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Friday, 26 April, 2024
होमदेशखतरनाक गड्ढों को तीर्थस्थलों में बदला, लद्दाख के पश्मीना चरवाहों ने कैसे भेड़ियों के साथ रहना सीख लिया है

खतरनाक गड्ढों को तीर्थस्थलों में बदला, लद्दाख के पश्मीना चरवाहों ने कैसे भेड़ियों के साथ रहना सीख लिया है

उन गड्ढ़ों को शेंदोंग कहते हैं जिनका उपयोग पश्मीना बकरियों का शिकार करने वाले भेड़ियों को जाल में फंसाने के लिए किया जाता रहा है और फिर पत्थर मारकर उनकी जान ले ली जाती थी. संरक्षणवादियों ने स्थानीय लोगों और भिक्षुओं के साथ मिलकर इन गड्ढों को बौद्ध स्तूपों में बदलने का काम किया है.

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नई दिल्ली: दुनियाभर में ख्यात नरम, शानदार ऊन पश्मीना की यात्रा लद्दाख के ठंडे रेगिस्तानों से शुरू होती है, जहां चरवाहें और बकरी पालने वाले परिवार बर्फीली ठंड के दौरान चंगथांगी या चांगरा नामक बकरी की एक नस्ल को पालते हैं, इस उम्मीद के साथ कि वसंत का मौसम आने पर नरम ऊन की कटाई करेंगे.

और इसी वातावरण में सदियों से कैनिस ल्यूपस यानी हिमालयी ग्रे वुल्फ का भी सह-अस्तित्व बना हुआ है जो पालतू पश्मीना बकरियों का शिकार करके अपना पेट भरता है.

खुद को बड़े आर्थिक नुकसान से बचाने के लिए स्थानीय समुदायों ने सदियों से एक अनूठी परंपरा अपना रखी है. चरवारे परिवार यहां पर शंकु के आकार के गड्ढे खोदते और शेंदोंग कहे जाने वाले इन गड्ढों के अंदर भेड़िये को आकर्षित करने के लिए एक जीवित बकरी रख देते. भेड़िया एक बार इन गड्ढों में फंस जाता तो फिर पत्थरों से मार-मारकर उसकी जान ले ली जाती.

हालांकि, दो दशकों से अधिक समय से संरक्षणवादियों की एक टीम जानवरों के लिए मौत का जाल बने इन गड्ढों को धीरे-धीरे धार्मिक स्थलों में बदल रही है—शेंदोंग स्थलों पर बौद्ध स्तूप बनाकर समुदायों को एक ऐसी प्रजाति को मारने के प्रति हतोत्साहित किया जा रहा है, जिसके साथ उनका सदियों से संघर्ष जारी रहा है.

मैसूर स्थित एनजीओ नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के साथ काम करने वाले वैज्ञानिक कुलभूषण सिंह आर. सूर्यवंशी ने कहा, ‘हालांकि, मानव समाज और भेड़ियों का सदियों से आमना-सामना होता रहा है, भेड़ियों को दुनियाभर में एक खतरा माना जाता है. लिटिल रेड राइडिंग हूड जैसी कहानियां हों, या बॉलीवुड की फिल्में, भेड़ियों के बारे में आम धारणा यही है कि वे हिंसक जीव हैं.’

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नतीजतन, इन प्रजातियों का हमेशा शिकार किया जाता रहा, और यही दुनिया में इनकी घटती संख्या की एक बड़ी वजह भी है. भारतीय वन्यजीव संस्थान की 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में बाघों की तरह ही भेड़िये भी लगभग लुप्तप्राय हैं, और देश में इनकी संख्या केवल 3,100 ही रह गई है.

सूर्यवंशी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम पहले से ही हाशिये पर पड़े समाज (चरवाहों) को कोई नुकसान पहुंचाए बिना ही इस मुद्दे का हल निकालना चाहते थे. 20 से अधिक वर्षों से हम इन समुदायों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं.’

इस साल के शुरू में, फ्रंटियर्स इन इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में टीम के काम के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई थी.

मौत के जाल स्मारकों में बदल रहे

1960 के दशक से लद्दाख में व्यापक स्तर पर सैन्य मौजूदगी रही है, जिसने सड़क नेटवर्क की सुविधा बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई. रिसर्च टीम के मुताबिक, खासकर दो दशकों में तेजी से विकास के साथ इन क्षेत्र को 1974 में पर्यटन के लिए खोला गया था.

रक्षा, पर्यटन और विकास संबंधी बुनियादी ढांचे के विस्तार ने क्षेत्र में पारिस्थितिक संतुलन बिगाड़ा है, जिसका नतीजा तिब्बती हिरण और तिब्बती चिकारे जैसे शिकारी प्रजाति के जानवरों की संख्या में गिरावट के तौर पर सामने आया है, जिसने काले भेड़ियों की आबादी को भी सीधे तौर पर प्रभावित किया है.

जब टीम ने इस क्षेत्र में अपना काम शुरू किया तो उन्होंने प्रतिबंधित क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाले शेंदोंग की पहचान के लिए एक सर्वेक्षण करना शुरू किया. उनकी तरफ से तीन ब्लॉक—चांगथांग, रोंग और शाम—चुने गए, जहां काफी संख्या में भेड़िये थे और आबादी की तरफ से उनका शिकार किया जाना आम बात थी.

सर्वेक्षण में अध्ययन क्षेत्र वाले सभी 64 गांवों का दौरा करना और सभी शेंदोंग का पता लगाने के लिए प्रमुख स्थानीय मुखबिरों के साथ बातचीत करना शामिल था. टीम ने पाया कि सक्रिय शेंदोंग की पहचान करना मुश्किल था, क्योंकि भारत में भेड़ियों का शिकार करना अवैध है.

टीम ने पाया कि पिछले एक दशक में 37 शेंदोंग का इस्तेमाल किया गया था, जिनमें से पंद्रह अभी भी सक्रिय थे.

2017 में टीम ने चुशुल गांव में स्थानीय समुदायों और उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों के साथ शेंदोंग बंद करने की संभावनाओं पर चर्चा शुरू की.

हालांकि, टीम उन्हें नष्ट करने के बजाये सांस्कृतिक विरासत के तौर पर संरक्षित और बनाए रखना चाहती थी.

क्षेत्र के एक प्रभावशाली और सम्मानित भिक्षु बकुला रंगडोल न्यिमा रिनपोछे ने शेंदोंग की जगहों पर बौद्ध स्तूप स्थापित करने का सुझाव दिया.

सूर्यवंशी ने बताया, ‘जब हमने इस विचार के साथ (अन्य) भिक्षुओं से संपर्क किया, तो वे बहुत खुश हो गए. उन्होंने कहा कि यह पिछले पापों के प्रायश्चित का प्रतीक भी होगा.’

पारिस्थितिकी संरक्षण पर जोर देने की तुलना में धार्मिक भावनाओं से जोड़े जाने की वजह से इस प्रयास को ज्यादा मजबूती मिली.
अध्ययन में टीम ने लिखा कि स्थानीय समुदायों ने इस पहल में शामिल होने पर काफी गर्व और संतुष्टि की भावना जताई, और इसने नए सिरे से भेड़ियों के संरक्षण के प्रयासों पर काफी प्रभावी असर डाला.


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प्रायश्चित के लिए 40 साल इंतजार किया

इस प्रोजेक्ट में शामिल स्थानीय लोगों में से एक कर्मा सोनम हैं, जो नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन में फील्ड मैनेजर हैं.
ग्रामीण परिवार से तालुक रखने वाले सोनम की उम्र उस समय करीब 10 साल की थी, जब एक बार अपने पिता के साथ एक जगह से गुजरते हुए उन्होंने देखा कि एक शेंदोंग के आसपास कुछ भीड़ जमा है.

शेंदोंग में एक भेड़िया फंसा था, और ग्रामीणों ने दोनों से उनके साथ मिलकर उसे मारने में मदद करने को कहा. सोनम ने उन लोगों को भेड़िये को पत्थर मारते देखा और फिर खुद भी इसमें शामिल हो गया, जब तक कि जाल में फंसा जानवर मर नहीं गया.

यह घटना उनके जेहन में बनी रही. हालांकि, सोनम चाहते थे कि गांव के लोग इस तरह भेड़ियों को मारना बंद कर दे. लेकिन उनके मुताबिक, स्थानीय समुदाय अपनी आजीविका के लिए खतरा बने भेड़ियों को लेकर पशु संरक्षणकर्ताओं की कोई बात सुनना तक नहीं चाहते थे.

हालांकि, सोनम का कहना है कि लगभग 40 साल बाद उन्हें अपने पापों के प्रायश्चित का यह सुनहरा अवसर मिला है.
उनका कहना है कि अब, इन स्तूपों के आसपास पूजा-अर्चना होते देखी जा सकती है, जिससे पता चलता है कि आम तौर पर समुदाय ने अब इस प्रथा को स्वीकार कर लिया है और इसके लिए प्रतिबद्ध है.

उन्होंने कहा, ‘चूंकि, हमने संरक्षण में धार्मिक भावनाओं को भी शामिल किया है, इसलिए पुरानी पीढ़ी- जिन्होंने भेड़ियों के साथ सबसे लंबे समय तक संघर्ष किया- ने भी इस बदलाव को स्वीकार कर लिया है.’

टीम अब इस तरह की कवायद लद्दाख के अन्य क्षेत्रों में भी करने की योजना बना रही है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )


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