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Sunday, 19 May, 2024
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मुर्मू पर ममता के नरम रुख के बाद यशवंत सिन्हा ने कहा- सर्वसम्मति वाला उम्मीदवार होना चाहिए था

संयुक्त विपक्ष के राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार सिन्हा ने कहा कि उनकी उम्मीदवारी 'प्रतीकात्मक' नहीं हैं और राजग द्वारा द्रौपदी मुर्मू की आदिवासी पहचान को लेकर की जा रही राजनीति कोई बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं डालने वाली.

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नई दिल्ली: विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा ने दावा किया कि वह तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) प्रमुख ममता बनर्जी के इस रुख से सहमत हैं कि अगर भाजपा ने इस पद के लिए भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की पसंद, द्रौपदी मुर्मू के लिए सभी दलों का समर्थन मांगा होता तो यह उसे बड़ी आसानी से मिल सकता था.

दिप्रिंट को दिए एक साक्षात्कार में सिन्हा ने कहा कि जिस वजह से राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने जा रहा है, वह भाजपा की ‘विफलता’ को दर्शाता है.

सिन्हा, जिन्होंने राष्ट्रपति चुनाव से पहले टीएमसी से इस्तीफा दे दिया था, ने कहा, ‘मैं ममता बनर्जी की बात से सहमत हूं. (राष्ट्रपति पद का) उम्मीदवार सर्वसम्मति से ही होना चाहिए था.’ वह मुर्मू, जो भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बन सकती हैं, मामले में अपने पूर्व पार्टी प्रमुख के स्पष्ट रूप से नरम दिख रहे रुख का जिक्र कर रहे थे.

ममता, जिन्होंने सिन्हा को एक दर्जन से अधिक विपक्षी दलों द्वारा राष्ट्रपति पद के लिए साझा उम्मीदवार के रूप में प्रचारित करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी, ने 1 जुलाई को उस समय सब को चौंका दिया था जब उन्होंने कहा था कि अगर भाजपा ने उनसे सलाह ली होती तो मुर्मू इस पद के लिए आम सहमति वाली उम्मीदवार हो सकती थीं.

उन्होंने कहा कि अगर भाजपा ने अपने उम्मीदवार की पसंद का खुलासा पहले किया होता तो सर्वदलीय बैठक में इस पर जरूर चर्चा होती. बता दें कि राष्ट्रपति के लिए चुनाव 18 जुलाई को होगा.

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हालांकि इस बात की राजनीतिक अटकलें तेज हैं कि ममता का यह दावा बंगाल में आदिवासी मतदाताओं को उनकी पार्टी की तरफ आकर्षित करने का एक प्रयास हो सकता है, मगर सिन्हा ने कहा कि राष्ट्रपति पद की ‘गरिमा’ ऐसी है कि शायद इस मामले में चुनाव जैसी चीज को शामिल ही नहीं होनी चाहिए था.


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‘शायद चुनाव होना ही नहीं चाहिए था…’

सिन्हा ने कहा कि सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी दल ‘एक साथ बैठकर आम सहमति बना सकते थे’ बशर्ते ऐसा करने के लिए कोई अवसर होता.

उन्होंने कहा, ‘मैंने पहले भी कहा है कि राष्ट्रपति का पद इतना गरिमामय पद है कि शायद इसके लिए चुनाव नहीं होना चाहिए था… इसलिए ममता बनर्जी ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा है जो अप्रिय हो. यह सत्ताधारी दल की विफलता है कि इस सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए चुनाव होने जा रहा है.’

सिन्हा ने जोर देकर कहा कि राष्ट्रपति चुनावों के दौरान कोई भी पार्टी व्हिप काम नहीं करने और सांसदों और विधायकों द्वारा गुप्त मतदान के तहत वोट डाले जाने के पीछे एक कारण है. उन्होंने आगे कहा कि इसी वजह से उनका मानना है कि किसी भी उम्मीदवार को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा करने वाली कोई भी पार्टी इस बात का सटीक अनुमान नहीं लगा सकती है कि किस उम्मीदवार को कितने वोट मिलेंगे.

सिन्हा ने कहा, ‘अगर संविधान इससे इतर चाहता था, तो इसमें यह कहा गया होता कि चुनाव आयोग या राज्य सभा सचिव को चुनाव आयोग के साथ पंजीकृत सभी राजनीतिक दलों के प्रमुखों को बुलाना चाहिए, उनसे उनके विचार पूछने चाहिए और फिर यह तय कर देना चाहिए कि कौन जीता है और इस तरह से राष्ट्रपति चुन लिए गए होते. लेकिन ऐसा कोई प्रावधान तो है नहीं.’

उन्होंने कहा, ‘इस चुनाव में, व्हिप जारी किये जाने की सख्त मनाही है क्योंकि संविधान के नियमों में यह परिकल्पना की गई है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि- सांसद और विधायक- इस चुनाव में अपने दिमाग का प्रयोग करेंगे.’

सिन्हा ने कहा कि गैर-भाजपा शासित राज्यों के दौरे के दौरान उन्हें जो प्रतिक्रिया मिली, वह काफी ‘जबरदस्त’ थी.


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मुर्मू को लेकर बंट गया है विपक्ष?

सिन्हा इस बात से असहमत दिखे कि मुर्मू की आदिवासी पृष्ठभूमि झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) जैसे कुछ विपक्षी दलों, जो पूरी तरह से आदिवासी वोटों की राजनीति पर निर्भर है, के वोटों में बंटवारा कर सकती है. विपक्षी दलों की तरफ से राष्ट्रपति पद के इस उम्मीदवार ने कहा कि छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासी राज्य वाजपेयी सरकार के तहत बनाए गए थे, जिसमें वह भी एक हिस्सा थे.

उन्होंने कहा, ‘छत्तीसगढ़ और झारखंड एक समान जनसंख्या प्रोफाइल वाले पड़ोसी राज्य हैं. मैं छत्तीसगढ़ गया और वहां के मुख्यमंत्री तथा उनकी कैबिनेट से मिला, जिसमें बड़ी संख्या में अनुसूचित जनजाति के लोग भी शामिल थे. उनमें से किसी को भी इस तरह का संदेह नहीं था कि उन्हें मुझे वोट देने पर सिर्फ इसलिए पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि दूसरी तरफ के उम्मीदवार की कोई एक खास पहचान है.’

उन्होंने दावा किया कि मुर्मू से जुड़ी ‘पहचान की राजनीति’ भाजपा का प्रचार है, जो ‘कहीं भी ज्यादा प्रभाव नहीं डाल पायेगी.’

उन्होंने कहा कि विपक्ष की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि सभी दल एक साथ आए और उन्होंने राजग के सामने अपना साझा उम्मीदवार घोषित किया. सिन्हा ने कहा, ‘वे एक मोनोलिथ (एकाकी इकाई) हैं. वहां केवल एक ही व्यक्ति निर्णय लेता है. फिर, उन्हें इंतजार क्यों करना पड़ा? उन्होंने पहले अपने उम्मीदवार की घोषणा क्यों नहीं की?’

सिन्हा ने इस सुझाव को भी खारिज कर दिया कि संख्या बल के राजग के पक्ष में होने की वजह से उनकी लड़ाई ‘प्रतीकात्मक’ है.

सिन्हा ने कहा, ‘यह कोई प्रतीकात्मक लड़ाई नहीं है. भाजपा केवल उम्मीदवार की पहचान पर चर्चा करके इसे प्रतीकात्मक लड़ाई बनाने की कोशिश भर कर रही है. हमारे लिए, विपक्ष में यह दो पहचानों के बीच की कोई लड़ाई नहीं है, बल्कि दो विचारधाराओं के बीच का द्वंद है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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