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रविवार, 29 जून, 2025
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कर्नाटक में दो साल से सुस्त सरकार, CM सिद्धारमैया सिर्फ कुर्सी बचाने में व्यस्त

सिद्धारमैया सरकार को कई मुद्दों पर सवालों का सामना करना पड़ रहा है. इनमें राज्य शिक्षा नीति का अब तक लागू न होना, पैसों की कमी, किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण और पार्टी के भीतर आपसी मतभेद जैसे मामले शामिल हैं.

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बेंगलुरु: जब मई 2023 में कांग्रेस पार्टी ने कर्नाटक में सत्ता संभाली, तो सिद्धारमैया सरकार का पहला बड़ा ऐलान था कि राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) को हटाकर एक नई राज्य शिक्षा नीति (SEP) लाई जाएगी.

मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद सिद्धारमैया ने सबसे पहले राज्य की शिक्षा नीति तैयार करने को प्राथमिकता दी. उनका कहना था कि इससे पिछली सरकार की ‘गलतियों’, जैसे कि स्कूल की किताबों में किए गए बदलावों को ठीक किया जा सकेगा.

अगस्त 2023 में उन्होंने कहा था, “इस साल तो थोड़ी देर हो गई है, लेकिन अगले (शैक्षणिक) साल से हम NEP को हटाकर संविधान के मुताबिक शिक्षा देने की कोशिश करेंगे.”

उनके समर्थकों ने इस कदम को सरकार के सुधारवादी कार्यकाल की अच्छी शुरुआत माना, जिससे इंफ्रास्ट्रक्चर विकास, सामाजिक न्याय और लोगों की ज़िंदगी में सुधार की उम्मीद जगी.

हालांकि, सिद्धारमैया ने अपनी सबसे बड़ी प्राथमिकता पांच गारंटी योजनाओं को दी, लेकिन उन्होंने SEP पर भी काम आगे बढ़ाया. इसके लिए 15 सदस्यीय एक आयोग बनाया गया और NEP पर आधारित सिलेबस को रोक दिया गया. इससे छात्रों में भ्रम की स्थिति पैदा हो गई.

लेकिन SEP आयोग अपनी पहली समय-सीमा 24 फरवरी 2024 तक काम पूरा नहीं कर पाया और अभी भी यह प्रक्रिया जारी है.

शिक्षाविदों, विश्लेषकों और सामाजिक संगठनों का मानना है कि SEP की स्थिति यह दिखाती है कि कांग्रेस सरकार बीते दो सालों में नीतियों पर सही ढंग से काम नहीं कर पाई. 2023 में कांग्रेस को बड़ी जीत मिली थी, जो कर्नाटक की अस्थिर राजनीति में बहुत कम देखने को मिलती है. अलग-अलग जातियों और धार्मिक समूहों ने कांग्रेस का समर्थन किया था, जिससे व्यापक सुधारों की उम्मीद बढ़ी थी.

लेकिन सिद्धारमैया और उनके डिप्टी डी.के. शिवकुमार के बीच लगातार तनातनी और पार्टी के भीतर नेताओं की आपसी खींचतान से सरकार कई मौके गंवा चुकी है. ज़्यादातर नेता अपने-अपने क्षेत्रों के लिए ज़्यादा फंड मांग रहे हैं.

जानकारों का मानना है कि चाहे बात रद्द किए गए जाति जनगणना की हो या किसी बड़े बिल की, पार्टी के भीतर की खींचतान ने नीतियों से ज़्यादा राजनीति को प्राथमिकता दी है.

सिविल राइट्स कार्यकर्ता और वकील क्लिफ्टन डी’रोज़ारियो ने दिप्रिंट से कहा, “कांग्रेस को अपने घर (पार्टी) में ही व्यवस्था लानी होगी. यह बहुत अजीब है कि पार्टी के अंदर इतनी सत्ता की लड़ाई चल रही है, और इसकी कीमत राज्य की शासन व्यवस्था को चुकानी पड़ रही है.”

बार-बार भ्रष्टाचार के आरोप, नीतियों पर भ्रम, फैसले लेने में देरी और लगातार पार्टी के अंदर झगड़े — इन सबके चलते सरकार की कार्यक्षमता और ज़रूरी सुधारों की संभावना को काफी नुकसान पहुंचा है.

‘सरकारी संपत्ति बेचकर पैसे जुटा रही सरकार’

इस हफ्ते की शुरुआत में मैसूर की एक देसी रम बनाने वाली फैक्ट्री ‘हुली’ के सह-संस्थापक अरुणा उर्स ने सवाल उठाया कि क्या सिद्धारमैया सरकार कारोबारियों को पड़ोसी राज्यों की ओर धकेल रही है?

अरुणा उर्स की फैक्ट्री हर दिन लगभग 100 रम की बोतलें बनाती है, लेकिन कर्नाटक सरकार द्वारा शराब लाइसेंस फीस लगभग दोगुनी किए जाने से उन्हें भारी नुकसान झेलना पड़ रहा था.

उन्होंने सोमवार देर रात एक्स पर लिखा, “क्या यही @INCIndia का बिज़नेस आसान बनाने का तरीका है?” उन्होंने इसमें राहुल गांधी और मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को टैग भी किया.

24 घंटे के भीतर, आंध्र प्रदेश के उद्योग मंत्री नारा लोकेश ने अरुणा उर्स से संपर्क किया और उन्हें आश्वासन दिया कि अगर वह फैक्ट्री वहां शिफ्ट करते हैं तो उन्हें खास नीति दी जाएगी.

अरुणा उर्स ने कर्नाटक सरकार की शराब नीति को “जबरन वसूली” बताया.

पिछले 24 महीनों में सरकार बीयर पर एक्साइज ड्यूटी तीन बार और शराब पर एक बार बढ़ा चुकी है.

ईंधन, नई गाड़ियों, रजिस्ट्रेशन और स्टांप ड्यूटी जैसे कई सामानों और सेवाओं पर टैक्स भी बढ़ाए गए हैं. इसका मतलब है कि सरकार लगातार चीज़ों के दाम बढ़ाकर पैसों की कमी पूरी करने की कोशिश कर रही है.

सरकार की पांच गारंटी योजनाएं हर साल राज्य को 50,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का खर्च करवाती हैं. इसके साथ ही केंद्र से पूंजी निवेश में भी कमी आई है, जिससे चुनावी वादे पूरे करने का बोझ या तो टैक्स देने वालों पर पड़ता है या सरकार कर्ज लेकर उसे निभाती है.

हालांकि, नीति आयोग के ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स इंडिया इंडेक्स 2023-24’ के मुताबिक, कर्नाटक ने गरीबी हटाने में अच्छी प्रगति की है और वह ‘परफॉर्मर’ से ‘फ्रंट रनर’ कैटेगरी में आ गया है — जो सरकार की एक उपलब्धि मानी जा सकती है.

लेकिन अब भी कई मुद्दों पर काम बाकी है.

कर्नाटक के सबसे बड़े किसान संगठन ‘राज्य रायता संघ’ के अध्यक्ष कोडिहल्ली चंद्रशेखर ने कहा, “सिद्धारमैया को लोगों को गरीबी से बाहर निकालने और मुफ्तखोरी से दूर करने की दिशा में काम करना चाहिए, न कि यह बताने में व्यस्त रहना चाहिए कि कितने लोग सरकारी योजनाओं से फायदा उठा रहे हैं.”

पांच गारंटी योजनाओं पर आ रहे भारी खर्च की वजह से सरकार को अपनी संपत्तियां बेचकर दूसरे कामों के लिए पैसे जुटाने पड़ रहे हैं. इसके लिए दो आयोग बनाए गए हैं, जिनका काम संसाधन जुटाने के तरीके तलाशना है. इसमें ज़्यादातर ज़मीन निजी कंपनियों को बेचने की योजना है.

‘ऑल्टरनेटिव लॉ फोरम’ से जुड़े विनय श्रीनिवास ने दिप्रिंट से कहा, “बजट में एक शब्द बार-बार आता है — PPP (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप). हम अपनी ज़मीन और संसाधन चुनिंदा निजी कंपनियों को दे रहे हैं. इसे कुछ लोग विकास कह सकते हैं, लेकिन आम जनता की नज़र में यह सही नहीं है.”

सरकार अब ऐसी ज़मीन को बेचने की सोच रही है जो उसने निजी परियोजनाओं या हाउसिंग लेआउट्स के लिए बेंगलुरु और उसके आसपास ली थी. कार्यकर्ता, विश्लेषक और सामाजिक संगठन कहते हैं कि इससे रियल एस्टेट का बाज़ार और गर्म हो गया है.

कोडिहल्ली चंद्रशेखर ने कहा कि उन्हें उद्योगों के लिए ज़मीन देने से ऐतराज नहीं है, लेकिन हर सरकार ने हर कार्यकाल में लाखों एकड़ ज़मीन ले ली है. उन्होंने कहा, “क्या सरकार यह दिखा सकती है कि इनमें से कितनी ज़मीन पर वाकई में उद्योग लग चुके हैं? बेंगलुरु में करीब 75% इंडस्ट्रियल शेड खाली पड़े हैं, फिर भी सरकार खेती की ज़मीन ले रही है. ये उद्योग के लिए नहीं, बल्कि रियल एस्टेट के लिए है.”

बुधवार को सैकड़ों किसानों ने ‘देवनहल्ली चलो’ मार्च निकाला. वे 1,777 एकड़ उपजाऊ ज़मीन को एयरोस्पेस पार्क के लिए सरकार द्वारा अधिग्रहित किए जाने का विरोध कर रहे हैं. यह आंदोलन अब तक 1,178 दिन चल चुका है. यह विरोध कांग्रेस सरकार के आने से पहले शुरू हुआ था, लेकिन तब विपक्ष में रहते हुए सिद्धारमैया और कांग्रेस ने किसानों का समर्थन किया था.

प्रदर्शनकारियों ने सरकार को एक पत्र लिखा, “या तो हमें हमारी ज़िंदगी शांति से जीने दो, या हमें हमारे परिवारों सहित हमेशा के लिए जेल में डाल दो और साफ कह दो कि कंपनियां हमसे ज़्यादा ज़रूरी हैं.”

किसान संगठनों का कहना है कि कांग्रेस सरकार ने खेती से जुड़ी समस्याओं को हल करने के लिए कुछ खास नहीं किया है. ज़्यादातर किसान अब खेती छोड़कर ज़मीन बेचने को बेहतर समझते हैं. डिप्टी सीएम डी.के. शिवकुमार बेंगलुरु का विस्तार रामनगर और आसपास के इलाकों तक करना चाहते हैं, जिससे वहां ज़मीन की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं.

किसान नेता यह भी कहते हैं कि सिद्धारमैया के पहले कार्यकाल में कृषि मूल्य आयोग था, लेकिन इस बार ऐसा कोई प्रयास नहीं दिखता. साथ ही, कांग्रेस सरकार ने न तो मोदी सरकार के बनाए गए कृषि कानूनों को रद्द किया और न ही बी.एस. येदियुरप्पा सरकार द्वारा गैर-किसानों को खेती की ज़मीन बेचने के फैसले को वापस लिया — जिससे खेती की ज़मीन को रियल एस्टेट में बदलना आसान हो गया है.


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‘गारंटी योजनाओं का बचाव सामाजिक-आर्थिक असर के आधार पर करें’

कार्यकर्ताओं और जानकारों का कहना है कि, सत्ता में आने के बाद से कांग्रेस सरकार लगातार अपनी गारंटी योजनाएं शुरू कर रही है, उनकी सालगिरह मना रही है और एक वैश्विक निवेशक सम्मेलन भी आयोजित कर चुकी है.

इस समय कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार के दो साल पूरे होने पर विजयनगर में कार्यक्रम चल रहा है, जिसमें राहुल गांधी और अन्य वरिष्ठ नेता भी मौजूद हैं, लेकिन इसी दौरान बेंगलुरु में भारी बारिश और जलभराव की स्थिति ने सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाया है.

उधर, उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार ने 17,800 करोड़ रुपये के टनल प्रोजेक्ट और 500 करोड़ रुपये के स्काइडेक जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स को आगे बढ़ाया है, लेकिन सरकार ने बेंगलुरु की असल समस्याओं — गड्ढे, कूड़ा प्रबंधन और ट्रैफिक जाम — को अब भी नहीं सुलझाया है, जिससे लोगों का भरोसा नहीं बन पा रहा है.

विश्लेषकों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि कांग्रेस सरकार ने न तो बेंगलुरु नगर निगम के चुनाव कराए हैं और न ही पंचायतों के, जिससे राज्य स्तर पर तो सत्ता बनी रही, लेकिन स्थानीय निकायों को कमज़ोर कर दिया गया है.

सरकार ने गिग वर्करों (जैसे डिलीवरी बॉय, टैक्सी ड्राइवर) के लिए कल्याण कानून लाने का फैसला किया है — यह कदम राहुल गांधी की पहल पर लिया गया और इसे प्रगतिशील माना जा रहा है, लेकिन खुद सिद्धारमैया की कैबिनेट में इस पर एकराय नहीं है. आईटी विभाग इसका विरोध कर रहा है क्योंकि इससे स्टार्टअप और ई-कॉमर्स कंपनियों पर असर पड़ सकता है. वहीं, श्रम मंत्रालय इसे लागू करना चाहता है.

इसके उलट, सरकार ने बाइक टैक्सी के मसौदा दिशा-निर्देशों पर रोक लगाने, निजी क्षेत्र में भाषा आधारित आरक्षण को बढ़ावा देने और निवेश लाने के लिए श्रम कानूनों को नरम करने जैसे फैसलों पर एकमत से कदम उठाए हैं.

अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक ए. नारायण ने दिप्रिंट से कहा कि कांग्रेस सरकार ने अपने पहले के कार्यकालों की तुलना में ज्यादा काम किया है, लेकिन उसे अपनी उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने की कला नहीं आती.

उन्होंने कहा, “अभी जो फंड की कमी है, वह दरअसल एक अच्छी स्थिति है.” उनके मुताबिक, पहले की सरकारें ऐसे-ही पैसे खर्च करती थीं, जैसे सामुदायिक भवन बना दिए, जिनका कोई ठोस असर नहीं होता था और कोई जवाबदेही भी नहीं होती थी.

नारायण का मानना है कि सरकार को अपनी योजनाओं को महज़ चुनावी रणनीति की तरह नहीं, बल्कि समाज और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर के नज़रिए से जनता के सामने रखना चाहिए. इससे लोगों को यह भरोसा मिलेगा कि सरकार सोच-समझकर फैसले ले रही है और भविष्य की तरक्की की नींव रख रही है.

उन्होंने यह भी कहा कि मौजूदा सरकार ने केंद्र से अपना हक मांगने और गारंटी योजनाओं के पैसे समय पर देने के मामले में अच्छा काम किया है. इसके साथ ही सफाई कर्मचारियों समेत कई अस्थायी कर्मचारियों की नौकरियां पक्की की हैं, जबकि आज के दौर में ज़्यादातर सरकारी संस्थाएं ठेके पर काम करवाने और ज़मीन रिकॉर्ड डिजिटाइज़ेशन जैसी योजनाओं की ओर बढ़ रही हैं.

हालांकि, नारायण ने ये भी माना कि सरकार के पास कोई बड़ा विज़न नहीं है. उन्होंने कहा, “सरकार के पास उच्च शिक्षा, शहरी शासन या समग्र विकास को लेकर कोई बड़ी योजना नहीं है — सिर्फ प्रोजेक्ट्स और योजनाएं हैं, विज़न नहीं.”

सिद्धारमैया सरकार और ज़मीनी पक्षकारों के बीच बढ़ती दूरी

मई में कर्नाटक के तटीय इलाकों में हुई सांप्रदायिक हिंसा के विरोध में कई मुस्लिम नेताओं ने एक साथ कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. कुछ ही हफ्तों के अंदर एक भीड़ हत्या, दो बर्बर हत्याएं और कई झड़पें हुईं, जिससे पहले से संवेदनशील इस क्षेत्र में तनाव और बढ़ गया.

सरकार ने इसके लिए बीजेपी और संघ से जुड़े संगठनों को दोषी ठहराया, लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय को यह भरोसा नहीं हुआ कि सरकार ने हालात को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए हैं.

उडुपी मुस्लिम ओक्कूटा (मुस्लिम संगठन) के सदस्य इदरीस हूडा ने कहा कि सिद्धारमैया अब पहले जैसे नहीं रहे, जैसे वो 2013 से 2018 के कार्यकाल में थे.

उन्होंने कहा, “बीजेपी सरकार द्वारा लाए गए असंवैधानिक और अमानवीय कानून — जैसे कि गोहत्या रोकथाम, हिजाब पर प्रतिबंध, धर्मांतरण विरोधी कानून — आज भी लागू हैं. न तो कांग्रेस सरकार ने इन कानूनों को रद्द किया है और न ही उन नफरत फैलाने वाले संगठनों पर कोई रोक लगाई है जो अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हैं. हिजाब का मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन कांग्रेस सरकार के पास इसे नीति के स्तर पर हल करने का मौका था — फिर भी उसने इस मुद्दे को पूरी तरह छोड़ दिया.”

1 मई को हिंदू कार्यकर्ता सुहास शेट्टी की हत्या के बाद सरकार ने एक ‘सांप्रदायिकता विरोधी बल’ बनाने की घोषणा की, लेकिन जब तक इस पर कागज़ी कार्रवाई शुरू होती, तब तक 32-वर्षीय अब्दुल रहीमान की हत्या हो चुकी थी. कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं का कहना है कि सरकार ने नफरत फैलाने वालों पर सख्ती से कार्रवाई नहीं की.

पिछले हफ्ते सरकार ने जल्दबाज़ी में एक बिल पेश किया, जिसमें झूठी खबरें और नफरत फैलाने वाले भाषणों को दंडनीय बनाने की बात थी, लेकिन कैबिनेट ने इसे रोक दिया क्योंकि इस बिल को पहले किसी मंत्री ने देखा भी नहीं था और न ही इस पर चर्चा हुई थी.

ऑल्टरनेटिव लॉ फोरम से जुड़े विनय के. श्रीनिवास ने कहा, “सरकार झूठी खबरों और हेट स्पीच पर रोक लगाने वाले बिल ला रही है, लेकिन बिना किसी चर्चा या सलाह के. सरकार ने रोहित वेमुला एक्ट की भी घोषणा की, जो शायद अच्छी नीयत से किया गया हो, लेकिन इसमें उन संगठनों से कोई सलाह नहीं ली गई जो इन मुद्दों पर ज़मीन पर काम कर रहे हैं.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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