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Sunday, 22 December, 2024
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कश्मीर में प्रधानमंत्री मोदी के पहले सच्चे दूत मनोज सिन्हा के लिए यह रास्ता कठिन क्यों है

जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल के तौर पर मनोज सिन्हा की नियुक्ति एक सशक्त नीतिगत संदेश है. उनके पास आरएसएस की एक मजबूत पृष्ठभूमि है और पीएम मोदी के साथ निकटता भी रखते हैं.

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नई दिल्ली : 2017 में सर्दियों की एक दोपहर एक केंद्रीय मंत्री अपने संचार भवन स्थित कक्ष में बैठे फोन पर बात कर रहे थे और काफी गुस्से में थे. ‘जीएम साहब, बहुत शिकायत सुन रहे हैं आपकी.’

इस पूरी बातचीत में उनके कक्ष में बैठा एक आगंतुक यह अंदाजा लगा सकता था कि यह कोई एमटीएनएल महाप्रबंधक थे, जिन्होंने स्पष्ट रूप से पोस्टिंग में अनियमितता की थी. मंत्री ने आगंतुक के पास लौटकर नई दूरसंचार नीति की जरूरत समझाने से पहले गुस्से में कहा, ‘सुधर जाइये नहीं तो सस्पेंड हो जाएंगे, मेरी आप पर नजर है’ और फिर फोन काट दिया.

यह थे तत्कालीन दूरसंचार मंत्री मनोज सिन्हा, जिन्होंने शुक्रवार को जम्मू-कश्मीर के नए उपराज्यपाल के रूप में पदभार संभाला. उनकी ईमानदारी और कड़ी मेहनत ने उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक पहुंचाया। लेकिन यह श्रीनगर के राजभवन में उनकी नई जिम्मेदारी का एकमात्र कारण नहीं है.


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श्रीनगर के राजभवन में राजनेता

मनोज सिन्हा सही मायने में कश्मीर में प्रधानमंत्री मोदी के पहले दूत हैं. करण सिंह जम्मू और कश्मीर के पहले गवर्नर (1965-67) थे, और सिन्हा की नियुक्ति तक नौ राज्यपाल और उपराज्यपालों ने यह जिम्मेदारी संभाली, इन 10 में से केवल एक सत्य पाल मलिक ही राजनेता थे, जिसका कार्यकाल 14 महीने का रहा.

पूर्व महाराजा हरि सिंह के पुत्र करण सिंह पहले रीजेंट और सदर-ए-रियासत (राज्य प्रमुख) थे, जो पद 1965 में बदलकर ‘गवर्नर’ हो गया. इसलिए, जाहिर तौर पर उन्होंने जब यह पद संभाला था तब वह एक राजनेता नहीं थे.

इसका मतलब है कि करण सिंह के यह पद छोड़ने के बाद के 53 वर्षों में सिर्फ एक राजनेता मात्र 14 महीनों के लिए इस पद पर रहा है.

सिविल सेवक से राजनेता बने जगमोहन और पूर्व रॉ प्रमुख जी.सी. सक्सेना जैसे नौकरशाहों ने चार दशकों तक यह दफ्तर संभाला, जबकि पूर्व सेना प्रमुख के.वी. कृष्णा राव और लेफ्टिनेंट जनरल एस.के. सिन्हा जैसे शीर्ष पूर्व सैन्य अफसरों ने लगभग एक दशक तक यह जिम्मेदारी निभाई.

इसलिए, सत्य पाल मलिक जम्मू और कश्मीर के पहले राजनीतिक गवर्नर थे, जो केवल 14 महीनों के लिए ही थे. फिर भी उन्हें घाटी में केंद्र के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर नहीं माना जा सकता है. राजनीति के यह दिग्गज 2004 में भाजपा में शामिल होने से पहले कांग्रेस, जनता दल और समाजवादी पार्टी में रह चुके थे. जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल के तौर पर उनकी नियुक्ति केवल राजनीतिक समायोजन भर थी.

मनोज सिन्हा की नियुक्ति एक मजबूत नीतिगत संदेश है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) वाली उनकी पृष्ठभूमि और प्रधानमंत्री के साथ निकटता ने उन्हें इस संकटग्रस्त घाटी में केंद्र का पहला राजनीतिक दूत बना दिया है.

राज्य के दर्जे और चुनाव पर पीएम का वादा

उनकी नियुक्ति के माध्यम से केंद्र ने जो सबसे बड़ा संदेश दिया है वह यह है कि वह कश्मीर को अब केवल सुरक्षा के नजरिये से नहीं देख रहा. जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म होने के पहले एक साल में अपेक्षाकृत शांति बनाए रखना ही उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता थी.

अब जबकि केंद्र शासित प्रदेश ने अपना दूसरा वर्ष इस स्थिति के बिना शुरू किया है, एक राजनेता को नया प्रशासक बनाकर भेजना सिर्फ सांकेतिक होने की तुलना में काफी आगे की बात है. यह कश्मीर को लेकर मोदी सरकार की रणनीति के महत्वपूर्ण दूसरे चरण की शुरुआत का संकेत है-पीएम के वादे को पूरा करना, ‘फिर एक बार, कश्मीर को स्वर्ग बनाना है.’

एक कुशल प्रशासक सिन्हा से उम्मीद है कि वह जम्मू-कश्मीर का खास दर्जा खत्म किए जाने के दो दिन बाद राष्ट्र के नाम संबोधन में मोदी की कही बातों को पूरा करेंगे—कागजों पर तैयार योजनाएं जमीनी हकीकत में तब्दील होंगी.

सिन्हा की सबसे बड़ी चुनौती होगी प्रधानमंत्री की तरफ से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में किए गए दो अन्य वादों को पूरा करने के लिए उपयुक्त माहौल तैयार करना : राज्य का दर्जा बहाल करना और लोगों को एक निर्वाचित मुख्यमंत्री, मंत्री और विधायक देना.

जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनाव अभी कम से कम एक साल दूर हैं. परिसीमन आयोग, जिसे केंद्रशासित प्रदेश में 90 विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को निर्धारित और पुनर्निर्धारित करना है, द्वारा मार्च 2021 तक अपनी रिपोर्ट पेश किए जाने की संभावना है. जम्मू और कश्मीर के दोनों क्षेत्रों की नजर इस कवायद से होने वाले फायदों पर है, ऐसे में इस पर बेहद तीखी राजनीतिक बहस शुरू होने के आसार हैं. आयोग की रिपोर्ट आने के बाद सब कुछ शांत होने में थोड़ा समय लगेगा. उसके बाद ही चुनाव होने की संभावना है.

राज्य का दर्जा बहाल करने के बाबत सत्तारूढ़ भाजपा के सूत्रों का कहना है कि केंद्र कोई समयसीमा तय करने के पहले जमीन हालात का आकलन कर रहा है, लेकिन यह चुनावों से पहले हो जाने की उम्मीद है.

जम्मू-कश्मीर के एक भाजपा नेता ने कहा, ‘आप ऐसी स्थिति नहीं उत्पन्न कर सकते जहां राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाए और फिर जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग उठने लगे. राज्य का दर्जा तभी दिया जाएगा जब यह स्पष्ट हो कि लोगों ने विशेष दर्जा खत्म करने को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है.’

नए उपराज्यपाल की सबसे बड़ी चुनौती

प्रधानमंत्री के वादों को पूरा करने के लिए नए उपराज्यपाल को मुख्यधारा के राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के लिए फिर जगह बनाने के लिए जमीनी स्तर पर काम करना होगा. ज्यों का त्यों, जबकि साल भर से जारी नजरबंदी ने इन नेताओं के प्रति थोड़ी सहानुभूति जगा दी है.

नेशनल कांफ्रेंस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में बताया था कि 5 अगस्त 2019 के फैसले ने जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा के राजनेताओं का जीवन मुश्किल बना दिया.

उन्होंने कहा था, ‘इसने न केवल मुख्यधारा की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी बल्कि हमें उपहास का पात्र भी बना दिया. ऐसी आवाजों की कोई कमी नहीं थी, जिन्होंने कहा ‘अच्छा हुआ, उन्हें हिरासत में ही रखो’. वे डॉ. फारूक अब्दुल्ला पर उंगली उठाते हैं और कहते हैं कि यह आपको भारत माता की जय कहने के लिए मिला है.’

लोगों का विश्वास फिर हासिल करने के लिए मुख्यधारा के दल कट्टर रुख अपनाने के इच्छुक नजर आ रहे हैं. इसका पहला संकेत पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के इस साल 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 पर एक सर्वदलीय बैठक के आह्वान से नजर आया, जो सुरक्षा कारणों से नहीं हो पाई थी.

हालांकि उमर अब्दुल्ला की नजर में मोदी सरकार से 5 अगस्त 2019 से पहले की स्थिति की मांग करना निरर्थक है लेकिन उनके पार्टी सहयोगियों को ऐसा मुमकिन लगता है और वह इसके लिए अपनी आवाज मुखर करने के इच्छुक दिखते हैं.

घाटी में राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती, जिनका कट्टर रुख जगजाहिर है, को जब भी हिरासत से रिहा किया जाएगा तब उनके द्वारा इसे अपना मुख्य मुद्दा बनाने की संभावना है. और उन्हें हमेशा के लिए तो हिरासत में नहीं रखा जा सकता है.


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उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के समक्ष एक दुरूह कार्य है. उन्हें मुख्यधारा की राजनीति के लिए जगह बनानी होगी और वो भी तब पार्टियों और उनके नेताओं की साख लगभग पूरी तरह खो गई है. और घाटी में कोई वैकल्पिक नेतृत्व भी नहीं उभरा है जिसकी पिछले साल दिल्ली में बैठे भाजपा नेताओं ने उम्मीद की थी. सिन्हा को निश्चित रूप से इसका अहसास होगा कि डल झील का पानी बहुत चंचल मिजाज है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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