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Sunday, 27 July, 2025
होमदेशबीमारी में और स्वास्थ्य में साथ निभाने का वादा — समलैंगिक कपल्स ने क्यों छेड़ी कानूनी लड़ाई?

बीमारी में और स्वास्थ्य में साथ निभाने का वादा — समलैंगिक कपल्स ने क्यों छेड़ी कानूनी लड़ाई?

याचिका में कहा गया है कि समलैंगिक कपल्स को एक-दूसरे का मेडिकल प्रतिनिधि बनने का हक मिलना चाहिए. उन्हें इससे बाहर रखना गलत है और ये उनके अधिकारों का उल्लंघन है, जो संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 में दिए गए हैं.

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नई दिल्ली: अर्शिया टक्कर और उनकी समलैंगिक पार्टनर, चांद चोपड़ा, जो एक वकील हैं, ने जून 2015 में एक रिश्ते की शुरुआत की थी.

दिसंबर 2023 में, दिल्ली के इस कपल ने न्यूज़ीलैंड में एक कमिटमेंट सेरेमनी के ज़रिए अपने रिश्ते को मनाया, जब सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रियो बनाम भारत संघ मामले में समलैंगिक पार्टनर को रिश्ते या साथ रहने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी, हालांकि उनकी शादी के अधिकार को नहीं माना गया.

“जब सुप्रीम कोर्ट 2023 में समलैंगिक पार्टनर की शादी की बराबरी सहित अन्य याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था, हमने सबसे अच्छे की उम्मीद की थी और एक साथ रहने की सेरेमनी की योजना बनाई थी,” टक्कर ने दिप्रिंट को बताया. “हालांकि, पांच जजों की बेंच का इन याचिकाओं को खारिज करना हमारे लिए एक कड़वा झटका था.”

एक दशक तक साथ रहने के बावजूद, टक्कर और चोपड़ा उस बुनियादी हक से वंचित हैं, जो उनके मुताबिक हेट्रोसेक्सुअल (स्त्री-पुरुष कपल) कपल को अपने आप मिल जाता है—एक-दूसरे के लिए मेडिकल से जुड़ा फैसला लेने का हक.

अब दिल्ली हाई कोर्ट में एक मामले की मुख्य याचिकाकर्ता के रूप में, टक्कर इस मुद्दे को उठाना चाहती हैं कि समलैंगिक “साथी जो एक यूनियन में हैं” उनके लिए कोई कानूनी व्यवस्था या मान्यता नहीं है, खासकर जब बात मेडिकल एमरजेंसी या इलाज के दौरान सहमति देने की आती है. उन्होंने दलील दी कि इस तरह की मान्यता की कमी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.

मेडिकल संबंधी सहमति आमतौर पर परिवार के सदस्य देते हैं.

टक्कर ने कहा: “हम अपनी ज़िंदगी एक आम कपल की तरह जीते हैं. तो हम बस क़ानून की बराबरी वाली सुरक्षा चाहते हैं.”

“अगर हमें बराबरी से मान्यता दी जाती, तो ये समस्याएं नहीं होतीं. अगर कोई मेडिकल एमरजेंसी आती है, तो आपका समलैंगिक पार्टनर, जो अक्सर आपका इकलौता परिवार होता है, वो आपके लिए मेडिकल फैसले नहीं ले सकता. ये बहुत जटिल हो जाता है क्योंकि इमरजेंसी कभी भी आ सकती है और आपके पार्टनर से बेहतर आपका भला कोई और नहीं सोच सकता, क्योंकि अगर आपके साथ कुछ हो जाए तो सबसे ज़्यादा नुकसान उसी को होगा,” उन्होंने कहा और जोड़ा कि हेट्रोसेक्सुअल कपल के लिए यह बहुत आसान होता है.

याचिकाकर्ता ने दिप्रिंट को बताया कि दिल्ली हाई कोर्ट का इस मामले में निर्णय एक बड़े समुदाय को प्रभावित करेगा. “अगर हम जैसे लोग, जिन्हें अपने दोस्तों और परिवार का प्यार मिला है, इस याचिका को अदालत में नहीं ले जाते, तो हम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे,” उन्होंने कहा.

जब उनकी पार्टनर को डेंगू हुआ था, तो उनके भाई को सहमति और जानकारी देने के लिए आगे आना पड़ा, टक्कर ने बताया. उन्होंने कहा, “अब, उनका भाई यूके में रहता है, और पास में कोई परिवार नहीं है। ये सोचकर ही डर लगता है. कानून मूल रूप से LGBTQ+ जोड़ों से कहता है कि आप अपने पार्टनर के लिए कानूनी रूप से कोई नहीं हैं.”

उन्होंने जोड़ा, “एक रास्ता है—जो हमने अपनी याचिका में भी सुझाव दिया है—कि अस्पताल में व्यक्ति एक मेडिकल पावर ऑफ अटॉर्नी दे सके या कुछ ऐसा दस्तावेज़ दिखा सके, जिससे साबित हो कि उसने अपने पार्टनर को अपनी ओर से सहमति देने का अधिकार दिया है.”

टक्कर ने दिप्रिंट को बताया कि भारतीय कानून में समलैंगिक कपल को लेकर कुछ खामियां हैं.

“भले ही हमारे पास रिश्ते का मौलिक अधिकार है, और बिना भेदभाव के साथ रहने का अधिकार है, लेकिन हमारे रिश्ते या यूनियन को रेगुलेट करने वाला कोई क़ानून नहीं है. इससे कई समस्याएं खड़ी होती हैं. इससे किसी को नुकसान नहीं होगा,” उन्होंने पूछा. “यह हमें अच्छी ज़िंदगी जीने का अधिकार देगा, जो हम उतना ही डिज़र्व करते हैं जितना कोई और.”

टक्कर की याचिका और उसके पीछे का अनुभव

टक्कर की उस याचिका पर कार्रवाई करते हुए, जिसमें LGBTQ+ पार्टनर्स के “एक साथ रहने” की स्थिति में मेडिकल सहमति के लिए उचित कानूनी ढांचे की कमी की बात कही गई थी, दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार को चार हफ्तों में जवाब दाखिल करने को कहा है. अगली सुनवाई 27 अक्टूबर को होनी है.

17 जुलाई को, जस्टिस सचिन दत्ता की बेंच ने मौखिक रूप से सरकार के वकील से पूछा, “अगर कोई व्यक्ति अनाथ है तो क्या होगा? अगर कोई अकेले रह रहा है तो? उसके लिए सहमति कौन देगा?”

हाई कोर्ट में टक्कर की 702 पन्नों की याचिका इस बात पर जोर देती है कि मेडिकल मामलों में उनकी पार्टनर के साथ उनके संबंध को मान्यता दी जानी चाहिए, खासकर क्योंकि उनकी पार्टनर का करीबी परिवार अलग-अलग राज्यों या देशों में रहता है और मेडिकल इमरजेंसी के वक्त उपलब्ध नहीं हो पाएगा.

ऐसे हालात में टक्कर ने खुद को अपनी पार्टनर के लिए जरूरी फैसले लेने वाली व्यक्ति के रूप में बताया, और कहा कि इलाज या इमरजेंसी के दौरान मेडिकल सहमति के लिए “एक साथ रहने वाले जोड़ों” को लेकर कोई स्पष्ट कानूनी ढांचा या आम कानून की मान्यता नहीं है.

खास बात यह है कि टक्कर की याचिका भारतीय मेडिकल काउंसिल (प्रोफेशनल कंडक्ट, एटीकेट एंड एथिक्स) रेगुलेशंस, 2002 की क्लॉज 7.16 का ज़िक्र करती है, जो कहता है कि इलाज या मेडिकल प्रक्रिया के लिए “पति या पत्नी, माता-पिता या नाबालिग के संरक्षक, या खुद मरीज” की सहमति जरूरी है.

याचिका में आगे कहा गया है, “एक साथ रहने वाले पार्टनर्स की स्पष्ट मान्यता न होने से याचिकाकर्ता अपनी पार्टनर मिस चोपड़ा के लिए या वह उनके लिए जरूरी मेडिकल फैसले लेने के मामले में पूरी तरह असहाय हो जाती हैं—जबकि यही अधिकार मौजूदा 2002 रेगुलेशंस के तहत सीधे रिश्ते वाले जोड़ों को आसानी से मिल जाता है.”

समान-लैंगिक कपल्स के अधिकारों का उल्लंघन

याचिका में कहा गया है कि इस तरह की मान्यता की कमी संविधान के भाग III के तहत समान-लैंगिक जोड़ों को मान्यता देने की संवैधानिक जिम्मेदारी का उल्लंघन करती है, जो मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है. मेडिकल निर्णय लेने के लिए समान-लैंगिक पार्टनरों को शामिल न करना या मान्यता न देना मौजूदा कानूनी व्यवस्था को “स्पष्ट रूप से मनमाना” बनाता है और इससे अनुच्छेद 14 के तहत समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है.

याचिका में यह भी कहा गया है कि यह व्यवस्था प्रणालीगत बहिष्कार को दर्शाती है, जो लिंग के आधार पर भेदभाव है और यह संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करती है. याचिका में यह तर्क दिया गया है कि अलग-अलग यौन रुझान “लिंग” की परिभाषा में आते हैं, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 के नवतेज जोहर बनाम भारत संघ के फैसले में कहा था.

याचिका में कहा गया है, “यौन रुझान के आधार पर किया गया यह भेदभावपूर्ण वर्गीकरण — जो हेट्रोसेक्सुअल रिश्तों को विशेष अधिकार देता है — किसी भी तर्कसंगत आधार से रहित है.”

इस याचिका में अदालत से यह निर्देश देने की मांग की गई है कि अस्पतालों या डॉक्टरों को निर्देश दिया जाए कि वे गैर-हेट्रोसेक्सुअल पार्टनर्स को मेडिकल प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दें और इलाज के दौरान उन्हें पहुंच दें. विकल्प के तौर पर याचिकाकर्ता अदालत से यह घोषणा भी चाहते हैं कि किसी गैर-हेट्रोसेक्सुअल पार्टनर को पहले से दी गई मेडिकल पावर ऑफ अटॉर्नी या शपथ-पत्र ही इलाज के समय उसे अधिकृत प्रतिनिधि मानने के लिए पर्याप्त हो.

अब सबकी नजरें केंद्र सरकार पर हैं, जिसे दिल्ली हाई कोर्ट के सामने अपना जवाब देना है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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