नई दिल्ली: राज्यों – मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम के चुनाव की प्रकिया समाप्त हुई और मंगलवार को सबकी नज़र चुनावी नतीजों पर होंगी. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की तीन टर्म भाजपा सरकार के रहे हैं वही, राजस्थान में आम तौर पर सरकारें हर चुनाव में बदलती है वहीं, नवगठित तेलंगाना पर टीआरएस अपनी पकड़ बनाने के लिए लड़ रही है और पूर्वोत्तर का आखिरी किला मिज़ोरम है जिसमें भाजपा घुसने का प्रयास कर रही हैं.तो क्या हैं इन चुनावों की अहमियत.
राज्य के चुनावों के नतीजे क्या लोक सभा चुनावों को सीधा प्रभावित करते हैं. शायद नहीं. अगर ऐसा होता तो 2003 में दिल्ली, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनाव हुए थे और दिल्ली छोड़ कर सभी चुनाव राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार – एनडीए ने जीते थे. आश्वस्त होकर प्रधानमंत्री वाजपेयी ने समय से पहले लोकसभा चुनावो की धोषणा कर दी थी. उनको आशा थी की जीत की इस लहर पर और इंडिया शाइनिंग सरीखें भारी प्रचार के सहारे वे लोक सभा चुनाव जीत जायेंगे. पर 2004 का लोकसभा चुनाव वे हार गए. कुछ वैसा ही कांग्रेस के साथ हुआ. वो दिल्ली और राजस्थान तो 2008 में जीत गए पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ हार गए. कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार केंद्र में फिर 2009 में सरकार बनाने में कामयाब हुई.
यानि इन चुनावों के नतीजे अहम तो होंगे पर किसी तरह का 2019 के लोक सभा चुनावों का सेमी फाइनल नहीं.
अगर कांग्रेस तीन बड़े राज्यों में से दो में सत्ता में आ जाती है तो इसमें नई उर्जा भरेगी. विपक्षी पार्टियों के महागठबंधन में नेतृत्व अपने हाथ में लेने की मांग पार्टी बेहिचक कर सकती है. पार्टी की राज्यों में सफलता कांग्रेस की सेहत के लिए भी अच्छी खबर होगी. पार्टी में ज़मीनी स्तर पर जो सुस्ती छाई थी, काडर जो गायब हो गया था या दूसरे दलों में चला गया था उसमें नई उर्जा भरेगी. पार्टी अगर काडर में जान फूंक पाती है तो ये उसके लिए बहुत बड़ी कामयाबी होगी. इसके साथ ही पार्टी को जो चंदा मिलना बंद सा हो गया था या कम हो गया था वो भी शुरू हो जाएगा. जीतने वाले घोड़े पर सभी पैसा लगाते है. और पार्टी के लिए सबसे बड़ी बात की उसके अध्यक्ष जिन्हें राजनीति में पप्पु के संज्ञा दे दी गई थी वो पास हो जाएगे. उनके उपर लगातार पार्टी की हार – बिहार से गुजरात कर का दाग धुल जाएगा.
वहीं सत्ताधारी एनडीए में भी इस हार जीत का दूरगामी प्रभाव होगा. इन राज्यों में हार को पार्टी के चाणक्य के अभेद्य किले में सेंध के रूप में देखा जाएगा. गुजरात भी हाथ से निकलते निकलते बचा था, कर्नाटक में भी वे सबसे बड़े दल होने के बावजूद अमित शाह भाजपा की सरकार नहीं बनवा पाए थे. यानि 2019 चुनाव में रणनीति के स्तर पर अमित शाह को टक्कर दी जा सकती है. वहीं मोदी का जादू क्या कम हो रहा है – ये चुनाव उसका पैमाना भी तय करेगा.
इन तीनों बड़े राज्यों में अगर भाजपा की हार होती है तो 2019 की राह पार्टी के लिए मुश्किल होगी. पार्टी के भीतर एक खेमा है जो मोदी नेतृत्व से असंतुष्ट है उसको इन राज्यों में हार पर केंद्रीय नेतृत्व (मोदी – शाह ) पर सवाल पूछने की हिम्मत बढ़ेगी. मोदी शासन में गाय के नाम पर हो रहीं हिंसा और आर्थिक मुश्किलें जो नोटबंदी और जीएसटी ने पेश की, बेरोज़गारी और कृषि संकट सभी मुद्दे तूल पकड़ेंगे. पार्टी में मोदी विरोधी आवाज़ को बल मिलेगा, ऐसे में लोकसभा में 180 के आंकड़े के आसपास अटकी भाजपा के भीतर मंथन संभव है और नए चेहरों का सामने आना भी एक संभावना बन सकती हैं.
यानि कुल मिलाकर दोनों पक्षों के लिए चुनाव के नतीजे दूरगामी प्रभाव ले कर आयेंगे. और भारतीय राजनीति के गुणा भाग के खेल में अभी भी बहुत रोचक गणित बचा है.