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Thursday, 25 April, 2024
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शाह-ममता के झगड़े में फंसे राजबंशी कौन हैं? असम और बंगाल में ये BJP के लिए क्यों अहम हैं

असम और बिहार के कुछ हिस्सों में राजबंशियों को ओबीसी के तौर पर चिह्नित किया गया है, वहीं पश्चिम बंगाल में वे अनुसूचित जाति और मेघालय में अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आते हैं.

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नई दिल्ली/कोलकाता: केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की इस टिप्पणी कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सप्ताहांत में राज्य में चुनावी हिंसा की भेंट चढ़े पांचवें पीड़ित की मौत पर शोक नहीं जताया है, जो राजबंशी था, ने इस समुदाय को सुर्खियों में ला दिया है.

शाह ने इशारों-इशारों में यह कहा कि राजबंशी समुदाय सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिए कुछ खास अहमियत रखने वाला वोटबैंक नहीं है.

फरवरी में शाह ने असम में कूच-राजबंशी समुदाय के नेता अनंत रॉय से मुलाकात की थी और राज्य के साथ-साथ पश्चिम बंगाल में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिहाज से यह बैठक काफी अहम थी.

इस समय जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहा है, उनमें से दो में राजबंशी बहुल इलाके राजनीतिक रूप से काफी अहम माने जाते हैं, जो भाजपा की उन्हें अपने साथ जोड़ने की कवायद की एक स्पष्ट वजह भी है.

लेकिन राजबंशी हैं कौन? दिप्रिंट आपको इस समुदाय के बारे में जानकारी देने के साथ उनके इतिहास और कुछ खास राज्यों में उनकी मौजूदगी के बारे में बता रहा है.

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कौन हैं राजबंशी 

राजबंशी आबादी असम, उत्तर बंगाल, बिहार के पूर्णिया जिले, मेघालय के कुछ हिस्सों के अलावा बांग्लादेश, नेपाल और भूटान के कुछ क्षेत्रों में बसी हुई है.

उनकी जड़ें कामता साम्राज्य से जुड़ी हैं. यद्यपि पूर्व-औपनिवेशिक काल में कई राजवंश राजबंशी समुदाय पर शासन करते रहे लेकिन 16वीं शताब्दी में कूच साम्राज्य के कमान संभालने के बाद बाकी सब पीछे छूट गया, जिसने इस समुदाय की पहचान को स्पष्ट तौर पर परिभाषित किया. राजबंशी शब्द का शाब्दिक अर्थ तो ‘शाही समुदाय’ ही है.

राजबंशियों को अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दर्जा हासिल है. असम और बिहार के कुछ हिस्सों में उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के तौर पर चिह्नित किया गया है, वहीं पश्चिम बंगाल में वे अनुसूचित जाति (एससी) और मेघालय में अनुसूचित जनजाति (एसटी) की श्रेणी में आते हैं.

हालांकि, असम में राजबंशियों को अलग पहचान और संरक्षण देने की मांग एक बड़े आंदोलन का हिस्सा रही है.


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असम में कूच-राजबंशियों का संघर्ष

असम में कूच-राजबंशी अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांग रहे छह जातीय समूहों में से हैं. ये मांग 1967 से ही चली आ रही है और कामतापुर को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलन होता रहा है.

यद्यपि समुदाय का दावा है कि उसका संबंध ‘असम की मूल जनजातियों’ से है, जबकि राज्य सरकार का तर्क रहा है कि कूच-राजबंशियों ने हिंदू धर्म अपना लिया था और इसलिए अपनी आदिवासी पहचान बहुत पहले ही खो चुके हैं.

असम में कूच-राजबंशी यह मांग भी करते रहे हैं कि कामतापुरी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए. कामतापुर लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन नाम का एक चरमपंथी संगठन भी है जो अपनी लड़ाई को राजबंशी समुदाय के अधिकारों की रक्षा और पृथक कामतापुर राज्य के गठन के लिए होने का दावा करता है.

कूच-राजबंशियों का असम की एक अन्य सशक्त जनजाति— बोडो की तरह ही समृद्ध इतिहास रहा है और कई बार इनके बीच टकराव भी सामने आया है, खासकर 1980 के दशक के अंत में बोडोलैंड आंदोलन के दौरान. यह समुदाय राज्य में बोडो और मुसलमानों के बीच टकराव में भी फंस जाता है.

राजनीतिक रूप से असम में यह समुदाय खास अहमियत रखता है जिसकी निचले असम में अच्छी-खासी आबादी है. राजबंशी नेताओं का दावा है कि राज्य भर में उनकी आबादी 70 लाख है.

इसके नेताओं का यह दावा भी है कि राज्य की 126 विधानसभा सीटों में से लगभग 28 पर चुनाव में यह समुदाय निर्णायक भूमिका निभाता है.

यही वजह है कि इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि भाजपा इस समुदाय को लुभाने की कोशिश कर रही है. पिछले साल असम विधानसभा ने कामतापुर स्वायत्त परिषद सहित तीन स्वायत्त परिषदों के गठन के लिए एक बिल पारित किया था. राय के साथ शाह की बैठक भी राजबंशियों को लुभाने के प्रयासों का ही हिस्सा थी.


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पश्चिम बंगाल में राजबंशी

पश्चिम बंगाल में राजबंशी समुदाय का एक लंबा और जटिल इतिहास रहा है, जो कि 19वीं शताब्दी के पुनरूत्थान आंदोलन की अगुवाई करने वाले एक राजबंशी नेता पंचानन बर्मा से जुड़ा है.

राजबंशी का अर्थ उन लोगों से है जो राजा के वंशज या शाही परिवार के सदस्य हों. हालांकि, कई इतिहासकारों और जाति मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि यह हिंदू जाति व्यवस्था में उन्हें सामाजिक तौर पर सम्मान दिलाने के लिए ‘निर्मित एक धारणा’ थी.

19वीं शताब्दी के शुरू में राजबंशियों, जिन्हें तब अछूत माना जाता था, ने सामाजिक न्याय के लिए क्षत्रिय राजबंशी का दर्जा पाने के लिए एक आंदोलन किया. विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह क्षत्रिय पहचान को आगे रखकर राजबंशी समुदाय ने सामाजिक व्यवस्था में खुद को स्थापित करने की कोशिश की थी.

राजबंशी क्षत्रिय आंदोलन का नेतृत्व पंचानन बर्मा जैसे समुदाय के कुलीन नेताओं ने किया. 1921 की जनगणना में इस समुदाय को क्षत्रिय का दर्जा भी मिल गया. बाद में समुदाय की तरफ से अनुसूचित जाति का दर्जा हासिल करने के लिए एक और आंदोलन किया गया, जिसे भी मंजूरी मिल गई.

आजादी के बाद राजबंशियों ने अपनी राजनीतिक ताकत गंवा दी क्योंकि बंगाल विभाजित हो चुका था और वे अपनी जमीन से विस्थापित हो गए थे. इस समुदाय पर व्यापक शोध करने वाले और कई किताबें लिखने वाले जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रूपकुमार बर्मन बताते हैं कि पूर्वी बंगाल या मौजूदा बांग्लादेश में बसे हजारों लोग विस्थापित होकर पश्चिम बंगाल के कूच बिहार, दिनाजपुर और जलपाईगुड़ी जिलों में आ गए.

समुदाय का एक वर्ग बंगाल के कूच बिहार में कूच राजवंश से संबंध होने का दावा करता है. स्वाधीनता से पहले यह देश की तमाम रियासतों में से एक था. हालांकि, राजबंशी हिंदू जाति व्यवस्था के चार वर्णों में हाशिये पर ही रहे हैं, जिसमें ब्राह्मणों को शीर्ष पर माना जाता है.

समाजशास्त्र के एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि यद्यपि पश्चिम बंगाल में समुदाय अनुसूचित जाति की श्रेणी में आता है, राजबंशी आंदोलन को मुस्लिम विरोधी माना जाता रहा है क्योंकि अपनी क्षत्रिय पहचान को स्थापित करने की कोशिश के दौरान समुदाय ने उच्च जाति के हिंदू संस्कारों को अपना लिया था.

आजादी के बाद राजबंशी समुदाय कई छोटे समूहों में बंट गया. इनमें से एक समूह ने कूच राजबंशी के लिए राज्य की मांग की, जबकि दूसरे को एससी का दर्जा चाहिए था. पृथक राज्य की लड़ाई तो सिरे नहीं चढ़ पाई पर समुदाय को एससी सूची में शामिल कर लिया गया.

2011 की जनगणना के अनुसार, पश्चिम बंगाल में इस समुदाय की हिस्सेदारी अनुसूचित जाति की आबादी में 75.2 प्रतिशत और कुल जनसंख्या में 37.72 प्रतिशत है. इसका मतलब है कि राज्य में एक दर्जन से ज्यादा विधानसभा सीटों पर राजबंशी निर्णायक हो सकते हैं, जो भाजपा जैसी पार्टी के लिए खासे अहम हैं, जो राज्य में एक ताकतवर क्षेत्रीय पार्टी को सत्ता से बाहर करने और अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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