाल दिया गया है.’’
जसपाल सिद्धू याद करते हैं, ‘‘अप्रैल में गुरुपरब के दौरान गुरुद्वारों में हजारों की संख्या में सिख इकट्ठे हो गए थे. मोंगा के तीन प्रमुख गुरुद्वारों- बीबी कान कौर, सिंह सभा, अकाल सर- में भारी जमावड़ा था. बीएसएफ ने आठ लोगों को गोली मार दी थी, पूरे शहर में कर्फ्यु लगा दिया गया था. बीएसएफ के कमांडर का कहना था कि उसने तो जवाब में ही गोली चलाई थी क्योंकि पहली गोली गुरुद्वारे में से चलाई गई थी.’’
जसपाल कहते हैं, ’’करीब 700 श्रद्धालु गुरुद्वारों में फसे हए थे. गुरुद्वारों का राशन-पानी बंद कर दिया गया था. बीएसएफ गुरुद्वारों में जमा हथियारों, गोला-बारूद और छुपे हुए उग्रवादियों की खोज करने के लिए उनके अंदर जाने पर जोर दे रही थी. दिन बीतने के साथ हालात बिगड़ते गए. आसपास के इलाकों से लोग गुरुद्वारे में फंसे श्रद्धालुओं के लिए भोजन लेकर पहुंचने लगे थे. अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी किरपाल सिंह ने घोषणा कर दी थी कि पंजप्यारे सिख समर्थकों के साथ मोगा की ओर कूच करेंगे और गुरुद्वारों को मुक्त कराएंगे.’’
गुरुद्वारों में फंसे श्रद्धालु
‘इंडिया टुडे’ की रिपोर्ट के मुताबिक, ’बीएसएफ के जवान और हथियारबंद सिख गुरुद्वारों के छज्जों पर एक-दूसरे सामने आ डटे थे और अकालियों ने बंधक बने सिखों को छुड़ाने के लिए मोगा पर मर्जीवड़ों के साथ भारी हमला करने की धमकी दे दी थी… जब यह साफ हो गया कि पंजप्यारों के कूच की घोषणा केवल धमकी नहीं थी, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजाब के राज्यपाल बी.डी. पांडे और गृह मंत्रालय के अधिकारियों के साथ गंभीर विचार-विमर्श शुरू कर दिया.’
जसपाल सिद्धू बताते हैं कि पांडे ने अपने सलाहकार एस.एस. सिद्धू और पुलिस प्रमुख पी.एस भिंडर को सुलह कराने के लिए मोगा भेजा. मलकियत सिद्धू उस कमेटी में शामिल थे, जिसने इन दोनों से मुलाकात की थी. ‘‘लेकिन बैठक बेनतीजा रही क्योंकि भिंडर अड़ गए कि पुलिस गुरुद्वारों के अंदर जाएगी.’’
मलकियत सिद्धू ने अगले दिन जब एस.एस. सिद्धू और भिंडर से मुलाकात की, तो उन्होंने भिंडर से पूछा कि बीएसएफ ने जिन आठ लोगों को गोली मार दी, वे क्या हथियारों से लैस थे या गालीबारी के समय उनमें से कोई भी गुरुद्वारे के अंदर था? जसपाल सिद्धू कहते हैं कि ‘‘जब भिंडर ने ना में जवाब दिया तो एस.एस. सिद्धू स्तब्ध रह गए. उन्होंने सुरक्षाबलों को तुरंत गुरुद्वारों से हट जाने का आदेश दे दिया.’’
ठुकराल की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘‘इसके बाद मलकियत सिंह सिद्धू ने भोजन लेकर आए सिखों से बात की और उन्हें शांत किया. इसके कुछ समय बाद उनके एक समूह को गुरुद्वारों के अंदर भोजन ले जाने दिया गया. इससे लोगों का भरोसा लौटा और तनाव घटते ही समझौते को लागू करना आसान हो गया. अगले दिन, 3 मई को पूरी कार्रवाई समझौते के मुताबिक की गई.’’
मलकियत सिद्धू ने जोर दिया कि बीएसएफ की वापसी के बाद श्रद्धालुओं को बसों से अपने-अपने गांव भेज दिया जाए. जसपाल ने कहा कि यह भी तय किया गया कि ‘‘एक बस जब अपनी जगह पहुंच जाए तब दूसरी रवाना की जाए. ऐसा ही हुआ.’’
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई. ठुकराल के मुताबिक, चंडीगढ़ की कुछ समाचार एजेंसियों को फोन करके बताया गया कि विभिन्न मामलों के लिए तलाशशुदा 16 लोगों को इन गुरुद्वारों से गिरफ्तार किया गया और उनसे 13 अस्लहे बरामद किए गए. जसपाल सिद्धू बताते हैं कि ‘‘मोगा तथा चंडीगढ़ में जांच करने के बाद इंडिया टुडे को पता चला कि यह गढ़ी गई सूचना सरकार की साख बचाने के लिए थी क्योंकि उसने खुली घोषणा की थी कि वह किसी तलाशशुदा आदमी को गुरुद्वारों से निकलने नहीं देगी.’’
गलत सूचना
जसपाल कहते हैं, ‘‘जब यह खबर आई तब मेरे पापा को उनकी ही पार्टी के संत हरचरण सिंह लोंगोवाल के अलावा संत जरनैल सिंह भिंडरावाले का भी फोन आया. पापा ने उनसे कहा कि यह सूचना एकदम झूठी है.’’ अगले साल मलकियत सिद्धू ने मोगा-2 सीट पर दर्शन सिंह ब्रार (जो अब बाघपुराना के विधायक हैं) को नौ हजार वोटों से हराया और फिर सहकारिता तथा योजना विभाग के मंत्री बने. 1991 में वे मोगा और बाघपुराना से अकाली उम्मीदवार बनाए गए.
जसपाल बताते हैं, ‘‘मैं घर पर अपने दोस्तों के साथ बैठा था कि बाहर गोलियां चलने की आवाज आई मैं बाहर दौड़ा और पाया कि मेरे घर से कुछ दूरी पर दो लोग जमीन पर पड़े हैं. वे मेरे पापा और उनके सुरक्षा गार्ड थे. पापा की सांस अभी चल रही थी. हम उन्हें नजदीक के अस्पताल लेकर भागे. वहां डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.’’ जसपाल ने उनका अंतिम संस्कार उसी शाम उनके पुश्तैनी गांव दौधार में किया. वे कहते हैं, ‘‘हमने किसी जांच की जरूरत नहीं समझी. यह किसने किया, यह जानने में हमारी दिलचस्पी नहीं थी. हम यही जानते हैं कि वे एक निडर व्यक्ति थे, जो हमेशा अपने मूल्यों के लिए लड़े. उनकी याद में हम मोगा में हर साल खेलों का आयोजन करते हैं.’’