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Wednesday, 6 November, 2024
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पंजाब चुनावों में संत रविदास की विरासत के क्या हैं मायने, नेताओं के बीच इस पर दावा करने की लगी होड़

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने रविदास जयंती पर गुरु को श्रद्धांजलि अर्पित की, वहीं सभी राजनीतिक दलों ने इस चुनावी मौसम में गुरु के नाम पर दलित गौरव को भुनाने की पूरी कोशिश की है.

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फिल्लौर, पंजाब: पिछले कुछ हफ्तों से पंजाब की सड़कों पर वालंटियर के जत्थे झाड़ू-पोछे लेकर सड़कों पर उतरे हुए थे और धूल का आखिरी कण तक एकदम साफ कर देने के लिए पूरी मशक्कत कर रहे थे. जगह-जगह तंबू-कनात लगाए गए थे और उन पर झंडे लहरा रहे थे और ये सारी तैयारियां गुरु रविदास की जयंती पर जुटने वाले हजारों लोगों के रहने और खाने की व्यवस्था करने के लिए की गई थीं.

वैसे तो आध्यातमिक कवि-संत की जयंती राज्य और उसके बाहर रहने वाले असंख्य दलितों के लिए किसी महत्वपूर्ण त्योहार से कम नहीं है लेकिन इस बार, जब पंजाब में 20 फरवरी को चुनाव होने जा रहे हैं, तो इसका एक खास राजनीतिक महत्व भी रहा.

तमाम राजनीतिक दलों की तरफ से दलित समुदाय के गौरव और पहचान पर जोर देते गुरु के चित्रों के साथ बी.आर. आंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीरों को पोस्टरों का मुख्य आधार बनाया गया. कुछ पोस्टरों में विधानसभा चुनाव के लिए मैदान में उतरे उम्मीदवार को एक कोने में बस थोड़ी-सी जगह मिली.

हालांकि, सुरक्षित सीटों और दलित-बहुल क्षेत्रों से अलग जगहों पर चुनावी पोस्टर अपने चिर-परिचित रूप में ही नजर आए जहां प्रमुख राजनीतिक नेताओं की तस्वीरें छाई रहीं.

गुरु रविदास का सिख परंपरा में एक पवित्र स्थान है— उनके कई छंद आदि ग्रंथ में शामिल हैं और यह अलग से रविदासिया आस्था के मूल आधार भी हैं, जिसके अनुयायियों में दलितों का एक बड़ा तबका शामिल है. रविदास के समानता और न्याय के संदेशों ने सदियों से उत्पीड़न के शिकार रहे समुदायों को एक अलग गौरवपूर्ण पहचान देने और उन्हें सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

आश्चर्यजनक रूप से, राजनेताओं के बीच गुरु रविदास की विरासत के सम्मान को लेकर होड़ मची हुई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को रविदास जयंती के अवसर पर दिल्ली के करोलबाग स्थित श्री गुरु रविदास विश्राम धाम मंदिर में पूजा-अर्चना की, जबकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा इनकी जन्मस्थली वाराणसी का दौरा करने पहुंचे. पंजाब में सभी पार्टियों के राजनेताओं ने भी अपनी-अपनी तरह से उन्हें याद किया.


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‘पहले दलित शब्द एक गाली था’

1920 के दशक में एड-धर्म आंदोलन को राज्य में दलित चेतना के बीज बोने का श्रेय दिया जाता है, जिसे दलित विद्वान रौनकी राम ने दर्ज किया है. चमारों जैसी दलित जातियों को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चमड़े के सामानों की मांग से काफी सशक्त बनाया और इस आंदोलन ने उनकी इस आर्थिक ताकत को वैचारिक आकार दिया. गुरु रविदास की छवि को पंजाब में एक नव-कल्पित दलित कल्चरल स्पेस को प्रोजेक्ट करने के लिए इस्तेमाल किया गया था.

इस आंदोलन के तहत गुरु रविदास की तस्वीरों, कविताओं, शक्ति की महिमा आदि का गुणगान किया गया. दलितों ने उनके नाम पर मंदिर, मेमोरियल हॉल, गुरुद्वारे, शैक्षणिक संस्थानों के निर्माण के साथ-साथ सामुदायिक संपत्ति का एक नेटवर्क बनाया.

पंजाब यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले एम. राजीवलोचन ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि इतिहास देखें तो पंजाब के लोगों ने कभी जाति के आधार पर वोट नहीं दिया. उन्होंने कहा कि हो सकता है कि इस बार दलित मतदाता मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, जो दलित हैं, की वजह से कुछ प्रभावित हो सकता है लेकिन फिर भी शासन से जुड़े मुद्दे ही अहम रहेंगे.

राजीवलोचन ने हाल में लिखा था कि रविदास जयंती के कारण मतदान की तारीख बदलना (14 फरवरी की जगह 20 फरवरी करना) ‘सार्वजनिक जीवन में दलितों की बढ़ती अहमियत और उनकी विशिष्ट धार्मिक प्रथाओं को रेखांकित करता है.’

फगवाड़ा की एक स्कूल टीचर उषा रानी कहती हैं, ‘पहले दलित को गाली माना जाता था. राज्य में शीर्ष पद पर हमारे प्रतिनिधि का होना एक अच्छी बात है. हो सकता है कि एक दिन पंजाब में कोई दलित महिला भी मुख्यमंत्री बने.’


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राजनीति और दलित गौरव

पंजाब में दलितों— जो यहां 31.5 फीसदी के साथ किसी भी राज्य की आबादी में सबसे अधिक हिस्सेदारी रखने वाले हैं—ने परंपरागत तौर पर कभी किसी एक पार्टी का समर्थन नहीं किया है. कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया तो उसे उम्मीद थी कि सभी धर्म और संप्रदायों से जुड़े दलित समुदाय— हिंदू सिख, बौद्ध— उनके नाम पर एकजुट हो जाएंगे.

फिल्लौर में तमाम लोगों के लिए राज्य में एक दलित मुख्यमंत्री होना गर्व की बात है. पहली बार वोट करने जा रहे 22 साल के गुलचंद ने कहा, ‘चन्नी गरीबों के हितैषी है और लोगों के साथ बहुत सहज है— वह उनके साथ क्रिकेट खेलते हैं, लोगों के घर जाते हैं, ढाबों पर खाते हैं. पहले, मुख्यमंत्री के पास पचास कारें होती थीं. ऊपर से नीचे आए कैप्टन (अमरिंदर सिंह) के विपरीत चन्नी जमीन से उठकर यहां तक पहुंचे हैं.’

हालांकि, सभी की राय ऐसी नहीं है. तलहान— जहां 2003 में दलित-जाटों के बीच एक बड़ा संघर्ष हुआ था— में ट्रक चालक जसबीर चल ने बड़े गर्व के साथ बताया कि वह दलित हैं. जसबीर ने कहा, ‘मैं एक चमार हूं और हम ऐसे व्यक्ति को वोट देंगे जो हममें से एक हो और हमारी परवाह करता हो. यहां हर कोई बहुजन समाज पार्टी को वोट देता है.’

बहरहाल, सभी पार्टियों के राजनेता इन भावनाओं को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की है कि दिल्ली सरकार के कार्यालयों में केवल आंबेडकर और भगत सिंह के पोस्टर होंगे जो दोनों ही दलितों के प्रतीक हैं. वहीं, भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया है कि अगर वह सत्ता में आई तो एक दलित मुख्यमंत्री की नियुक्ति करेगी. वहीं, सियासी दबदबा रखने वाले जाटों की पहचान बनी पार्टी शिरोमणि अकाली दल ने दलित उपमुख्यमंत्री का वादा किया है.

हालांकि, आप ने शिक्षा, रोजगार और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को सामुदाय की मुख्य चिंता बताते हुए दलित मतदाताओं को साधने की कोशिश भी की है.

फगवाड़ा में आप नेता आशु सहोता, जो दो दशकों से अधिक समय तक कांग्रेस के साथ रहे हैं, ने तर्क दिया कि चन्नी ने ‘कोई काम नहीं किया, बस घोषणाएं ही की हैं.’


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‘किसी पर भरोसा नहीं’

हालांकि, बड़ी संख्या में दलित मतदाता सभी पार्टियों से निराश नजर आ रहे हैं.

आदमपुर में दिहाड़ी मजदूर ममता ने बताया कि चुनाव के दौरान सभी दल हाथ जोड़कर वोट मांगने आते हैं. और फिर बाकी पांच सालों में लोग हाथ जोड़कर एक जगह से दूसरी जगह तक चक्कर काटते रहते हैं.

उसने कहा, ‘बारिश होने पर छत गिर जाती है. बड़ी मुश्किल से मेरे पिता ने घर में हमारे लिए शौचालय बनवाया. इतने सालों में किसी ने हमारी कोई मदद नहीं की. हमने सभी को वोट देकर देख लिया है. मुझे किसी पर भरोसा नहीं है— चाहे चन्नी हों या आप या बसपा.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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