scorecardresearch
Monday, 4 November, 2024
होमराजनीतिआरएसएस मोदी के साथ वही कर रहा है, जो कांग्रेस ने मनमोहन सिंह के साथ किया

आरएसएस मोदी के साथ वही कर रहा है, जो कांग्रेस ने मनमोहन सिंह के साथ किया

यूपीए शासन में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ही तरह आरएसएस भी शक्ति अपने पास रखना चाहता है, लेकिन किसी भी गड़बड़ी या उलटफेर की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहता.

Text Size:

वर्तमान एनडीए सरकार भी वैकल्पिक सत्ता केंद्र से प्रभावित है.

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल पर केंद्रित विजय रत्नाकर गुट्टे निर्देशित फिल्म ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ को लेकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मज़े ले रही है. एक ट्वीट में सत्तारूढ़ पार्टी ने फिल्म को ‘देश के एक परिवार के हाथों 10 वर्षों तक बंधक रहने की दिलचस्प कहानी’ बताया है.

अधिकतर लोग यूपीए शासन में सत्ता के दोहरे केंद्र, जिसने इसे विभाजित और ढुलमुल बना छोड़ा था, की हकीकत पर भाजपा से बहस नहीं करेंगे.

नरेंद्र मोदी अपने पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह की तरह कोई एक्सिडेंटल प्रधानमंत्री नहीं हैं. पर मौजूदा एनडीए सरकार एक वैकल्पिक सत्ता केंद्र – भाजपा का वैचारिक मूलस्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएएस) – से कोई कम प्रभावित नहीं है.

पर मौजूदा सरकार पर आरएसएस की छाप को स्वाभाविक माना जाता है और लोग इसका ज़्यादा बुरा नहीं मानते क्योंकि प्रधानमंत्री और उनके कई मंत्रिमंडलीय सहयोगी स्वघोषित तौर पर पूर्व में संघ के प्रचारक और स्वयंसेवक रहे हैं. इसलिए आम प्रतिक्रिया होती है: “ये तो है, कुछ नया बताइए.”


यह भी पढ़ेंः चौकीदार’ नरेन्द्र मोदी कि लिए एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर क्यों मायने रखती है


लेकिन इससे इस सच्चाई को दबाया नहीं जा सकता कि बिना-जवाबदेही-की-ताक़त वाली बात – जो पहले नेहरू-गांधी परिवार के बारे में कही जाती थी – आज आरएसएस पर हूबहू लागू होती है. मौजूदा सरकार में आरएसएस के प्रभाव पर एक दृष्टि डालें. बिल्कुल साफ चीज़ों की चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है, इसलिए राजनीतिक कार्यपालिका में शीर्ष निर्णायकों की भूमिका में पूर्व संघ कार्यकर्ताओं के होने के तथ्य को किनारे रखते हैं.

इस तथ्य को भी अलग रखते हैं कि मोदी सरकार में प्रभावशाली पदों पर लोग आरएसएस से जुड़े थिंकटैंक विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन से आए हैं— राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्र, प्रसार भारती के अध्यक्ष ए. सूर्यप्रकाश आदि.

सरकार में आरएसएस ने बहुत चालाकी से और काफी गहराई तक पैठ कर रखी है. केंद्रीय मंत्रियों के निजी सचिवों, सहायक निजी सचिवों और अन्य निजी स्टाफ पर एक नज़र डालें. उनमें से अधिकांश या तो संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से जुड़े रहे हैं, या संघ से संबद्ध हरियाणा स्थित संस्था सूर्या फाउंडेशन से प्रशिक्षित हैं, या फिर आरएसएस नेता विनय सहस्रबुद्धे की संस्था रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी (आरएमपी) से उनका जुड़ाव रहा है.

मंत्रियों के कार्यालयों में तैनात ये गेटकीपर सत्ता के गलियारों में आरएसएस के आंख-कान के समान हैं.

गेटकीपरों की यह व्यवस्था उन राज्यों के मुख्यमंत्री कार्यालयों में भी लागू है जहां कि भाजपा सत्ता में है. हिमाचल प्रदेश के भाजपा नेताओं के अनुसार राज्य के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को दिल्ली से आरएसएस की एक सूची भेजी गई जिसमें सीएमओ में नियुक्ति के लिए राजनीतिक सचिव, मीडिया सलाहकार और दो ओएसडी अधिकारियों के नाम थे. उनके पास आरएसएस के निर्देशों को नहीं मानने का विकल्प नहीं था. आरएसएस नेता और भाजपा महासचिव राम माधव के एक निकट सहयोगी रजत सेठी को झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास का राजनीतिक सलाहकार बनाया गया था.

सेठी ने अपनी शुरुआती पढ़ाई आरएसएस संचालित शिशु मंदिर से की और फिर आईआईटी खड़गपुर और हार्वर्ड में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह असम में माधव की टीम से जुड़े. मुख्यमंत्री दास को को सेठी को नियुक्त करने की संघ की सलाह माननी पड़ी, पर सेठी उनके कहे में नहीं थे. अक्सर दास को अखबारों से पता चलता कि कैसे सेठी झारखंड में बदलाव की अगुआई कर रहे थे.

सेठी को जल्दी ही मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के सलाहकार के रूप में इंफाल में तैनात कर दिया गया. भाजपा के एक अन्य मुख्यमंत्री ने इस लेखक को बताया था कि आरएसएस नेताओं की दखल इतनी ज़्यादा थी कि वह बोर्डों, निगमों और प्राधिकरणों में नियुक्तियां नहीं कर पा रहे थे.

हिंदुत्व आइकॉन योगी आदित्यनाथ के शासन वाले उत्तर प्रदेश में मंत्री, विधायक और जिसका भी कोई प्रभाव है, सब के सब भाजपा महासचिव (संगठन) सुनील बंसल से मिलने के लिए आपाधापी किए रहते हैं. आरएसएस पृष्ठभूमि वाले बंसल अमित शाह के खास हैं.

ये तो बस कुछ उदाहरण हुए जिनसे कि केंद्र और भाजपा शासित राज्यों में आरएसएस की पकड़ का अंदाज़ा लग जाता है. उल्लेखनीय है कि यूपीए शासन के दौरान सरकार की नीतियों में दखल देने के लिए सोनिया गांधी की आलोचना की जाती थी.

वर्तमान एनडीए शासन के दौरान, कभी-कभार ही आरएसएस और इसकी संबद्ध संस्थाओं पर अंगुली उठाई जाती हो, पर सबको मालूम है कि मोदी सरकार को कई चीज़ों को ठंडे बस्ते में डालने के लिए किसने विवश किया— ये श्रमिक कानूनों में बदलाव का मामला हो या एयरइंडिया में विनिवेश का, मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई की बात तो या राष्ट्रीय शिक्षा नीति की.

यूपीए शासन में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ही तरह आरएसएस भी शक्ति अपने पास रखना चाहता है, लेकिन किसी भी गड़बड़ी या उलटफेर की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहता. संघ को भलीभांति समझने वाले अमेरिकी विद्वान वाल्टर एंडरसन अगस्त में भारत में थे, और यहां संघ के कई नेताओं से मिले थे.

एक इंटरव्यू में एंडरसन ने बताया कि आरएसएस मानता है कि रोजगार सृजन को लेकर सरकार ने पर्याप्त काम नहीं किया है और इसके विपरीत यह तरह-तरह के ‘वादों’ से जुड़ गई है जोकि मौजूदा भारतीय परिस्थियों के अनुरूप नहीं हैं.


यह भी पढ़ेः संघ 2029 भूला, यहां तक कि 2019 को लेकर आश्वस्त नहीं


संघ पिछले साल भाजपा का प्रभाव कम होने की ज़िम्मेवारी नहीं लेगा – राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में पराजय की भी नहीं जहां कि संघ की संस्थाएं पांच दशकों से सक्रिय हैं. और, यदि 2019 में भाजपा की हार हुई तो उस स्थिति में आरएसएस मोदी की पहचान रहे मुद्दे ‘विकास’ की जगह ‘मंदिर’ को भाजपा का तुरुप का पत्ता बनाने की जवाबदेही भी नहीं लेगा.

कांग्रेस ने भी 2013-14 में बिल्कुल ऐसा ही किया था जब पराजय उसे साफ नज़र आने लगी. ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर फूटा और नेहरू-गांधी परिवार के वफादारों ने पार्टी की नाकामियों के लिए शासन के उनके मॉडल को ज़िम्मेवार ठहराया.

वास्तव में दोहरे सत्ता केंद्र की व्यवस्था ऐसे ही काम करती है.

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

share & View comments