नई दिल्ली: कई दिनों की अटकलों के बाद जन सुराज पार्टी (जेएसपी) के संस्थापक प्रशांत किशोर ने ऐलान किया है कि वे बिहार विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. इस तरह उनके चुनाव लड़ने को लेकर चल रही चर्चाओं पर विराम लग गया है. पटना में मीडिया से बात करते हुए पीके ने कहा कि पार्टी के सदस्यों ने तय किया कि उन्हें बाकी उम्मीदवारों की जीत के लिए काम पर ध्यान देना चाहिए.
मंगलवार को जन सुराज पार्टी ने राघोपुर विधानसभा सीट से चंचल सिंह को उम्मीदवार घोषित किया. यह आरजेडी का गढ़ है और इसी सीट से प्रशांत किशोर के चुनाव लड़ने की संभावना जताई जा रही थी. 11 अक्टूबर को पीके ने राघोपुर में रोड शो भी किया था. यह सीट फिलहाल आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के पास है.
जेपीएस युवा इकाई के उपाध्यक्ष चंचल सिंह होटल और रियल एस्टेट के कारोबार में हैं. वे पहले जेडीयू के बिज़नेस सेल के राज्य महासचिव रह चुके हैं.
जनसुराज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उदय सिंह ने बताया कि इस फैसले से पहले राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने सभी पहलुओं पर विचार-विमर्श किया.
उन्होंने कहा, “प्रशांत किशोर ने संकेत दिया था कि वे चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन मैं इसके पक्ष में नहीं था और इसके कई कारण हैं.”
उदय सिंह ने बताया कि पारंपरिक पार्टियों के विपरीत, जन सुराज पार्टी में प्रशांत किशोर ही एकमात्र स्टार प्रचारक हैं. इसलिए हर उम्मीदवार चाहता है कि वे उसके लिए प्रचार करें.
चुनाव सलाहकार से नेता बने पीके अपनी पार्टी को “तीसरा विकल्प” के रूप में पेश कर रहे हैं. उन्होंने लोगों से जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर “साफ-सुथरी” सरकार चुनने की अपील की है.
बिहार विधानसभा चुनाव दो चरणों में होंगे — पहला चरण 6 नवंबर को और दूसरा 11 नवंबर को होगा. इस बार मुकाबला त्रिकोणीय माना जा रहा है — एक ओर एनडीए, दूसरी ओर इंडिया गठबंधन और तीसरी ओर प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी सत्ता में आने की कोशिश में हैं.
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नवंबर में पीके का बड़ा इम्तेहान
जन सुराज पार्टी के लिए यह पहली बड़ी चुनावी परीक्षा होगी. प्रशांत किशोर अपनी पार्टी के लिए आक्रामक तरीके से प्रचार कर रहे हैं और सत्ताधारी बीजेपी–जेडीयू गठबंधन के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं.
उदय सिंह ने कहा कि बिहार की तुलना दिल्ली से नहीं की जा सकती, जहां आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को सीधी टक्कर देने का फैसला किया था.
उन्होंने कहा, “बिहार का भूगोल और उसका आकार बिल्कुल अलग है. पीके की मौजूदगी पर जो जबरदस्त प्रतिक्रिया मिलती है, उसका फायदा हर उम्मीदवार उठाना चाहता है.”
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने बताया, बिहार चुनाव से पहले जनसुराज को प्रचार के लिए बहुत कम वक्त मिला है क्योंकि अक्टूबर में दिवाली और छठ जैसे बड़े त्योहार हैं.
पार्टी के एक अन्य नेता ने दिप्रिंट को बताया कि जनसुराज का मानना था कि अगर किशोर चुनाव लड़ते, तो उन्हें अपनी सीट पर ज़्यादा समय देना पड़ता.
उन्होंने कहा, “हम अपने क्षेत्र के लोगों के साथ नाइंसाफी नहीं कर सकते. अगर पार्टी ने तय किया होता कि वे चुनाव लड़ें, तो हम चाहते कि वे उस क्षेत्र में समय दें, वरना यह मतदाताओं के साथ ठीक नहीं होता.”
जन सुराज ‘या तो अर्श पर या फर्श पर’
दिप्रिंट से बात करते हुए सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के फेलो राहुल वर्मा ने कहा कि इस समय यह तय कर पाना मुश्किल है कि बिहार विधानसभा चुनाव में जन सुराज पार्टी का वास्तविक असर क्या होगा.
उन्होंने कहा, “असल सवाल यह है कि जन सुराज पार्टी किस तरह का असर डाल सकती है. कुछ अनुमान है कि पार्टी को 5 से 7 प्रतिशत वोट मिल सकते हैं, लेकिन यह इतना नहीं होगा कि कोई बड़ा राजनीतिक उलटफेर हो सके. फिर भी, कुछ लोगों का मानना है कि यह तय करने में पार्टी की भूमिका अहम हो सकती है कि किस गठबंधन को बढ़त मिले.”
दिप्रिंट को दिए एक पहले इंटरव्यू में प्रशांत किशोर ने कहा था कि उनकी पार्टी या तो “अर्श” पर होगी या “फर्श” पर — यानी या तो सरकार बनाएगी या फिर बिल्कुल सत्ता से बाहर रहेगी.
वर्मा ने कहा कि जेएसपी का असली असर अभी तय नहीं है. अगर पीके किसी प्रमुख सीट से चुनाव लड़ते, तो उनकी उम्मीदवारी प्रचार के दौरान बड़ा मुद्दा बन सकती थी, लेकिन इससे विपक्षी दल जनसुराज को एनडीए की “बी टीम” कहने लगते. उन्होंने कहा, “इन जोखिमों को देखते हुए यह समझ में आता है कि उन्होंने ऐसा माहौल बनने से बचना चाहा.”
वर्मा ने यह भी कहा कि पीके अपनी पार्टी का सबसे पहचानने योग्य चेहरा हैं. इसलिए रणनीतिक रूप से उनके लिए अपनी सीट पर फोकस करने के बजाय बाकी इलाकों में जाकर पार्टी की मौजूदगी मजबूत करना ज्यादा समझदारी भरा कदम है.
उन्होंने कहा, “अगर वे खुद चुनाव लड़ते, तो उन्हें अपना ध्यान स्थानीय स्तर पर केंद्रित करना पड़ता. इन सभी बातों को देखते हुए, उनका फैसला समझदारी भरा लगता है.”
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक बद्री नारायण का मानना है कि किशोर को चुनाव लड़ना चाहिए था ताकि वे एक बड़ा संदेश दे सकें— न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं को, बल्कि मतदाताओं को भी.
उन्होंने कहा, “लोकतंत्र में चुनाव लड़ना बहुत अहम बात है. वे चुनाव में उतरकर बड़ा संदेश दे सकते थे.”
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