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Thursday, 25 April, 2024
होमदेशCBI के पास लंबित 1,025 मामलों की ओर इशारा करते हुए संसदीय समिति ने इसके 'कैडर रिस्ट्रक्चरिंग' की मांग की

CBI के पास लंबित 1,025 मामलों की ओर इशारा करते हुए संसदीय समिति ने इसके ‘कैडर रिस्ट्रक्चरिंग’ की मांग की

यह देखते हुए कि इन लंबित मामलों में से 66 तो 5 साल से अधिक समय से जांच का इंतजार कर रहे हैं, समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि, 'मामले दशकों तक निश्चित रूप से समापन किए बिना लटके नहीं रहे सकते.

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नई दिल्ली: केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) में 1,000 से अधिक मामलों की जांच लंबित होने की जानकारी के साथ एक संसदीय समिति ने गुरुवार को अपनी रिपोर्ट में इस जांच एजेंसी को जल्द-से-जल्द ‘कैडर रिस्ट्रक्चरिंग (कर्मचारी संवर्ग के पुनर्गठन)’ करने को कहा है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि लंबित मामलों का ढेर न लगे. इन्हीं में से 66 लंबित मामले तो पांच साल से भी अधिक समय से जांच का इंतजार कर रहे हैं.

समिति ने यह भी सिफारिश की कि सीबीआई प्रतिनियुक्ति पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए प्रयास करे और लंबित मामलों के शीघ्र निपटान के लिए कम-से-कम पुलिस उपाधीक्षक के पद के स्तर तक के स्थायी कर्मचारियों की सीधी भर्ती करे.

कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय मामलों पर राज्यसभा की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ‘विलंबित न्याय किसी भी तरह से न्याय नहीं होता है और मामले दशकों तक निश्चित रूप से समापन के बिना लटके नहीं रह सकते हैं.’

गुरुवार को संसद में पेश रिपोर्ट के अनुसार, उस साल 31 जनवरी, 2022 तक कुल 1,025 मामले सीबीआई के पास लंबित थे, जिनमें से 66 मामले पांच साल से अधिक समय से लंबित थे.

भाजपा के राज्यसभा सांसद सुशील कुमार मोदी की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि यदि ‘जनशक्ति (मैनपावर) से संबंधित आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता है तो मामलों के इस तरह लंबित रहने को प्रभावी ढंग से कम किया जा सकता है.

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रिपोर्ट में आगे कहा गया है, ‘समिति अनुशंसा करती है कि सीबीआई उसके पास लंबित मामलों के निपटान के लिए एक रोडमैप तैयार करे और तदनुसार इस समिति को सूचित करे.’


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‘सामान्य सहमति का वापस लिया जाना चिंता का विषय है’

समिति ने कई राज्यों द्वारा मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने और जांच शुरू करने के लिए सीबीआई को अपनी सामान्य सहमति (जेनेरल कंसेंट) वापस लिए जाने पर भी चिंता जताई और एजेंसी से उन्हें इसका विवरण देने को कहा.

सीबीआई की शक्तियों को दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम (दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिशमेंट एक्ट) के तहत परिभाषित किया गया है. हालांकि इस अधिनियम की धारा 5 में कहा गया है कि सीबीआई का अधिकार क्षेत्र सभी राज्यों में फैला हुआ है, मगर, इसी अधिनियम की धारा 6 के अनुसार, सीबीआई संबंधित राज्य सरकार की सहमति से ही किसी तरह की जांच या छापेमारी कर सकती है.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘समिति के सामने उन राज्यों के विवरण का प्रस्तुत किया जा सकता है जिन्होंने अपनी सामान्य सहमति वापस ले ली है और साथ में यह भी बताया जाना चाहिए कि क्या ऐसे राज्यों ने कुछ मामलों में अपनी विशिष्ट सहमति दी है?’ इसमें कहा गया है, ‘समिति उन मामलों की संख्या का ब्योरा भी चाहती है जिनमें राज्यों ने जांच के लिए सीबीआई को अपनी सहमति देने से इनकार कर दिया है और उन मामलों की संख्या भी जानना चाहती है जिनमें राज्यों द्वारा विशिष्ट सहमति दी गई है.’

सीबीआई ने पहले कहा था कि लगभग 100 ऐसे हाई-वैल्यू वाले धोखाधड़ी के मामले हैं जो कुछ राज्यों द्वारा विशिष्ट सहमति न दिए जाने के कारण दर्ज नहीं किए जा सके’.

सीबीआई सूत्रों के अनुसार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और पंजाब सहित कई राज्यों से ऐसी धोखाधड़ी – बैंक धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार सहित- की 100 से अधिक शिकायतें मिली हैं जिनमें 20,000 करोड़ रुपये से अधिक की धोखाधड़ी की गई थी. सूत्र ने आगे कहा कि ये मामले इस वजह से दर्ज नहीं किए गए हैं क्योंकि राज्यों ने अभी तक जांच शुरू करने के लिए अपनी सहमति नहीं दी है.

जिन आठ राज्यों ने सीबीआई को अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में मामलों की जांच के लिए सहमति नहीं दी है, वे हैं महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़, केरल और मिजोरम. इसमें से एक मिजोरम, जहां की सत्तारूढ़ पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट एनडीए का घटक है, को छोड़कर बाकी सभी का नेतृत्व भाजपा के विरोध में खड़ी पार्टियों की सरकारों द्वारा किया जाता है.

इसके अलावा, समिति ने सीबीआई के पास दर्ज मामलों और शिकायतों की संख्या, लंबित मामलों की संख्या और जिस अवधि से वे लंबित हैं उसका वर्ष-वार विवरण भी मांगा. जांच के लिए लंबित मामलों की संख्या, सुनवाई के लिए लंबित मामलों की संख्या, सुनवाई पूरी हो जाने वाले मामलों की संख्या, और दोषमुक्ति (बरी किये जाने) की तुलना में दोषसिद्धि (दोषी ठहराए जाने) का प्रतिशत भी मांगा गया है.

‘अभियोजन के लिए लंबित मंजूरी’

समिति की रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि कम-से-कम 72 सतर्कता (विजिलेंस) से जुड़े मामलों – जिनमें कई गंभीर आरोप शामिल हैं – में तीन महीने की निर्धारित समय सीमा से परे भी अभियोजन (मुकदमा चलाये जाने) हेतु मंजूरी लंबित हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि इस तरह की देरी एक ‘नियमित मामला’ बन गया है और इसने सिफारिश की है कि केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) को ऐसे मामलों में आवश्यक कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाए.

रिपोर्ट कहती है, ‘समिति इस बात को लेकर काफी चिंतित है कि निर्धारित समय सीमा के भीतर अभियोजन की मंजूरी नहीं देना अब एक नियमित मामला बन गया है.’

इसमें आगे जोड़ा गया है, ‘इसलिए, समिति सरकार को प्रासंगिक प्रावधानों में संशोधन करने और केंद्रीय सतर्कता आयोग को ऐसे मामलों में आवश्यक कार्रवाई करने के लिए सशक्त बनाये जाने की सिफारिश करती है जहां सक्षम प्राधिकारी किन्हीं वैध कारणों के बिना निर्धारित समय सीमा के भीतर अभियोजन की मंजूरी देने में विफल रहता है.’

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि केंद्रीय सतर्कता अधिकारियों (सीवीओ) के पास भी बड़ी संख्या में शिकायतें लंबित हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘केंद्रीय सतर्कता आयोग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी 2020 से दिसंबर 2020 की अवधि के दौरान, केंद्रीय सतर्कता आयोग के माध्यम से केंद्रीय सतर्कता अधिकारियों को प्राप्त 569 शिकायतें और उनके द्वारा स्वयं सीधे तौर पर प्राप्त 11,693 शिकायतें उनके पास तीन महीने की निर्धारित अवधि से अधिक समय से लंबित हैं और कुछ शिकायतें तो तीन वर्षों से अधिक से लंबित हैं.‘

इसमें कहा गया है, ‘समिति चाहती है कि केंद्रीय सतर्कता आयोग उसे बताए कि केंद्रीय सतर्कता अधिकारियों के पास इतनी बड़ी संख्या में शिकायतें क्यों लंबित हैं और निर्धारित समय सीमा का अनुपालन क्यों नहीं किया जा रहा है?‘

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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