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Sunday, 23 June, 2024
होमराजनीति‘बागी बलिया’ को पहचान देने वाले चंद्रशेखर के बेटे की चुनावी राह क्यों आसान नहीं

‘बागी बलिया’ को पहचान देने वाले चंद्रशेखर के बेटे की चुनावी राह क्यों आसान नहीं

आठ बार बलिया से सांसद रहे चंद्रशेखर को आज भी यहां प्यार से याद किया जाता है, लेकिन विकास में पिछड़ापन और भाजपा के प्रति सत्ता विरोधी भावना उनके बेटे नीरज के लिए चुनौती बनी हुई है.

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बलिया: 54-वर्षीय मैकेनिक कौसर जमाल के लिए उत्तर प्रदेश के बलिया के गौरवशाली दिन मोदी लहर से नहीं आए. इसके बजाय, यहां के कई अन्य लोगों की तरह उन्हें भी एक अन्य प्रधानमंत्री — दिवंगत चंद्रशेखर में गर्व और राजनीतिक पहचान मिलती है. हालांकि, चंद्रशेखर केवल सात महीने के लिए प्रधानमंत्री रहे, लेकिन वे 1977 से 2004 के बीच आठ बार यहां से लोकसभा सांसद रहे.

परमंदापुर गांव के निवासी जमाल ने कहा, “चंद्रशेखर बलिया की पहचान थे. उनके पास न केवल बलिया बल्कि पूरे देश के लिए एक विजन था.”

इस जिले को अक्सर “बागी बलिया” के नाम से जाना जाता है, क्योंकि इसने स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे और चित्तू पांडे से लेकर समाजवादी फायरब्रांड चंद्रशेखर तक कई क्रांतिकारी शेरों को जन्म दिया है. लोग आम निवासियों की विद्रोही भावना के किस्से भी सुनाते हैं — और कैसे एक बार यह भावना चंद्रशेखर तक भी पहुंच गई थी.

जमाल ने याद किया कि 1991 में तत्कालीन पीएम चंद्रशेखर यूपी के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को विकास कार्य शुरू करने की उम्मीद में बलिया लेकर आए थे, लेकिन उनका स्वागत करने के बजाय मंडल युग के दौरान उनके आरक्षण समर्थक रुख से नाराज़ ऊंची जातियों ने काले झंडे लहराए और चप्पल फेंकी. यादव के गुस्से में मंच से चले जाने के बाद, चंद्रशेखर ने लोगों से आग्रह किया कि उन्हें “व्यवहार करना सीखना होगा”.

30 साल से भी ज़्यादा समय बाद, इस बड़े पैमाने पर ग्रामीण, बाढ़-ग्रस्त क्षेत्र में कुछ चीज़ें नहीं बदली हैं. विकास अभी भी पिछड़ रहा है और जमाल के अनुसार, हर कोई खुद को क्रांतिकारी समझता है.

उन्होंने मज़ाक में कहा, “बलिया में हर घर में नेता है, इसलिए विकास नहीं हो पाया.”

ग्रामीणों की शिकायत है कि “पीएम निर्वाचन क्षेत्र” के टैग के बावजूद, बलिया “पिछड़ा” हुआ है और इसके किसी भी प्रतिनिधि, चाहे वे समाजवादी पार्टी के हों या भाजपा के, ने पिछले कुछ सालों में बहुत ज़्यादा विकास कार्य नहीं किए हैं.

डबल-लाइन रेलवे, नई ट्रेनें और बेहतर सड़कें जैसे कुछ सकारात्मक बदलावों के बावजूद, बलिया अभी भी मेडिकल कॉलेज जैसी लंबित परियोजनाओं से जूझ रहा है — चुनावी भाषणों में अक्सर दोहराया जाने वाला वादा — और एक विश्वविद्यालय जो बाढ़ के प्रति संवेदनशील बना हुआ है.

देवस्थली विद्यापीठ, बलिया में चंद्रशेखर के भाई कृपाशंकर सिंह द्वारा स्थापित एक स्कूल | फोटो: शिखा सलारिया/दिप्रिंट
देवस्थली विद्यापीठ, बलिया में चंद्रशेखर के भाई कृपाशंकर सिंह द्वारा स्थापित एक स्कूल | फोटो: शिखा सलारिया/दिप्रिंट

कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) परीक्षा की तैयारी कर रहे 23-वर्षीय परमंदापुर निवासी विशाल यादव ने कहा, “बलिया तीन तरफ से घाघरा और गंगा नदियों से घिरा हुआ है. जब इन नदियों में बाढ़ आती है, तो यूनिवर्सिटी भी जलमग्न हो जाती है. 2019 में डीएम और एसपी को विश्वविद्यालय परिसर तक पहुंचने के लिए नाव का इस्तेमाल करना पड़ा था. अधिकांश कोर्स की कक्षाएं अभी भी कैंपस में नहीं चलती हैं और विश्वविद्यालय ज़्यादातर संबद्ध कॉलेजों के माध्यम से शिक्षा की सुविधा प्रदान करता है.”

जैसा कि निर्वाचन क्षेत्र 1 जून को मतदान के लिए तैयार है, भविष्य के लिए उम्मीदें फीकी हैं.

इस चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार चंद्रशेखर के छोटे बेटे नीरज शेखर हैं, जिनका मुकाबला समाजवादी पार्टी के सनातन पांडे से है, लेकिन निवासी संशय में हैं.

एक बात तो यह है कि जूनियर शेखर का बलिया से यह पहला चुनाव नहीं है. उन्होंने 2007 में अपने पिता की मृत्यु के बाद समाजवादी पार्टी के साथ राजनीति में प्रवेश किया और लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव जीता. वे 2009 में फिर से चुने गए, लेकिन 2014 में मोदी लहर के दौरान भाजपा के भरत सिंह से हार गए. 2019 में भाजपा के वीरेंद्र सिंह मस्त ने सीट जीती.

अब, नीरज अपने पिता की विरासत और मोदी के प्रभाव, दोनों पर भरोसा कर रहे हैं, लेकिन पुराने लोग एक विरोधाभास की ओर इशारा करते हैं.

जमाल ने कहा, “जब तक चंद्रशेखर जी ज़िंदा थे, बलिया में कमल नहीं खिल पाया. उन्होंने पूरी ज़िंदगी बीजेपी की राजनीति का विरोध किया. यह विडंबना है कि उनका बेटा बीजेपी से लड़ रहा है, लेकिन आप उनसे अगला चंद्रशेखर बनने की उम्मीद नहीं कर सकते. ऐसी राजनीति अब खत्म हो चुकी है.”

हालांकि, नीरज शेखर ने दिप्रिंट से कहा कि भाजपा के लिए देश पहले आता है, जैसा कि उनके पिता के लिए था.

उन्होंने कहा, “भाजपा ने देश के हित के लिए काम किया है. पार्टी की अधिकांश नीतियां समाजवादी विचारधारा पर आधारित हैं.”


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राजनीति, ‘स्वार्थ’, रुकी हुई परियोजनाएं

जब बलिया के ढहते बुनियादी ढांचे की बात आती है, तो स्थानीय लोग अपने राजनेताओं की विफलताओं को दोष देते हैं, लेकिन कई लोग, खासकर बुजुर्ग, आठ बार के सांसद चंद्रशेखर को स्कूल, अस्पताल और निर्वाचन क्षेत्र के एकमात्र रेल ओवर-ब्रिज के निर्माण का श्रेय देते हैं.

लगभग 100 वर्ष के हो चुके छांगुर सिंह ने याद किया कि कैसे चंद्रशेखर का चुनाव चिन्ह लगभग हर चुनाव में बदल जाता था और फिर भी वे जीतने में कामयाब हो जाते थे.

उन्होंने कहा, “जब उन्हें चुनाव लड़ना होता था, तो वे गमछा बिछाते थे और ग्रामीणों से दान मांगते थे. वे सभी वर्गों के लोगों से मिलते थे और हर कोई उन्हें दान देता था, जो भी थोड़ा बहुत हो सकता था. आज के राजनेताओं में अब उस तरह की राजनीति करने की क्षमता नहीं है. अब, सब कुछ पैसे के बारे में है.”

100-वर्षीय छांगुर सिंह अपने बेटे देवदत्त सिंह और पोते के साथ बलिया में दिवंगत पूर्व पीएम चंद्रशेखर की याद में परिवार द्वारा स्थापित स्कूल के बाहर | फोटो: शिखा सलारिया/दिप्रिंट

कुछ ग्रामीण “आदर्शवादी समाजवादी नेता” चंद्रशेखर को 1977 से 1988 तक अपने राष्ट्रपति काल के दौरान जनता पार्टी को एकजुट रखने वाले गोंद के रूप में याद करते हैं. उनके विवरण लेखक अत्तर चंद की 1991 की जीवनी, द लॉन्ग मार्च में दिए गए विशद वर्णन को प्रतिध्वनित करते हैं, जहां वे लिखते हैं कि चंद्रशेखर को “जनता पार्टी के तीन युद्धरत नेताओं, मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम की नर्स की भूमिका स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा”.

उनके भतीजे नवीन सिंह के अनुसार, उस उथल-पुथल भरे समय में स्थानीय सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए चंद्रशेखर की कोशिश निजी थी.

उन्होंने कहा, “अपने युवा दिनों में एक बार उनकी जांघ पर फोड़ा हो गया था और उन्हें अच्छा इलाज नहीं मिल पाया था. जब उन्हें एहसास हुआ कि उनके क्षेत्र में कोई अच्छी मेडिकल की सुविधा नहीं है, तो वे एक अस्पताल बनवाना चाहते थे.” हालांकि, सलेमपुर लोकसभा क्षेत्र में स्थित इब्राहिमपट्टी में इस परियोजना को शुरू होने में कई साल लग गए, सिंह, जो एक ट्रस्ट के अध्यक्ष भी हैं जो चंद्रशेखर के भाई कृपाशंकर सिंह द्वारा 1988 में स्थापित देवस्थली विद्यापीठ स्कूल का संचालन करता है.

उन्होंने बताया, “अस्पताल 1980 के आसपास बना था, लेकिन दुर्भाग्य से, धन, संसाधनों की कमी और क्षेत्र में सेवा करने के लिए डॉक्टरों की अनिच्छा के कारण वर्षों तक यह बंद पड़ा रहा. जननायक चंद्रशेखर अस्पताल और कैंसर संस्थान को अब पड़ोसी गाज़ीपुर में अन्य अस्पतालों को चलाने वाले एक निजी फाउंडेशन को सौंप दिया गया है. इसने पिछले साल काम करना शुरू कर दिया है.”

चंद्रशेखर की जन्मस्थली इब्राहिमपट्टी गांव में जननायक चंद्रशेखर अस्पताल और कैंसर संस्थान | फोटो: शिखा सलारिया/दिप्रिंट

बलिया निवासी रामावतार सिंह के अनुसार, मूल समस्या यह थी कि वीआईपी निर्वाचन क्षेत्रों में दीये तले अंधेरा की समस्या है — ऐसी स्थिति जहां संसाधन और अवसर प्रगति और विकास में तब्दील नहीं होते हैं, लेकिन वह चंद्रशेखर को दोष नहीं देते.

रामावतार ने कहा, “चंद्रशेखर जी एक राष्ट्रीय नेता थे. पूरे भारत में उनकी प्रशंसा की जाती थी, खासकर बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में. वे खुद कहते थे कि उन्हें पूरे देश के बारे में सोचना है, न कि केवल बलिया के बारे में.”

बलिया के निवासियों का एक और मुद्दा यह है कि विकास परियोजनाओं में अक्सर निहित स्वार्थों और स्थानीय राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण बाधाएं आती हैं.

जमाल के अनुसार, “बलिया शहर में घंटों तक यातायात ठप रहता था, लेकिन जब भी सड़क चौड़ीकरण परियोजनाएं प्रस्तावित होती थीं, तो लोग स्थानीय राजनेताओं से संपर्क करके उन्हें रुकवा देते थे. कोई भी अपनी निजी ज़मीन का हिस्सा देने को तैयार नहीं था. बलिया में सिर्फ एक फ्लाईओवर है जो टीडी कॉलेज को ज़िला अस्पताल से जोड़ता है. यहां हर इंसान एक नेता को जानता है.”

Prime Minister Chandra Shekhar enjoying the view of a lake from the top of rock at his ashram | Photo: Praveen Jain
प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपने आश्रम में चट्टान के ऊपर से झील का नज़ारा लेते हुए | फोटो: प्रवीण जैन

वर्तमान में योगी आदित्यनाथ की कैबिनेट में दो मंत्री इसी क्षेत्र से हैं — परिवहन मंत्री दयाशंकर सिंह और राज्य मंत्री दानिश आज़ाद अंसारी (दानिश आज़ाद अंसारी का गांव सलेमपुर लोकसभा में है). पिछली योगी कैबिनेट में भी दो मंत्री उपेंद्र तिवारी और आनंद स्वरूप शुक्ला बलिया से थे.

पूरे बलिया में स्थानीय नेताओं के प्रति लोगों में निराशा है.

अगरसंडा गांव के ताराचंद प्रसाद गोंड ने आरोप लगाया, “नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि क्षेत्र विकास से वंचित क्यों रहा. उन्होंने केवल अपने घरों को सुंदर बनाया. यहां एकमात्र मेडिकल सुविधा जिला अस्पताल है, जहां प्राथमिक और प्रारंभिक इलाज मिल सकता है, लेकिन सभी बड़ी बीमारियों और दुर्घटनाओं के लिए मरीजों को मऊ और वाराणसी के अस्पतालों में रेफर किया जाता है.”

पियरिया गांव में 23-वर्षीय आदेश कुशवाहा, एक और एसएससी उम्मीदवार, लाइब्रेरी और उच्च शिक्षण संस्थानों की कमी से परेशान हैं. उन्होंने कहा, “मुझे शहर में लाइब्रेरी तक पहुंचने के लिए 20 किलोमीटर से अधिक जाना पड़ता है. यहां कोई विकास नहीं हुआ है.”

समाजवादी विरासत, विकास की कमी

बलिया के बैरिया के सिताब दियारा क्षेत्र में कोरहा नोबरार गांव को जितना राजनीतिक ध्यान मिला है, उतना बलिया के किसी अन्य कोने को नहीं मिला है — समाजवादी आइकन और आपातकाल विरोधी योद्धा जयप्रकाश नारायण का जन्मस्थान, जिन्हें अक्सर जेपी के नाम से जाना जाता है.

घाघरा और गंगा नदियों के संगम पर चार एकड़ में फैला यह गांव बिहार के सारण जिले के लाला का टोला गांव से सीमा साझा करता है — जेपी की विरासत का एक और दावेदार.

यहां, समाजवादी स्मारक-निर्माण के साथ-साथ विकास में कमी की एक दिलचस्प कहानी सामने आई है.

सिताब दियारा का सबसे प्रसिद्ध हिस्सा जय प्रकाश नगर है, जो चंद्रशेखर द्वारा स्थापित और विभिन्न केंद्र सरकारों द्वारा सुशोभित जेपी नारायण को समर्पित संरचनाओं का एक कैंपस है. लाल, सरसों और गुलाबी पेस्टल रंगों में रंगी इन इमारतों में जय प्रकाश स्मारक, प्रभावती लाइब्रेरी, एक पोस्ट ग्रेजुएट बालिका महाविद्यालय, एक खादी केंद्र और एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र शामिल हैं.

जयप्रकाश नगर, बलिया में उनके जन्म स्थान पर जयप्रकाश की एक प्रतिमा | फोटो: शिखा सलारिया/दिप्रिंट

जबकि जयप्रकाश नगर स्मारक का निर्माण 1986 में किया गया था, नारायण के जन्म स्थान को बलिया के बाकी हिस्सों से जोड़ने वाली पहली पक्की सड़क 1982 में बनी थी.

पूर्व प्रधानमंत्री के भतीजे जय प्रकाश सिंह, जो अभी भी इब्राहिमपट्टी में चंद्रशेखर के जन्म स्थान पर रहते हैं, याद करते हैं, “मुझे वो समय अच्छी तरह याद है. हम ऊंट पर सीमेंट, लकड़ी और रेत लादकर घंटों सिताब दियारा जाते थे. चाचा जी (चंद्रशेखर) ने व्यक्तिगत रूप से स्मारक के निर्माण की देखरेख की.”

सिंह के अनुसार, अटल बिहारी वाजपेयी और सुषमा स्वराज से लेकर मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार जैसे राजनीतिक दिग्गज 2001 से 2003 के बीच चंद्रशेखर की अगुआई में आयोजित ‘जेपी जयंती’ समारोह के दौरान श्रद्धांजलि देने आते थे.

लेकिन पिछले कुछ सालों से इस बात पर खींचतान चल रही है कि समाजवाद का ‘पालना’ यूपी में है या बिहार में.

फरवरी 2010 में नीतीश कुमार द्वारा पड़ोसी लाला टोला गांव से बिहार विकास यात्रा की शुरुआत करना और उसके बाद उनकी सरकार द्वारा जेपी संग्रहालय का निर्माण करना बलिया के कई लोगों द्वारा जेपी की जन्मस्थली होने के उनके दावे का अपमान माना गया.

पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के भतीजे जय प्रकाश सिंह इब्राहिमपट्टी गांव में अपने पैतृक घर में बैठे हैं | फोटो: शिखा सलारिया/दिप्रिंट

फिर, 2015 में बिहार राज्य चुनावों से पहले, मोदी सरकार ने लाला का टोला में एक राष्ट्रीय संग्रहालय की भी घोषणा की, जिसकी नारायण के परिवार और यूपी के पूर्व मंत्री अंबिका चौधरी ने आलोचना की, जिन्होंने आरोप लगाया कि लाला का टोला को नारायण का जन्मस्थान बताकर “भ्रम” पैदा किया जा रहा है. फिर भी, अक्टूबर 2022 में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जेपी की जयंती पर लाला का टोला में उनकी प्रतिमा का अनावरण किया.

विशेष रूप से चंद्रशेखर के बेटे नीरज, जो 2019 में भाजपा में शामिल हुए, ने भी इस बात पर जोर दिया है कि नारायण के जन्मस्थान के बारे में गलत धारणाएं हैं और यह बिहार नहीं, बल्कि यूपी के बलिया का सिताब दियारा है.

लेकिन विरासत को लेकर यह प्रतिस्पर्धा सिताब दियारा में नाराज़गी का एकमात्र कारण नहीं है.

2015 में कुछ निवासियों ने सिताब दियारा को बिहार में मिलाने की मांग करते हुए आमरण अनशन शुरू किया था. ग्रामीणों का कहना है कि वे इस क्षेत्र के प्रति उत्तर प्रदेश सरकार की उदासीनता के कारण परेशान थे, जो हर साल बाढ़ और भूमि कटाव से परेशान था, जिससे हर साल हज़ारों ग्रामीण बेघर हो जाते थे.

पिछले साल ही इस मुद्दे को हल करने के लिए क्षेत्र को बाढ़ से बचाने के लिए रिंग तटबंध बनाया गया था. हालांकि, गंगा के किनारे भगवान टोला क्षेत्र के लगभग 100 परिवार तटबंध के बाहर रहते हैं और उन्हें उम्मीद है कि इस साल भी बाढ़ कहर बरपाएगी.

भगवान टोला निवासी 40-वर्षीय बृज कुमार यादव ने कहा, “हमने 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का बहिष्कार किया था क्योंकि हमें हर बार गंगा में बाढ़ आने पर तटबंध क्षेत्र में जाना पड़ता है और स्थानांतरित होना पड़ता है. हमने पिछले वर्षों की तरह एक अस्थायी तटबंध बनाया है, लेकिन इस बार भी यही होगा. हम सभी भूमिहीन हैं और हमारे पास गांव के उच्च जातियों की तरह पक्का घर बनाने के लिए पैसे नहीं हैं.”

यूपी-बिहार सीमा पर बैरिया के भगवान टोला के ग्रामीणों को रिंग तटबंध के बाहर छोड़ दिया गया है, जिससे वे बाढ़ के प्रति संवेदनशील हो गए हैं | फोटो: शिखा सलारिया/दिप्रिंट

फिर भी, आस-पास के गांवों में पक्के मकानों के मालिक भी कहते हैं कि गंगा और घाघरा के संगम के पास जीवन मुश्किल और दर्दनाक है.

भगवान टोला निवासी अंजनी सिंह ने कहा, “जय प्रकाश नगर में सिर्फ एक अस्पताल है. वो अच्छी सेवा देते हैं, लेकिन बच्चे को जन्म देने के लिए मरीजों को छपरा के अस्पतालों में भेजा जाता है, जो बलिया से बहुत नज़दीक है.”

उन्होंने कहा कि एक और मुद्दा इस क्षेत्र में उच्च शिक्षा के संस्थानों की कमी है. उन्होंने कहा, “अभी तक, ज़्यादातर लोग उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ, पटना, छपरा, इलाहाबाद जाते हैं.”

समाजवादी इतिहास के इस केंद्र में विकास की कमी पर जय प्रकाश सिंह ने कहा कि चंद्रशेखर की बीमारी और 2007 में उनकी मृत्यु के कारण यह क्षेत्र उपेक्षित हो गया.

लगभग दो साल पहले ही ग्रामीणों ने राहत की सांस ली थी जब जय प्रकाश नगर को चांददीयर पुलिस चौकी से जोड़ने वाली एकमात्र सड़क ‘बीएसटी बंध वाली सड़क’ की मरम्मत की गई थी.

‘कोई माफिया सिर नहीं उठा सकता था’

बलिया में उनके कई प्रशंसक मानते हैं कि चंद्रशेखर अपने भाषण, आदर्शवाद और क्षेत्र में विकास परियोजनाओं से ज़्यादा राष्ट्रीय अपील के लिए जाने जाते थे. हालांकि, वे संकेत देते हैं कि उनकी शक्तिशाली आवाज़ और प्रभाव ही उनके लिए काफी था.

परमंदापुर निवासी गुंजा सिंह ने कहा, “(चंद्रशेखर) बलिया को अपना घर मानते थे, लेकिन उन्हें लगता था कि अगर किसी का पड़ोसी ठीक है, तो वह भी ठीक है. उनकी राजनीति की शैली अलग थी. उनके जैसा वक्ता कोई नहीं था. जब वे संसद में बोलते थे, तो हर कोई सुनता था. जब तक वे ज़िंदा थे, तब तक भाजपा यहां कभी उभर नहीं पाई.”

स्थानीय लोगों का यह भी दावा है कि चंद्रशेखर की मौजूदगी ने स्थानीय माफिया पर लगाम लगाई, लेकिन अब हालात अलग हैं. वे बंदूक की दुकान के मालिक नंदलाल गुप्ता की आत्महत्या को इसका एक उदाहरण बताते हैं. गुप्ता ने पिछले साल जनवरी में आत्महत्या करने से पहले फेसबुक लाइव पर स्थानीय साहूकारों पर उत्पीड़न का आरोप लगाया था.

उनकी पत्नी ने साहूकारों सहित 18 लोगों पर आरोप लगाया है कि उन्होंने उनके पति को प्रताड़ित किया और सभी बकाया चुकाने के बावजूद जबरन उनके आवासीय प्लॉट को उनके नाम पर पंजीकृत करवा लिया. बलिया पुलिस ने बाद में इस मामले में एक दर्जन लोगों को गिरफ्तार किया.

बलिया के एक अन्य निवासी आत्माराम ने कहा, “जब तक चंद्रशेखर ज़िंदा थे, तब तक कोई माफिया अपना सिर नहीं उठा सकता था, लेकिन अब, उच्च जातियों के कई माफियाओं ने यहां अपना प्रभाव जमा लिया है.”

उन्होंने गैंगस्टर कौशल चौबे का उदाहरण दिया, जिसे 15 साल तक फरार रहने के बाद 2019 में उत्तराखंड पुलिस ने गिरफ्तार किया था. आत्माराम के मुताबिक, चौबे का इलाके में अभी भी दबदबा है.

गांव वाले चंद्रशेखर के पोते, भाजपा एमएलसी रविशंकर सिंह ‘पप्पू’ के बारे में भी बात करते हैं, जिनके खिलाफ मई 1996 में बलिया निवासी संजय सिंह की हत्या के सिलसिले में हत्या का मामला दर्ज किया गया था. नवंबर 2022 में स्थानीय अदालत ने सबूतों के अभाव में पप्पू को आरोपों से बरी कर दिया.

हालांकि, जमाल ने कहा कि चंद्रशेखर के बेटों की छवि साफ-सुथरी है.

विरासत बनाम जाति

पूर्व प्रधानमंत्री के प्रति बलिया में जारी स्नेह को भुनाने के लिए भाजपा ने इस चुनाव में मौजूदा सांसद वीरेंद्र सिंह मस्त को हटाकर नीरज शेखर को टिकट दिया है. समाजवादी पार्टी ने ग्रामीणों द्वारा ‘बाबा’ कहे जाने वाले सनातन पांडे को मैदान में उतारा है, जो 2019 में लगभग 15,000 वोटों के मामूली अंतर से हार गए थे.

लेकिन इस चुनावी मौसम में निवासी थके हुए और असंतुष्ट हैं, क्योंकि भाजपा ने एक दशक से बलिया सीट पर कब्ज़ा किया हुआ है, इसलिए सत्ता विरोधी भावनाएं बहुत अधिक हैं.

चुनाव दर चुनाव, राजनेता चुनावी वादे के तौर पर बलिया मेडिकल कॉलेज का ज़िक्र करते हैं, लेकिन अभी तक इस सुविधा का विकास नहीं हुआ है. अखिलेश यादव सरकार के दौरान चंद्रशेखर के नाम पर एक यूनिवर्सिटी बनाई गई थी, लेकिन इसे अपग्रेड करने की ज़रूरत है.

हालांकि, नीरज शेखर ने दिप्रिंट से कहा कि इन मुद्दों पर ध्यान दिया जाएगा.

उन्होंने कहा, “ज़मीन की उपलब्धता की कमी के कारण मेडिकल कॉलेज की लंबित परियोजना में देरी हुई. चुनाव के बाद इसकी नींव रखी जाएगी.”

बलिया में भाषण देते हुए नीरज शेखर | फोटो: फेसबुक/@Neeraj Shekhar

बलिया के पियारिया गांव में निवासी मानते हैं कि नीरज को अपने पिता की विरासत का लाभ मिला है, लेकिन इस बार शायद यह पर्याप्त न हो, क्योंकि युवा “अग्निपथ योजना की विफलता”, बेरोज़गारी, मुद्रास्फीति, अपग्रेडेड मेडिकल सुविधा की कमी और भाजपा की “जुमलेबाजी” से खास तौर पर नाराज़ हैं.

26-वर्षीय कुलदीप कुशवाह ने कहा, “मैं दो साल से सेना में भर्ती होने की तैयारी कर रहा था, लेकिन जब अग्निपथ योजना लाई गई तो मैंने यह विचार छोड़ दिया. अब मैं एसएससी परीक्षा की तैयारी कर रहा हूं. भाजपा ने एक करोड़ नौकरियों का वादा किया था, लेकिन वह कहां हैं?”

20-वर्षीय हरिओम वर्मा ने कहा कि युवाओं की सबसे बड़ी चिंता बेरोज़गारी है.

उन्होंने कहा, “अर्धसैनिक बलों में 26,000 खाली पदों के लिए लगभग 20 लाख लोगों ने आवेदन किया…इसका मतलब है कि बाकी युवा घर पर ही रहेंगे.”

कुछ निवासियों का यह भी दावा है कि नीरज की विरासत तो मजबूत है, लेकिन क्षेत्र में उनकी मौजूदगी कम है. 35-वर्षीय श्याम नारायण यादव ने कहा, “वे आते हैं, अपने समर्थकों से मिलते हैं और चले जाते हैं. इस बार सपा बेहतर स्थिति में है.”

उम्मीद है कि मुस्लिम और यादव भी उनके साथ खड़े होंगे, इसलिए सपा ने बलिया से ब्राह्मण उम्मीदवार को मैदान में उतारा है.

स्थानीय भाजपा इकाई के अनुसार, बलिया लोकसभा क्षेत्र में ब्राह्मण और अनुसूचित जाति के मतदाता लगभग 15-15 प्रतिशत हैं, इसके बाद 13 प्रतिशत राजपूत, 12 प्रतिशत यादव, 8 प्रतिशत भूमिहार और 8 प्रतिशत मुस्लिम हैं.

बिहार के सिवान में पियरिया गांव के निवासी और होम्योपैथिक कॉलेज के प्रिंसिपल अनिल पांडे ने दावा किया कि सपा उम्मीदवार को ब्राह्मण समुदाय की “सहानुभूति” मिल रही है.

उन्होंने कहा, “पिछले चुनाव में उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उन पर हमला किया था और आम धारणा यह है कि उन्हें गलत तरीके से हराया गया है. 60 प्रतिशत ब्राह्मण उन्हें वोट देंगे. समुदाय बंटा हुआ है.”

लेकिन पारिवारिक विरासत और यह तथ्य कि बसपा ने यादव उम्मीदवार को मैदान में उतारा है, नीरज शेखर की मदद कर सकता है, साथ ही यह तथ्य भी है कि सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के प्रमुख ओपी राजभर अब भाजपा के साथ हैं.

पांडे ने अनुमान लगाया, “पिछली बार, एसबीएसपी ने इस लोकसभा क्षेत्र में एक उम्मीदवार खड़ा किया था, जिससे 65,000 से ज़्यादा वोट मिले थे, लेकिन इस बार, राजभर बीजेपी के साथ हैं, जिससे पार्टी को मदद मिल सकती है. सबसे बड़ी बात यह है कि बीएसपी ने यहां एक उम्मीदवार खड़ा किया है, जिससे यादव वोटों में से कुछ वोट पार्टी के खाते में जा सकते हैं. पिछली बार, सपा-बसपा गठबंधन में थे. इस बार, वो लाभ गायब है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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