scorecardresearch
Monday, 23 December, 2024
होमराजनीतिबंगाल की राजनीति में जाति कभी भी बड़ा मुद्दा नहीं थी. इस विधानसभा चुनाव ने इसे बदल दिया है

बंगाल की राजनीति में जाति कभी भी बड़ा मुद्दा नहीं थी. इस विधानसभा चुनाव ने इसे बदल दिया है

बनर्जी ने जाति आधारित राजनीति के बीज बहुत पहले बो दिए थे, मटुआ कबीले को हिंदू शरणार्थियों में शामिल किया. अब बीजेपी ने उन्हें नागरिकता देने का वादा किया है. एससी / एसटी वोटों पर भी नजर रखी जा रही है.

Text Size:

कोलकाता: ‘आपका आख़िरी नाम बिस्वास है. क्या उससे आप मटुआ या नाम नामसूद्र हो सकते हैं? आमतौर से मटुआ लोगों का आख़िरी नाम बिस्वास होता है, नहीं? लेकिन फिर साहा और दास लोगों का क्या?’ नॉर्थ 24 परगना के एक पार्टी ऑफिस में, हैरान दिख रहे एक तृणमूल नेता को, बिस्वास सरनेम के एक ब्लॉक लीडर से ये सवाल करते सुना गया.

जाति का ये सवाल सिर्फ मटुआ या नामसूद्र लोगों के लिए नहीं है, जो अनुसूचित जातियां हैं- या ऐसे इलाक़ों तक सीमित नहीं है, जिनमें पिछड़ी जातियों की बहुलता है. ये एक ऐसा सवाल है जिसपर इस चुनाव में, पूरे सूबे में चाय की दुकानों, नुक्कड़ों, और चौक बाज़ारों पर बहस हो रही है.

जाति का सवाल बंगाल में पूरी तरह अप्रासंगिक तो नहीं रहा है- बटवारे से पहले भी और बाद में भी- लेकिन आज़ादी के बाद इसकी अहमियत थोड़ी दबी हुई रही है. ये शायद पहली बार है कि ये मुद्दा, सूबे की सियासत में इतना अहम बन रहा है.

बहुत से लोग इसके लिए, छिटपुट हिंदू समुदायों को आक्रामकता के साथ मनाने की, बीजेपी की कोशिशों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. इन समुदायों में नामसूद्र, मटुआ, महतो, महिष्या, तेली, राजबंशी, और कोच आदि शामिल हैं- जो अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों (एससी-एसटी), और अन्य पिछड़े वर्गों में आते हैं.

2019 में, बीजेपी ने बंगाल में जाति की राजनीति का प्रयोग शुरू किया, जब उसने नामसूद्र समुदाय को मनाने के प्रयास शुरू किए, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तरी बंगाल में, अपने भाषण में उनका उल्लेख किया. राज्य के दक्षिणी हिस्सी में लोगों को संबोधित करते हुए भी, पीएम ने मटुआ लोगों का ज़िक्र किया.

उन्होंने इन लोगों से नागरिकता का वादा किया- बहुत से नामसूद्र (मटुआ लोग इस जाति के भीतर एक उप-जाति हैं) बांग्लादेश से आए हिंदू शर्णार्थी हैं. बीजेपी 2019 में संसद में पारित, जिस नागरिकता संशोधन बिल (सीएबी) को आगे बढ़ा रहा है, वो ऐसे ही समूहों के लिए लक्षित है-बांग्लादेश जैसे पड़ोसी मुल्कों से आए हिंदू शर्णार्थी, जो पिछले छह-सात दशकों से, भारत में रह रहे हैं.

पार्टी ने ये घोषणा करते हुए राज्य में जाति-आधारित राजनीति का विस्तार किया, कि महिष्या और तेली (जो अभी तक एसी-ओबीसी श्रेणी में शामिल नहीं हैं) और अन्य निचली-जातियों के हिंदुओं को, ओबीसी सूची में शामिल किया जाएगा.

लेकिन, बंगाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी, राज्य में जाति-आधारित राजनीति को बढ़ावा देने के दोष से बच नहीं सकतीं. बल्कि, ये ममता ही थीं जिन्होंने 2009 में, राजनीतिक फायदे के लिए मटुआ लोगों को लुभाने की कोशिश शुरू की थी, और समुदाय की आध्यात्मिक गुरू बोरो मां को अपने साथ जोड़ने का प्रयास किया था. बनर्जी समय समय पर ‘बोरो मां’ से मुलाक़ात करतीं थीं, और उन्होंने मटुआ लोगों के, असैम्बली और संसद के सदस्य (विधायक और सांसद),यहां तक कि अपनी सरकार में मंत्री तक बनने में सहायता की थी.

मटुआ समुदाय एपने समर्थन में विभाजित है- इस जाति के अंदर एक बीजेपी ख़ेमा भी है, जो नागरिकता पाने की उम्मीद में, पार्टी की ओर खिंच रहा है.

समाज विज्ञानी और कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर, समीर दास ने कहा, ‘बंगाल में जाति की राजनीति – सत्ता पक्ष और विपक्ष- दोनों सियासी पार्टियों के लिए अनुपूरक है. हिंदू टुकड़ों में बंट गए हैं, और मुसलमानों में भी दलित मुसलमानों का एक नया समूह पैदा हो गया है. इसकी शुरूआत तृणमूल ने की, और विरोधियों ने भी इसका जवाब दिया. ये एक पलटाव प्रभाव है. अब, दोनों पार्टियां जातियों को सामने ले आई हैं, तो विभिन्न समुदायों को सौदेबाज़ी करने की ताक़त मिल गई है’.

दास ने आगे कहा, ‘जाति का मुद्दा चुनावों या चुनाव घोषणा पत्रों तक सीमित नहीं रहेगा. इसमें व्यापक जटिलताएं हैं. लोग सरनेम पर चर्चा कर रहे हैं, क्योंकि वो जानना चाहते हैं कि अगर उनका संबंध किसी जाति विशेष से है, तो उन्हें क्या विशेषाधिकार और लाभ मिलेंगे. पहले सिर्फ शिक्षा और रोज़गार में आरक्षण की बात होती थी’.

2009 में, ये बनर्जी ही थीं जिन्होंने सूबे में जाति-आधारित राजनीति शुरू की थी. अब, बीजेपी ने उन्हीं पर बाज़ी पलटते हुए, मटुआ लोगों को नागरिकता देने का वादा किया है, जिनकी सूबे में क़रीब 20 प्रतिशत आबादी है. इस चुनाव में मटुआ वोट क़रीब 40-45 विधान सभा सीटों पर, नतीजों को प्रभावित करेंगे. अपनी पार्टी के लिए वोट बैंक निश्चित करने की, बंगाल मुख्यमंत्री की हिसाब से चली गई चाल से, अब उन्हीं के हाथ से सत्ता छिनती दिख रही है.


यह भी पढ़ें: बंजर जमीन और बेरोजगारी झेल रहे बंगाल के सिंगूर को चाहिए उद्योग और दूसरा ‘पोरिबोर्तन’


जब ममता जाति की राजनीति लाईं

हालांकि ये इसी चुनाव में हुआ है, कि जाति का मुद्दा इतना अधिक महत्वपूर्ण बन गया है, लेकिन इसकी शुरूआत की जड़ें काफी पीछे तक जाती हैं.

साल 2012 से, मुख्यमंत्री ने अलग अलग जातियों के लिए, दो दर्जन से अधिक विकास और सांस्कृतिक बोर्ड्स गठित किए हैं. सूबे के पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग में, 11 विकास और सांस्कृतिक बोर्ड्स सूचीबद्ध हैं, जो उत्तरी और दक्षिणी बंगाल के ज़िलों के लिए बनाए गए हैं. इस सूची में खंबू राय, मांगर, कामी, सारकी, दमाई, भुजेल, नेवाड़, गुरंग, राजबंशी, कुर्मी, और बहुत से अन्य समुदायों के लिए गठित, विकास और सांस्कृतिक बोर्ड्स शामिल हैं. इन सभी जातियों को एससी-एसटी तथा ओबीसी क्षेणियों में शामिल किया गया है.

राज्य में कई कैश स्कीमें हैं, जो कुछ विशेष जातियों और समुदायों के लिए शुरू की गई हैं, जिनमें दलित समूह शामिल हैं, जैसे पूर्वी बंगाल में नामसूद्र और मटुआ, उत्तर में राजबंशी, कोच, कामतापुरी, और पहाड़ी जनजातियां (गुरंग, लेपचा, मांगर, भुजेल), और पश्चिम में महतो या कुर्मी, महिष्या और तेली. भौगोलिक विभाजन उन इलाक़ों के हिसाब से है, जहां ये समुदाय ज़्यादातर केंद्रित हैं.

साल 2012 में, बनर्जी ने मुस्लिम मौलवियों के लिए भी, एक मासिक वित्तीय सहायता स्कीम का ऐलान किया. सात साल बाद, 2019 के आम चुनावों के बाद, राज्य सरकार ने हिंदू पुरोहितों के लिए एक मासिक भत्ता शुरू किया. ममता बनर्जी सरकार की ओर से, जाति विशेष के लिए शुरू की गई नक़द स्कीमों में, एसटी वर्ग के लिए जय जौहर , और एससी वर्ग के लिए बंधु प्रकल्प स्कीमें शामिल हैं. इनमें लाभार्थियों को 1,000 रुपए मासिक दिया जाता है.

बंगाल के समाज विज्ञानियों के अनुसार, इन स्कीमों का उद्देश्य राज्य भर में, जाति-आधारित वोट बैंकों को मज़बूत करना था.

‘पिछले कुछ सालों में, ममता बनर्जी ने कई जाति समूहों में पैठ बनाने की कोशिश की है, जैसे दक्षिण बंगाल में मटुआ, और उत्तरी बंगाल में राजबंशी. उनकी ये रणनीति राजनीतिक गणित पर आधारित थी. उन्होंने एक विशेष जाति समूह के आबादी प्रतिशत का हिसाब लगाया, और उसी हिसाब से उसके साथ बर्ताव किया’, ये कहना था जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अब्दुल मतीन का, जो जातियों और समुदायों पर शोध करते हैं.

लेकिन उनका हिसाब उल्टा पड़ गया प्रतीत होता है, और बीजेपी उन्हें बाहर करने के लिए, यही तरकीबें इस्तेमाल कर रही है.

उन्होंने आगे कहा, ‘उन्होंने एक भानुमती का पिटारा खोल दिया, चूंकि वो राजनीति में जाति के विषय को आगे ले आईं, और विकास तथा उनकी संस्कृति की रक्षा के मुद्दों को उठाया, लेकिन फिर उन्हें पूरा नहीं किया. अंत में, उनकी राजनीति ने, बीजेपी के लिए जाति का कार्ड खेलने की ज़मीन तैयार कर दी. वाम मोर्चे की सरकार ने जातियों के मुद्दे को, राजनीति में कभी आगे नहीं आने दिया था, 1980 की मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद भी नहीं’.

सीपीएम पोलितब्यूरो सदस्य मौहम्मद सलीम ने, दास की चिंता से सहमति जताई.

उन्होंने कहा, ‘(उन्नीसवीं सदी के) बंगाल पुनर्जागरण के समय से ही, बंगाल एक उन्नत समाज रहा है. मानवाधिकारों से जुड़े कुछ मुद्दे थे, और हमने हमेशा सभी जातियों और धर्मों के लोगों को, आंदोलन में शामिल रखा, ख़ासकर अपने भूमि अधिकार आंदोलन में. हमारी सरकार ने कभी भी, समुदायों को बांटने का काम नहीं किया’. उन्होंने आगे कहा, ‘विकास के कार्य या स्कीमें, आर्थिक रूप से कमज़ोर या पिछले क्षेत्रों के लिए थीं. तृणमूल और बीजेपी दोनों बंगाल पुनर्जागरण की उपलब्धियों को, पलटने की कोशिश कर रही हैं’.

लेकिन तृणमूल नेता अपनी नेता के समर्थन में बहुत मुखर हैं, और इस बात पर ज़ोर देते हैं, कि बनर्जी ने केवल ‘संवैधानिक ज़िम्मेदारी के तहत अपना काम अंजाम दिया है’.

तृणमूल राज्यसभा सांसद सुखेंदु सेखर रॉय ने कहा, ‘ममता बनर्जी ने पिछड़े समुदायों का जीवन सुधारने का काम किया. बीजेपी के उलट, उन्होंने कोई असंवैधानिक काम नहीं किया. नागरिकता अधिनियम लाकर, मोदी और शाह जो काम कर रहे हैं, वो असंवैधानिक है’. उन्होंने ये भी कहा, ‘मुख्यमंत्री ने विश्वविद्यालयों की घोषणा की है, विकास बोर्ड्स गठित किए हैं, और ग़रीबों को वित्तीय सहायता दी है. इसमें क्या ग़लत है?’

सूबे में ‘जाति विभाजन’ के लिए बीजेपी को दोष देते हुए उन्होंने कहा: ‘मैं समझता हूं कि बंगाल एक प्रगतिशील समाज है. हमारे यहां अंतर-जातीय विवाह होते हैं, और ये कोई बड़ी बात नहीं है. उत्तर भारत में ऐसी मिसालें हैं, कि ऐसी शादियों का अंत ऑनर किलिंग में होता है’.


य़ह भी पढ़ें: दीदी या परिवार? बंगाल की लड़ाई में समर्थन के नाम पर बंटा फुरफुरा शरीफ के पीर का ख़ानदान


चुनाव घोषणा पत्रों में शामिल किया

अप्रत्यक्ष रूप से पीछे लगने, और सार्वजनिक भाषणों में वादों से लेकर, जाति-आधारित रिआयतें तक, अब चुनावी घोषणा पत्रों का एक स्वीकार्य हिस्सा बन गई हैं, और ये अधिक औपचारिक तथा मुख्यधारा बन गई हैं.

फरवरी में अपने बजट भाषण में बंगाल मुख्यमंत्री ने, एससी-एसटी तथा ओबीसी वर्गों के बच्चों के लिए, 100 अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल खोलने का ऐलान किया था. उन्होंने ऐसे छात्रों के लिए भी 500 स्कूलों का वादा किया, जो ओल चिकी (संथाल लिपि) माध्यम में पढ़ना चाहते हैं. राज्य के जनजाति-बहुत क्षेत्रों के लिए, 800 नए स्कूल खोलने का ऐलान किया गया है. इन क्षेत्रों में पश्चिम मिदनापुर, पुरुलिया, बांकुरा, अलीपुरद्वार और जलपायगुड़ी, तथा राज्य के उत्तरी व पश्चिमी हिस्सों में, गोरखा-कुरमाली भाषी इलाक़े शामिल हैं.

उन्होंने अपने बजट भाषण में कहा था, कि नेपाली, हिंदी, उर्दू, कामतापुरी, और कुरमाली भाषी छात्रों के लिए, क़रीब 100 नए स्कूल खोले जाएंगे. उन्होंने ऐसे 100 नए स्कूल भी प्रस्तावित किए हैं, जहां पढ़ाई का माध्यम सदरी होगी, एक ऐसी भाषा जो उत्तरी बंगाल के चाय बागान मज़दूर बोलते हैं. राजबंशी बोलने वाले छात्रों के लिए भी, 200 स्कूल खोलने का ऐलान किया गया है.

उन्होंने ऐसे इलाक़ों के लिए राज्य आवास योजनाओं का भी ऐलान किया है, जहां की आबादी में एससी-एसटी तथा ओबीसी लोगों की बहुलता है. इसके अलावा, राज्य में एससी-एसटी तथा ओबीसी परिवारों के लिए, 1,000 रुपए मासिक की वित्तीय सहायता का भी ऐलान किया है, और इस तरह उन्होंने अपने चुनाव घोषणा पत्र में, सामान्य जातियों के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गो के लिए घोषित, मासिक आय योजना राशि को दोगुना कर दिया है. उन्होंने 10 हिंदू जातियों को, जिनमें महिष्या और तेली शामिल हैं, ओबीसी का दर्जा देने का भी प्रस्ताव दिया है. इस घोषणा से पहले, बीजेपी ने भी मार्च में इसी तरह का वादा किया था.

अपने चुनावी घोषणा पत्र में बीजेपी ने, एसटी-बहुल आबादी वाले क्षेत्रों के सभी ब्लॉक्स में, नरेगा के तहत 200 दिन के काम का वादा किया है. सामान्य जातियों के लोगों के लिए, केंद्र की इस स्कीम में 100 दिन का काम मिलता है. पार्टी ने एक पौन्द्र क्षेत्रीय विकास बोर्ड का गठन करने, तथा महिष्या, तेली और अन्य पिछड़ी हिंदू जातियों को, ओबीसी सूची में शामिल करने का वादा किया है. मटुआ पंथ के नेताओं, मटुआ दलपतियों के लिए भी, पार्टी ने 3,000 रुपए मासिक की वित्तीय सहायता स्कीम का ऐलान किया है.

लेकिन, हर किसी को ऐसा नहीं लगता, कि जातियों पर इस राजनीतिक फोकस में कोई समस्या है.

समाजशास्त्री और प्रोफेसर सरबनी बनर्जी ने कहा: ‘ये अच्छी बात है कि जातियों का विषय सामने आ गया है. जाति एक ऐसा मुद्दा था जिससे बटवारा हुआ. सामाजिक अधिकारों के लिए बहुत से पंथों के नेताओं ने मर्यादा आंदोलन चलाए. जाति का मुद्दा राजनीतिक बना रहा, लेकिन चुनावी राजनीति में इसकी अहमियत अब देखी जा रही है. राजनेता बहुत सी जातियों के पीछे जा रहे हैं, ये सोचते हुए कि वो ब्लॉक-वोटिंग करेंगी, जैसे यादव, जाट, या गुज्जर. बंगाल में (पहले) ऐसा नहीं हुआ है’.

क्या इस चुनाव में वो बदलता है, और क्या तृणमूल और बीजेपी के, जोश-ख़रोश के साथ पिछड़े वर्गों के पीछे लगने से, उन्हें कोई फायदा मिलेगा, ये देखा जाना अभी बाक़ी है.


यह भी पढ़ें: ‘कोई दुधारू गाय नहीं’- मुखर हो रहे हैं बंगाल, केरल और असम के मुसलमान, चाहते हैं अपनी पहचान


 

share & View comments