नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने इस सप्ताह संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली विशेष शक्तियों का उपयोग करते हुए तमिलनाडु के एक व्यक्ति की पॉक्सो सजा को रद्द कर दिया. अदालत ने कहा कि यह ऐसा मामला है “जहां कानून को न्याय के आगे झुकना चाहिए”.
के. किरुबाकरन को पॉक्सो कानून के तहत 10 साल की कठोर कैद और पुराने भारतीय दंड संहिता के तहत 5 साल की सजा हुई थी. लेकिन ट्रायल कोर्ट की सजा और सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बीच किरुबाकरन ने उस महिला से शादी कर ली, जिसके पिता ने शिकायत दर्ज कराई थी. अब इस दंपति का एक साल से भी कम उम्र का बेटा है.
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पुराने सवाल को फिर सामने लाता है—क्या भारत के बाल संरक्षण कानून का लागू होना किशोरों के आपसी सहमति वाले रिश्तों पर भी होना चाहिए?
दिप्रिंट ने अगस्त में रिपोर्ट किया था कि सुप्रीम कोर्ट यह विचार कर रहा है कि क्या पॉक्सो में सहमति की उम्र 18 से घटाकर 16 साल की जाए. केंद्र इस बदलाव का विरोध कर रहा है.
वहीं वरिष्ठ अधिवक्ता और अमिकस क्यूरी इंदिरा जयसिंह ने अदालत से सहमति की उम्र घटाने की मांग की है, यह तर्क देते हुए कि पॉक्सो कानून किशोरों के आपसी सहमति वाले रिश्तों को अनुचित रूप से अपराध बना देता है.
मामला और SC का आदेश
जस्टिस दिपांकर दत्ता और ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की पीठ ने दोनों सजाओं को रद्द कर दिया, यह कहते हुए कि आगे की कैद पत्नी, बच्चे और समाज के लिए “अपूरणीय क्षति” पहुंचाएगी.
पीठ ने कहा, “यह अपराध वासना का नहीं बल्कि प्रेम का परिणाम था.”
फैसला उन परिस्थितियों पर आधारित था जिन्हें अदालत ने “विशेष” माना. जिस महिला को पहले ‘पीड़िता’ कहा गया था, उसने हलफनामा देकर कहा कि वह अपनी वैवाहिक जीवन जारी रखना चाहती है. उसने बताया कि वह अपने पति पर निर्भर है और अपने बच्चे के साथ “सुखी, सामान्य और शांतिपूर्ण जीवन” जीना चाहती है.
जिस पिता ने शिकायत दर्ज कराई थी, उन्होंने भी मामले को रद्द करने पर कोई आपत्ति नहीं जताई. तमिलनाडु राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण ने भी अदालत को बताया कि यह दंपति “सुखी वैवाहिक जीवन” जी रहा है.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने सजा रद्द कर दी, लेकिन चेतावनी दी कि किरुबाकरन अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर नहीं जा सकता और जीवनभर उन्हें सम्मान के साथ बनाए रखना होगा. पीठ ने कहा कि ऐसा न करने पर “अच्छे न लगने वाले परिणाम” हो सकते हैं.
यह मामला लंबे कानूनी प्रक्रिया के बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.
तमिलनाडु की ट्रायल कोर्ट से दोषसिद्ध होने के बाद किरुबाकरन ने मद्रास हाई कोर्ट में अपील की. मई 2021 में, हाई कोर्ट में अपील लंबित रहते हुए, किरुबाकरन ने महिला से शादी कर ली. चार महीने बाद, सितंबर 2021 में हाई कोर्ट ने उसकी सजा को बरकरार रखा. इसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.
अनुच्छेद 142 और ‘पूर्ण न्याय’
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी मामले में “पूर्ण न्याय” करने के लिए आवश्यक कोई भी आदेश या डिक्री जारी कर सके. यह असाधारण प्रावधान अदालत को प्रक्रियात्मक या वैधानिक सीमाओं से ऊपर जाकर फैसला करने की अनुमति देता है, खासकर तब जब कानून का सख्त पालन अन्याय पैदा कर सकता हो.
हालांकि इसका उद्देश्य कानून को निरस्त करना नहीं है, लेकिन यह शक्ति एक संवैधानिक सुरक्षा उपाय की तरह काम करती है ताकि “कानून के कठोर अनुप्रयोग से होने वाले अन्याय” को रोका जा सके.
सालों से सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का उपयोग जटिल वैवाहिक विवाद सुलझाने, अनियमित नियुक्तियों को नियमित करने और स्पष्ट अन्याय को रोकने के लिए किया है. उदाहरण के तौर पर, इसी साल अप्रैल में कोर्ट ने इस प्रावधान का उपयोग करके कहा था कि तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा अनिश्चित काल तक लंबित रखे गए या राष्ट्रपति के पास भेजे गए बिलों को स्वीकृत माना जाएगा. कोर्ट ने कहा था कि यह आदेश विधायी प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखने के लिए जरूरी था.
किरुबाकरन के मामले में पीठ ने माना कि सामान्य रूप से POCSO के दोषसिद्ध मामलों को केवल समझौते या बाद में हुई शादी के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता. लेकिन पीठ ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 142 का अस्तित्व ही ऐसे मामलों के लिए है, जहां कानून का कठोर पालन “स्पष्ट अन्याय” पैदा कर दे.
अमेरिकी न्यायाधीश बेंजामिन कार्डोज़ो के इस सिद्धांत का हवाला देते हुए कि “कानून का अंतिम उद्देश्य समाज का कल्याण है”, पीठ ने कहा कि कभी-कभी कानून को “न्याय के उद्देश्य के सामने झुकना पड़ता है”.
निर्णय में कहा गया, “आपराधिक कानून का प्रशासन व्यावहारिक परिस्थितियों से अलग नहीं किया जा सकता.”
बड़ा सवाल
POCSO कानून, जो 2012 में बना था, 18 साल से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति के साथ सहमति से हुए यौन संबंध को भी अपराध मानता है. यह बच्चों को यौन शोषण से कठोर रूप से बचाने के उद्देश्य से बनाया गया था. लेकिन समय के साथ इस कानून की आलोचना बढ़ी है, क्योंकि इसके दायरे में ऐसे किशोर प्रेमी-युगल और युवा भी आ जाते हैं जिनके रिश्तों में न तो जोर-जबरदस्ती होती है और न ही शोषण.
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किरुबाकरन मामले में उसका आदेश केवल उस मामले की “विशेष परिस्थितियों” पर आधारित है और इसे मिसाल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. इसके बावजूद, इस फैसले ने उन मामलों पर ध्यान खींचा है जहां POCSO का इस्तेमाल सहमति वाले संबंधों में भी किया जा रहा है.
देशभर की अदालतें इस बात पर बंटी हुई हैं कि कानून के सुरक्षात्मक उद्देश्य और सामाजिक वास्तविकताओं के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए.
इस साल मई में, In Re: Right to Privacy of Adolescents (किशोरों के निजता के अधिकार के संबंध में) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक POCSO सज़ा के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी थी क्योंकि दोनों पक्ष लंबे समय से सहमति वाले संबंध में थे. हालांकि कोर्ट ने यह भी दोहराया कि कानून के तहत सहमति अप्रासंगिक है.
दो महीने पहले, मार्च में, सुप्रीम कोर्ट की एक और पीठ ने POCSO की कार्यवाही रद्द कर दी थी क्योंकि आरोपी ने शिकायतकर्ता से शादी कर ली थी और दोनों पारिवारिक जीवन में स्थापित हो चुके थे. कोर्ट ने कहा कि मुकदमे को जारी रखना “अनावश्यक उत्पीड़न” होगा.
हालांकि, सभी अदालतें इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं.
2023 में बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ ने कहा कि पीड़िता से शादी करने से अपराध नहीं मिट जाता और न ही आरोपी को POCSO के तहत सुरक्षा मिलती है. कोर्ट ने दोहराया कि नाबालिग कानूनी रूप से सहमति नहीं दे सकते और कानून के सुरक्षात्मक उद्देश्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
इस तरह के अलग-अलग निर्णय यह दिखाते हैं कि नीति स्तर पर एक तनाव कायम है—क्या कानून की कठोरता को अदालतों द्वारा स्वीकार की जा रही सामाजिक हकीकत के सामने झुकना चाहिए? यह बहस अभी खत्म होने से काफी दूर है.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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