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Saturday, 21 December, 2024
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RLD और BJP के गठबंधन से कैराना में मुस्लिम-जाट के बीच बढ़ी दरार, पर SP की इक़रा हसन सबको साधने में जुटीं

रालोद के बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल होने के साथ, सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील कैराना में जाटों और मुसलमानों के बीच एकजुटता खत्म हो रही है, जहां 19 अप्रैल को सपा की इकरा हसन बीजेपी के प्रदीप चौधरी के खिलाफ मैदान में उतरेंगी.

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कैराना: आगामी लोकसभा चुनाव के लिए राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ हाथ मिलाने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले में स्थित कैराना में मुस्लिम और जाट मतदाताओं के बीच विभाजन बढ़ गया है. 2019 के विपरीत जब दोनों समुदाय एकजुट थे, इस बार मुसलमान रालोद के खिलाफ हैं.

भाजपा ने अपने मौजूदा सांसद प्रदीप चौधरी, एक गुर्जर, को मैदान में उतारा है, जिनकी विपक्षी इंडिया गुट से मुख्य चुनौती 27-वर्षीय इकरा हसन हैं, जो समाजवादी पार्टी (सपा) के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं. लंदन से पढ़ीं हुईं हसन, जिनके दादा, पिता और मां सभी ने अलग-अलग समय पर कैराना सीट का प्रतिनिधित्व किया है, ऐसा लगता है कि मुस्लिम समुदाय उनके साथ एकजुट हो रहा है. कैराना में 17 लाख मतदाताओं में से 40 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम और लगभग 14 प्रतिशत जाट और गुर्जर हैं, जहां लोकसभा चुनाव के लिए 19 अप्रैल को पहले चरण का मतदान होना है.

कैराना के 2018 के उपचुनाव में जब इकरा की मां तबस्सुम हसन ने जयंत चौधरी की आरएलडी के टिकट पर जीत हासिल की, तो मुस्लिम और जाट अपने जनादेश में एकजुट हो गए. 2019 में भले ही वे हार गईं, तबस्सुम को 42.24 प्रतिशत वोट मिले, जबकि भाजपा के प्रदीप चौधरी को लगभग 50 प्रतिशत वोट मिले.

हालांकि, रालोद के भाजपा के साथ गठबंधन के साथ, दोनों समुदायों के बीच यह एकजुटता खत्म हो रही है.

कभी शास्त्रीय संगीत के कैराना घराने की स्थापना करने वाले उस्ताद अब्दुल करीम खान की जन्मस्थली के नाम से मशहूर कैराना हाल के वर्षों में हिंदुओं के कथित “पलायन” और धार्मिक तनाव के कारण खबरों में रहा है. 2017 और 2022 के कैराना विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इसे अपना मुख्य मुद्दा बनाया था. हालांकि, सपा के नाहिद हसन-इकरा के भाई- के दोनों जीतने के बाद, ऐसा लगता है कि भाजपा ने अपनी रणनीति बदल दी है और प्रवासन मामले को आगे नहीं बढ़ा रही है.

इकरा हसन ने दिप्रिंट से कहा, “पहली बार, स्थानीय मुद्दे राष्ट्रीय कथानक पर हावी हो रहे हैं. हम ग्रामीण मुद्दों, स्वास्थ्य, शिक्षा, गन्ना किसानों के बकाया पर चुनाव लड़ रहे हैं. पलायन का मुद्दा सिर्फ बीजेपी का प्रोपेगेंडा था. पिछले दो चुनावों में, यह भाजपा की हार के साथ समाप्त हुआ.”

कैराना में प्रचार अभियान पर इक़रा हसन | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

राजनीतिक विश्लेषक इस बात से सहमत हैं कि “पलायन” कोण ने भाजपा के लिए अपनी पकड़ खो दी है.

कैराना के विजय सिंह पथिक गवर्नमेंट पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर उत्तम कुमार ने कहा, “यहां लोगों के बीच पलायन कोई बड़ा मुद्दा नहीं है. 2013 के दंगों के दौरान भी कैराना में शांति थी. भाजपा भी इसे कोई मुद्दा नहीं बना रही है, बल्कि मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से लोगों को लुभाने की कोशिश कर रही है. इस सीट पर ये बदलाव देखने को मिला है.”

हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि कैराना में धार्मिक ध्रुवीकरण मौजूद नहीं है, कुमार ने कहा कि यह चुनावों में भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था. मुख्य रूप से जाटों की पार्टी रालोद और भाजपा के बीच गठबंधन ने विभाजन बढ़ा दिया है. जाट मतदाता अब भाजपा की ओर झुक सकते हैं जबकि मुस्लिम सपा का समर्थन करते रहेंगे.

इससे पहले, जयंत चौधरी भी मुसलमानों के बीच एक विश्वसनीय चेहरा थे, खासकर उनके पिता अजीत सिंह ने 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद क्षेत्र में जाटों और मुसलमानों के बीच पैदा हुई दूरी को पाटने की काफी कोशिशें की थीं. जयंत ने जाट-मुस्लिम एकता के लिए कईं भाईचारा सम्मेलन आयोजित किए थे, लेकिन जयंत के बीजेपी के मैदान में आने से मुसलमानों का भरोसा एक बार फिर टूटा है.

हालांकि, कुमार ने आगाह किया कि इसमें कई तरह की गतिशीलताएं हैं.

कुमार ने कहा, “एक बड़ा हिंदू वर्ग है, जिसे बीजेपी पूरा करती है, खासकर निचले ओबीसी को, लेकिन जाटों में भी विभाजन हो सकता है और कुछ अभी भी सपा के साथ हैं.”

लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर कविराज ने यह भी कहा कि भाजपा ने धर्म के आधार पर कैराना का ध्रुवीकरण किया, जिसने पिछले दशक में उसके पक्ष में काम किया. उन्होंने कहा, “लेकिन अब स्थिति बदल गई है. जाटों में भी नाराज़गी है.”


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इक़रा कैसे बना रही है समीकरण?

इक़रा हसन कैराना के एक शक्तिशाली राजनीतिक वंश से आती हैं. उनके दादा अख्तर हसन, पिता मुनव्वर हसन और मां तबस्सुम सभी लोकसभा सांसद रहे हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने और लंदन के एसओएएस विश्वविद्यालय से मास्टर डिग्री लेने के बाद, वे दो साल पहले राजनीति में कूद गईं जब उन्होंने 2022 के विधानसभा चुनावों के दौरान अपने भाई नाहिद हसन के लिए प्रचार किया था.

उन्होंने कहा, “मैं निश्चित रूप से एक विशेषाधिकार प्राप्त परिवार से आती हूं, लेकिन मैं इसका अनुचित लाभ नहीं उठा रही. मैं कड़ी मेहनत कर रही हूं और हर दिन संघर्ष कर रही हूं. महिलाओं के लिए राजनीति अभी भी आसान नहीं है. आधी आबादी से अपील है कि वे महिला उम्मीदवार को वोट दें. मुझे एक मौका दें.”

इन दिनों, वे गांवों-गांवों में बैठकें कर रही हैं. युवाओं और महिलाओं की चिंताओं पर अपना संदेश केंद्रित कर रही हैं. वे अग्निपथ योजना, आरक्षण और पेपर लीक जैसे मुद्दों पर बात करती हैं और गर्व से खुद को कैराना की बेटी बताती हैं.

लेकिन वे कई बार व्यापक मुद्दे भी सामने लाती है. उदाहरण के लिए पिछले रविवार को उन्होंने एक सभा में कहा कि भाजपा का लक्ष्य 400 से अधिक सीटें जीतने का है क्योंकि वे संविधान बदलना चाहते हैं.

उन्होंने कहा, “भाजपा जिस तरह से लोगों के अधिकार छीन रही है, उसे रोकने के लिए इंडिया गुट को मौका दें, जो संविधान को बचाने के लिए काम कर रहा है. हमारा नारा पीडीए है — हम पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यकों के लिए काम करेंगे.”

इकरा बीजेपी के साथ जयंत चौधरी के गठबंधन को लेकर सदमे में हैं, वे उन्हें अपना “गुरु” और पश्चिमी यूपी में एक महत्वपूर्ण आवाज़ मानती हैं.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “जयंत चौधरी का बीजेपी के साथ गठबंधन पचने वाली बात नहीं है. वे किसानों के साथ खड़े हैं और भाजपा बिल्कुल विपरीत है.”

कैराना में एक रैली में शामिल सपा की प्रत्याशी इक़रा हसन | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

अपने अभियान के लिए हसन सावधानीपूर्वक चयन कर रही हैं कि किन गांवों का दौरा करना है. वो सुनिश्चित कर रही है कि वे न केवल मुस्लिम-बहुल गांवों में जाएं, बल्कि जाटों, गुर्जरों, दलितों और ओबीसी तक भी पहुंच बनाएं. कैराना में जाटों और गुर्जरों की आबादी क्रमश: 2 लाख और 1.3 लाख है, इसलिए वे उनके समर्थन के लिए ठोस प्रयास कर रही हैं.

उन्होंने दावा किया, “मुझे 36 बिरादरी का समर्थन मिला हुआ है. मैं हर किसी के पास जा रही हूं और उन्हें बता रही हूं कि भाजपा को हटाना कितना ज़रूरी है. मुझे उम्मीद है कि लोग इस बार पार्टी से ऊपर उठकर मुद्दों पर वोट करेंगे.”

फिर भी इस चुनाव में जाट समुदाय असमंजस की स्थिति में है. झबीरन में हसन की हालिया बैठक में भाग लेने वाले कृष्ण पाल ने कहा कि समुदाय निश्चित नहीं कि अपना समर्थन कहां दिया जाए. पाल ने कहा, “रालोद ने भाजपा का विरोध करते हुए किसानों के आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन अब वो उसके साथ शामिल हो गई है. पार्टी के समर्थक दोराहे पर हैं और सोच रहे हैं कि कहां जाएं.”

दलित आउटरीच इक़रा हसन के अभियान का हिस्सा है | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

इस बीच, भाजपा इस साल की शुरुआत में चौधरी चरण सिंह को दिए गए भारत रत्न को बार-बार हाइलाइट करके जाटों पर जीत हासिल करने की कोशिश कर रही है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कैराना में एक रैली में कहा, “चौधरी चरण सिंह ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने स्वतंत्र भारत में किसानों को उचित सम्मान दिया और इसका आभार जताने के लिए पीएम मोदी ने उन्हें भारत रत्न दिया है.”


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‘सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा’

कैराना में कई लोगों के लिए कानून-व्यवस्था बड़ा मु्द्दा है और प्रचलित धारणा यह है कि भाजपा इसे प्रदान करने के लिए सबसे अच्छी तरह सुसज्जित है.

कैराना के टोली गांव के निवासी अनिल प्रधान ने कहा, “पहले तो आए दिन छीना-झपटी और लूटपाट होती रहती थी. बहनों और बेटियों के लिए स्वतंत्र रूप से घूमना मुश्किल था, लेकिन अब स्थिति बदल गई है.”

जबकि प्रधान ने हसन के विचारशील भाषणों और नेतृत्व गुणों की प्रशंसा की, वे समाजवादी पार्टी के बारे में कम चिंतित थे. उन्होंने कहा, जब यह सत्ता में थी, तो सुरक्षा स्थिति निराशाजनक थी.

उन्होंने कहा, “इक़रा हसन वोट मांगने हमारे गांव आ रही हैं. हम उनका सम्मान करेंगे, लेकिन उन्हें वोट नहीं देंगे.”

भाजपा के प्रदीप चौधरी अपने अभियान में मोदी और योगी सरकार की नीतियों और पहलों पर भरोसा कर रहे हैं. उनका कहना था, “विकास के लिए वोट करेंगे.”

लेकिन हसन का कहना है कि बीजेपी सिर्फ धर्म की राजनीति करती है. उन्होंने दावा किया, “डबल इंजन की सरकार होने के बावजूद यहां कोई बड़ा विकास कार्य नहीं किया गया है.”

जब दिप्रिंट ने कैराना के कई गांवों का दौरा किया, तो निवासियों ने शिकायत की कि बीजेपी सांसद चौधरी कभी-कभार ही आते थे और उनसे कटे हुए रहते थे.

कैराना में एक और समुदाय जिसकी मतदान प्राथमिकताएं बदल रही हैं, वे दलित हैं, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का समर्थन किया है, लेकिन अब मोहभंग की बात कह रहे हैं.

बसपा के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “अब हमें लोगों के बीच बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. हालांकि, लोग अभी भी बहनजी (मायावती) को पसंद करते हैं, लेकिन भाजपा सरकार की योजनाओं ने एससी समुदाय के बीच काफी पैठ बनाई है.”

हसन को उम्मीद है कि वो इस खाली जगह को भर सकती हैं. वे दलित बस्तियों में संविधान के खतरों पर चर्चा करती हैं और रविदास मंदिरों का दौरा करती हैं. उन्होंने एक रैली में कहा, “मैं इस क्षेत्र की बेटी हूं. ईद तो बीत गई, लेकिन मैं अपनी ईदी 19 अप्रैल को चाहती हूं.”

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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