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Wednesday, 20 November, 2024
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कौन हैं पासवान लोग? बिहार चुनावों की चहल-पहल के केंद्र में एक ‘उन्नतिशील, ताक़तवर’ दलित समुदाय

राम विलास पासवान, जिन्होंने पांच दशकों तक इस समुदाय का प्रतिनिधित्व किया. इसी महीने उनकी मौत हो गई और इस बारे में ख़ूब क़यास लगाए जा रहे हैं कि उनकी जगह अब ये समुदाय किसे चुनेगा.

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नई दिल्ली: बिहारी के सियासी नक़्शे पर, जहां जातीय पहचान अकसर दूसरे अधिकांश घटकों पर भारी पड़ जाती है, 2020 के विधान सभा चुनावों से पहले, एक विशेष समुदाय की स्थिति को लेकर, अटकलों का बाज़ार ख़ूब गर्म है, और वो है- पासवान समुदाय.

जिस नेता ने पांच दशकों से अधिक समय तक इनका प्रतिनिधित्व किया- लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान- इसी महीने उनकी मौत हो गई, और इस बारे में ख़ूब क़यास लगाए जा रहे हैं कि उनकी जगह अब ये समुदाय किसे चुनेगा.

क्या उनके बेटे, सांसद और एलजेपी चीफ़ चिराग पासवान को, जिन्होंने चुनावों से बस कुछ हफ्ते पहले, एनडीए से बाहर आकर सभी राजनीतिक समीकरण बदल दिए, अपने पिता का निष्ठावान वोट बैंक विरासत में मिलेगा?

और क्या पासवान समुदाय, जिसे उसके सदस्य उन्नतिशील, और राज्य के दूसरे दलित समुदायों से ज़्यादा ताक़तवर व भाग्यशाली मानते हैं, उसी सियासी अहमियत का फायदा उठाता रहेगा, जो वो राम विलास पासवान के समय में उठाता था, जिन्होंने उसे न केवल बिहार, बल्कि दिल्ली के सियासी नक़्शे पर मज़बूती से बनाए रखा?

इन सवालों के जवाब तो बिहार के चुनावी नतीजों में मिलेंगे, लेकिन इस बीच दिप्रिंट समझा रहा है, कि राज्य में सत्ता के इच्छुक नेताओं के लिए ये समुदाय क्यों अहम है.

चौकीदार, मुख़बिर

पासवान दुसाध समुदाय के सदस्यों का उपनाम है, जो बिहार की कुल आबादी का लगभग 5 प्रतिशत हैं, जिनके क़रीब 45.6 लाख सदस्य हैं.

अनुसूचित जातियां (एससी) सूबे की आबादी का 16 प्रतिशत हैं. दुसाध दलित आबादी के 30 प्रतिशत से अधिक हैं, जो राज्य में एक बड़ी संख्या हैं- दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के फेलो, राहुल वर्मा के मुताबिक़ ये पहला फैक्टर है जो किसी भी जातीय समूह को प्रभावशाली बनाता है.

वर्मा के मुताबिक़ दूसरे दो फेक्टर्स हैं, आर्थिक संसाधन और राजनीतिक ताक़त. ऐसा माना जाता है कि वेदिक पुराणों में स्थापित जातीय अनुक्रम में, सबसे निचले पायदान पर होने के बाद भी, पासवान समुदाय की दोनों तक पहुंच रही है.

वरिष्ठ बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने कहा,‘पासवान एक मार्शल और योद्धा जाति है. एक विचार ये भी है कि ये राजस्थान के गहलोत (राजपूत) थे, और मुग़लों से लड़ते हुए राजस्थान से निकल गए थे, और उनसे हारने और धर्मांतरण से इनकार करने के बाद, देश के पूर्वी हिस्सों की तरफ चले गए’. उन्होंने आगे कहा, ‘विस्थापित होने के बाद उन्होंने अपनी जाति और सामाजिक रुतबा गंवा दिया’.

ऐसा माना जाता है कि अपनी लड़ाकू जड़ों की वजह से ही, समुदाय के सदस्य शारीरिक रूप से बलिष्ठ होते हैं. दुसाध का शाब्दिक अर्थ होता है ऐसा व्यक्ति जिसे क़ाबू नहीं किया जा सकता, या जो ‘अजेय’ होता है.

पासवान के अनुसार, जब अंग्रेज़ भारत आए, और उनका सामना बंगाल के आख़िरी स्वतंत्र नवाब सिराजुद्दौला से हुआ, तो नवाब को हराने के लिए, उन्हें दुसाध समुदाय का इस्तेमाल करने की सलाह दी गई, जिसके लोगों को शारीरिक रूप से मज़बूत, लेकिन सामाजिक तौर पर दबा कुचला माना जाता था. उन्होंने कहा कि अंग्रेज़ों ने इस सलाह पर अमल किया, और 1757 के प्लासी युद्ध में, नवाब को परास्त करने में कामयाब हो गए.

एक्सपर्ट्स और अपने इतिहास से परिचित समुदाय के सदस्यों के अनुसार, अंग्रेज़ों ने ईनाम के तौर पर दुसाध लोगों की, औपनिवेशिक सरकार के लिए चौकीदार और पुलिस मुख़बिर के तौर पर नियुक्तियां कीं. और यहीं पर पासवान शब्द का मूल मिलता है- जो एक उर्दू शब्द है जिसका मतलब है, बॉडीगार्ड या ‘नज़दीक का अंगरक्षक’.

माना जाता है कि उस ज़माने में पासवान लोगों ने, मुख्य रूप से लाठी चलाने वाले चौकीदार, या ज़मींदारों के लिए कर वसूलने का काम किया-जिससे वो सत्ता के नज़दीक रहते थे.

संजय पासवान ने कहा, ‘तब से ही सत्ता की भूख है इस कम्यूनिटी में. आज भी अगर आप देखें, तो हमारे बहुत से लोग पुलिस में मिलेंगे’.

जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, इलाहबाद के डायरेक्टर बद्री नारायण ने कहा, कि बीसवीं शताब्दी में जब जाति संघ, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की मांग के लिए, विभिन्न समुदायों के हाथ में एक औज़ार बन गए थे, तो पासवान पहला दलित समूह था, जिसने अपना एक जाति संघ बनाया, और कथित रूप से खोए अपने क्षत्रीय रुतबे पर फिर से दावा पेश किया.

उन्होंने आगे कहा, ‘1914 तक उन्होंने अपना एक जाति संघ बना लिया था…इसलिए कई कारणों से, जैसे ज़मींदार तबक़े और साहिब लोगों से नज़दीकी, और लाठी की ताक़त की बदौलत, वो एक प्रभावी और मुखर दलित समुदाय के तौर पर उभरकर सामने गए’.

‘महत्वाकांक्षी’

समुदाय से जुड़ी बहादुरी की छवि, उनके रीति रिवाजों में भी झलकती है. संजय पासवान ने कहा, ‘हमारी एक प्रमुख रीति है आग पर चलना’. संजय 2003 में तब सुर्ख़ियों में आ गए थे, जब केंद्र में जूनियर शिक्षा मंत्री रहते हुए, वो तलवार लहराते हुए नंगे पांव अंगारों पर चले थे.

ये पूछे जाने पर कि इस रीति का अर्थ क्या है, उन्होंने कहा, ‘इसका सीधा सा मतलब ये है कि हम दुसाध हैं- बहादुर, जो आग से खेलने से नहीं डरते’.

वर्मा ने बताया कि दुसाध लोग दलित समुदायों में सबसे अधिक सुसंस्कृत हैं. संस्कृतीकरण एक सामाजशास्त्रीय घटना है, जिसमें जातीय अनुक्रम में निचले दर्जे पर स्थित समूह, ऊंची जातियों के कर्मकांड और प्रथाओं को अपनाकर, ऊपर उठना चाहते हैं.

ताक़त से ऐतिहासिक निकटता ने, समुदाय को न सिर्फ ख़ुद की ताक़त का अहसास कराया, बल्कि महत्वाकांक्षी भी बना दिया.

दिल्ली स्थित शोध संस्थान सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) के डायरेक्टर, संजय कुमार ने कहा कि ये समुदाय दूसरे दलितों के मुकाबले सामाजिक-आर्थिक रूप से कहीं अधिक संपन्न है. उन्होंने आगे कहा, ‘ये अपने काम में विविधता लाए हैं. इसलिए, चौकीदारी के काम के अलावा, उनकी छोटी दुकानें और कारोबार भी हैं’.

बिहार में सबसे प्रभावी दलित समुदाय होने की वजह से, उन्हें आरक्षण से सबसे अधिक लाभान्वित होने में भी मदद मिली है.

कुमार ने कहा, ‘एक अहम बात जो याद रखनी चाहिए, वो ये है कि दूसरे दलितों के विपरीत, उन्हें अछूतों की तरह नहीं देखा गया. इसलिए ऊंची जाति के लोग उनके हाथ से भोजन या पानी ले लेते थे, चूंकि वो किसी अशुद्ध कार्य में नहीं लगे थे’.

कुमार ने कहा कि दूसरे दलित वर्गों के मुक़ाबले बेहतर आर्थिक स्थिति, दुसाध लोगों को ज़मीनों का मालिक नहीं बना पाई थी, लेकिन नारायण का कहना है कि ज़मीदारों से ऐतिहासिक निकटता की वजह से, उन्होंने अपने लिए भी कुछ ज़मीन जुटा ली थी.

नारायण ने ये भी कहा,  ‘राजनीतिक रूप से ये महत्वाकांक्षी भी हैं. अंग्रेज़ों के समय से ही इनके अपने नेता रहे हैं’.

राजनीतिक सशक्तीकरण का स्रोत

एक्सपर्ट्स का कहना है कि दुसाध लोगों के संख्या बल, और उनकी सामाजिक और तुलनात्मक आर्थिक ताक़त ने मिलकर, शुरू से ही उनकी राजनीतिक अहमियत को बनाए रखा.

कुमार का कहना था, ‘आप कह सकते हैं कि वो बिहार की आबादी का केवल 4-5 प्रतिशत हैं. लेकिन ये एक मज़बूत वोट बैंक है’. उन्होंने आगे कहा, ‘एक जातीय समूह के तौर पर, उनके अंदर वोटों को शिफ्ट करने की ज़बर्दस्त क्षमता है’.

कुमार ने कहा, ‘बिहार में 20 से 45 चुनाव क्षेत्रों में दलित 20 प्रतिशत से अधिक हैं, और अन्य में वो क़रीब 12-20 प्रतिशत हैं. बहु-कोणीय मुक़ाबले में, ये एक बड़ा वोट बैंक हो जाता है’.

बहुत पहले 1968 में ही बिहार ने, अपना पहला दलित मुख्यमंत्री चुन लिया था, जो कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री थे.

संजय पासवान ने कहा, ‘वो समय दलित एकता का समय था. इसलिए पासवान और चमार (बिहार में सबसे बड़ा दलित वर्ग) एक हो गए थे’. उन्होंने आगे कहा, ‘केंद्र में जगजीवन राम (पूर्व डिप्टी पीएम) थे, और राज्य में भोला पासवान शास्त्री थे’.


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लेकिन, उन्होंने आगे कहा कि, वो दोनों कांग्रेस से थे, और 1960 का दशक वो समय था, जब पूरे देश में कांग्रेस विरोध फैलना शुरु हो गया था, और इस पुरानी पार्टी के विकल्प के रूप में, सामाजिक न्याय के आंदोलन के पैरोकार के तौर पर, समाजवादियों की अगुवाई में गठबंधन बनने लगे थे.

उन्होंने कहा, ‘इसलिए विपक्ष को एक ग़ैर-कांग्रेसी दलित लीडर की ज़रूरत थी, और यही वो समय था, जब राम विलास पासवान उभर कर आए’.

राम विलास पासवान का उदय

पड़ोसी उत्तर प्रदेश में कांशी राम, और उनकी शागिर्द मायावती जैसे नेताओं के उभरने से बहुत पहले, राम विलास पासवान 1969 में विधायक चुन लिए गए थे.

इमरजेंसी में एक ताक़तवर नेता के तौर पर उभरने के बाद, उन्होंने हाजीपुर से 4,24 लाख मतों से चुनाव जीतकर, गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड क़ायम किया, जो उस समय, 1977 में, दुनिया भर में किसी भी नेता के लिए, जीत का सबसे बड़ा अंतर था.

पासवान को उनका समुदाय कितने सम्मान से देखता था, इसकी झलक उनके लिए बनाए गए नारे से मिलती है- ‘ऊपर आसमान नीचे पासवान’.

चाहे वो नेता का करिश्मा हो या समुदाय से किसी दूसरे बड़े नेता का न होना, पासवान वोट उसी गठबंधन की ओर गया, जिसका साथ राम विलास पासवान ने चुना- इस तरह पासवान लोग उनके सहयोगियों के लिए, एक तैयार वोट बैंक बन गए.

अपने पांच दशक के करियर में, पासवान एक सियासी गठबंधन से दूसरे में जाते रहे, और सत्ता में बने रहने के लिए, उन्होंने सभी विचारधाराओं वाली पार्टियों से तालमेल कर लिया.

समय के साथ साथ, हमेशा ही जीतने वाले गठबंधन के साथ जुड़ने की उनकी प्रवत्ति को देखते हुए, पासवान को ‘मौसम वैज्ञानिक’ भी कहा जाने लगा.

इसकी वजह से अकसर ये आरोप भी लगे, कि पासवान अपने वैचारिक सिद्धांतों के साथ विश्वासघात कर रहे थे. लेकिन ये ऐसा आरोप नहीं था, जिससे वो परेशान हुए हों.

उन्होंने एक बार एक पत्रकार से कहा था, ‘वो दलित राजनीति में है या नहीं, इससे फर्क़ नहीं पड़ता. फर्क़ इससे पड़ता है कि क्या वो अपने लिए और अपने समाज के लिए जीता है. दूसरे समुदायों के लिए जो चीज़ें सामान्य हैं, जैसे प्राइमरी शिक्षा हासिल करना, वो उत्तर भारत में दलित के लिए पहाड़ समान हैं’.

‘यही कारण है कि मेरी एमए और एलएलबी की डिग्रियां, बिहार में बहुत बड़ी जीत की तरह देखी जातीं थीं, और यहां दलित समुदायों में उसे अभी भी, एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता है. ऐसे संदर्भ में, दलित के लिए महत्वपूर्ण ये है, कि असंगत से दिखने वाले वैचारिक झुकावों के ज़रिए, क्या वो हाशिये पर पड़े लोगों का कुछ भला कर सकता है’.

अपनी किताब राइज़ ऑफ प्लेबियंस में, फ्रांसीसी भारतविद क्रिस्टोफ़ जैफ्रेलॉ ने कहा, कि फरवरी 2005 के बिहार चुनावों के बाद, राज्य में ऊंची जातियों के विधायकों की नुमाइंदगी 4.9 प्रतिशत बढ़ गई, और 1990 के बाद अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई.

इस तथ्य का ज़िम्मेदार उन्होंने एलजेपी को ठहराया. उन्होंने लिखा, ‘आरजेडी लीडर लालू प्रसाद यादव के मुक़ाबले के लिए, मुस्लिम-दलित को साथ लाने की प्रबल इच्छा के बावजूद, राम विलास पासवान ने ऊंची जातियों के क़रीब 30 प्रतिशत उम्मीदवार नामांकित किए, और मुसलमान व दलित मिलकर, कुल उम्मीदवारों का केवल 20 प्रतिशत रहे. इसलिए, एलजेपी विधायकों में ऊंची जातियों का प्रतिशत 55.2 पहुंच गया, और एक भी मुस्लिम उम्मीदवार जीत नहीं पाया था’.

वरिष्ठ पत्रकार नलिन वर्मा, जो लालू प्रसाद के जीवन पर लिखी गई किताब गोपालगंज टु रायसीना रोड के सह लेखक हैं, ने कहा कि राम विलास पासवान ने ‘ऊंची जातियों को बड़ी संख्या में टिकट देने में, कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई’.

उन्होंने आगे कहा, ‘पासवान लोग एक ताकतवर लेकिन छोटा वोट बैंक हैं, इसलिए उन्हें गठबंधन करने की ज़रूरत थी’…‘उन्होंने दलितों को ऊंची जातियों के सामने नहीं खड़ा किया, जैसा कांशी राम ने यूपी में किया… देखिए, वो एक राजनेता थे, कोई कार्यकर्ता नहीं’.

‘दलितों में ब्राह्मण’

इन्हीं सब कारणों की वजह से पासवान को, बहुत से लोग ‘दलितों में ब्राह्मण’ के रूप में देखते थे.

पासवान और एलजेपी, जो उन्होंने 2000 में बनाई थी, पासवान समुदाय की निर्विवाद पसंद रहे, लेकिन कांशी राम और उत्तर प्रदेश में मायावती की तरह, वो एक अखिल भारतीय दलित नेता के तौर पर नहीं उभर सके.

एक्सपर्ट्स के मुताबिक़ इसके पीछे कई कारण थे.

पहला, उनकी जाति का स्वभाव. जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर, राजेश पासवान ने कहा कि पासवान समुदाय एक बहुत छोटा, स्थानीय दलित ग्रुप है. उन्होंने ये भी कहा, ‘ये चमारों की तरह नहीं है, जो अलग अलग नामों से, भारत के हर प्रांत और रीजन में पाए जाते हैं’.

इसलिए, पासवान समुदाय की भले ही तमाम अनुसूचित जातियों से कानूनी संबद्धता रही हो, लेकिन वो कभी सांस्कृतिक संबद्धता में परिवर्तित नहीं हुई, जिसकी वजह से अखिल भारतीय दलित नेता के तौर पर, उनकी स्वीकार्यता सीमित हो गई.

दूसरा, जैसा कि विश्लेषकों ने दिप्रिंट से कहा, एक प्रमुख एससी समुदाय होने के नाते, दुसाध लोगों की नुमाइंदगी सबसे अधिक है, राजनीति में भी और सरकारी नौकरियों में भी. ओबीसीज़ की तरह, जहां माना जाता है कि आरक्षण के ज़्यादातर फायदे यादवों ने ले लिए हैं, दुसाध लोगों को लेकर भी दूसरी एससी जातियों में नाराज़गी पैदा हो गई, जिन्हें लगा कि राजनीतिक सशक्तीकरण के फायदे पासवानों के हाथों में ज़्यादा जा रहे हैं.

इसी नाराज़गी का फायदा उठाते हुए, नीतीश कुमार ने 2008 में महादलितों का एक नया वर्ग बना दिया, जिसका मक़सद ये बताया गया, कि इससे एससी जातियों के बीच आरक्षण के फायदों का, अधिक न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित किया जा सकेगा. पासवान, जिनके समुदाय को 2018 में महादलित के रूप में वर्गीकृत किया गया था, जब वो और नीतीश एनडीए के अंतर्गत सहयोगी थे, ने इस आरक्षण को दलित समुदाय को बांटने का प्रयास बताया था.

अब भी, 2020 चुनावों से पहले, एनडीए छोड़ने के सबसे बड़े कारण के तौर पर चिराग पासवान ने ‘दलित एकता तोड़ने’ के नीतीश कुमार के फैसले का हवाला दिया था.

संजय पासवान ने कहा, ‘इसने दोनों तरह काम किया’. उन्होंने आगे कहा, ‘महादलित फैसले से पासवान ने दूसरे दलितों के वोट खो दिए, लेकिन पासवान वोटों को अपने पक्ष में और मज़बूत कर लिया’.

राम विलास पासवान के चले जाने से, आगामी चुनावों में इस समुदाय की राजनीतिक अहमियत की आज़माइश होने वाली है.

नारायण ने कहा कि पासवान की मौत के बाद, इस बात की संभावना है कि आगामी चुनावों में समुदाय के वोट बंट सकते हैं. यदि पासवानों के वोट बंटते हैं, तो ऐसा पहली बार होगा, और ये समुदाय दशकों से चला आ रहा अपना राजनीतिक प्रभाव गंवा सकता है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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