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Saturday, 21 December, 2024
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कांग्रेस का पतन नई बात नहीं है, आंकड़े बताते हैं कि 1985 से ही घटने लगी थीं पार्टी की लोकसभा सीटें

कांग्रेस ने 1984 के चुनाव में 82 फीसदी सीटों पर जीत दर्ज की थी. वर्ष 2019 में वह महज 12 फीसदी सीटों पर जीत दर्ज कर सकी और 88 फीसदी सीटें हार गई. कई सीटें जो कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थीं, इस लंबे समयावधि में वहां भी पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा. इसके संभावित कारणों में एक वजह कई क्षेत्रीय पार्टियों का उदय भी है.

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नई दिल्ली: 1951 की सर्दियों में जब भारत ‘बड़े बदलाव’ की ओर अग्रसर हो रहा था, तब एक संशयपूर्ण दुनिया दिख रही थी. इस नवोदित गणतंत्र के पहले आम चुनाव में देश की सत्ता पर अपनी पसंद के नेता को बैठाने के लिए, 10 करोड़ से अधिक भारतीयों ने आम चुनाव में हिस्सा लिया. उन्होंने अपने पसंदीदा उम्मीदवार के पक्ष में वोट डाला. ओडिशा के केंद्रपाड़ा लोकसभा सीट पर जनता ने केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता नित्यानंद कानूनगो को अपना सांसद चुना. लेकिन इस सीट पर यह जीत कांग्रेस पार्टी के लिए पहली और अब तक की आखिरी जीत साबित हुई है. इस चुनाव के बाद से, केंद्रपाड़ा के मतदाताओं ने कभी भी इस लोकसभा सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार को विजयी नहीं बनाया.

दिप्रिंट के चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण से यह पता चला है कि आने वाले दशकों में कई और लोकसभा सीट कांग्रेस पार्टी के लिए केंद्रपाड़ा सीट की तरह ही बन जाएगी. उन सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार का जीतना महज़ एक सपना बनकर रह जाएगा. इस प्रवृत्ति की शुरुआत 1985 के बाद से ही तेज हो गई है. जबकि 1984 के चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में पार्टी 400 से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही थी.

जानकारों के मुताबिक, दीर्घकालिक या ‘सेक्युलर’ गिरावट की कोई एक वजह नहीं है. उनके मुताबिक, इसकी मुख्य वजह क्षेत्रीय पार्टियों का बढ़ना है.

अशोका यूनिवर्सिटी के त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डेटा (टीसीपीडी) की ओर से इकट्ठा किए गए आंकड़ों के मुताबिक, साल 1962 से 1984 के बीच कांग्रेस का स्ट्राइक रेट 50 फीसदी से ज़्यादा था. कुल सीटें जिनमें से कोई पार्टी जितनी प्रतिशत सीटें जीतती हैं, वह स्ट्राइक रेट होती है. इन वर्षों में सिर्फ़ 1977 ही इसका अपवाद था. आपातकाल के बाद कांग्रेस का स्ट्राइक रेट 31 फीसदी रहा और इंदिरा गांधी की सरकार गिर गई थी.

साल 1984 में जब कांग्रेस सबसे मजबूत स्थिति में थी तब पार्टी को 491 में से 404 सीटों (82 फीसदी) पर जीत मिली थी. लेकिन, इसके बाद कांग्रेस कभी भी 50 फीसदी से ज़्यादा का स्ट्राइक रेट हासिल नहीं कर पाई.

साल 1989 में स्ट्राइक रेट 39 फीसदी रहा. साल 1991 में यह आधे के करीब पहुंचा और स्ट्राइक रेट 48 फीसदी रहा. साल 1996 से 2004 के बीच, पार्टी मुश्किल से एक तिहाई सीट (29 फीसदी) ही जीत पाई. साल 2004 में जब कांग्रेस ने गठबंधन की सरकार बनाई, तब पार्टी को सिर्फ़ 35 फीसदी सीट ही मिली. साल 2009 में पार्टी का स्ट्राइक रेट 47 फीसदी तक पहुंचा था.

साल 2014 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सत्ता में आई. उस साल कांग्रेस का स्ट्राइक रेट घटकर नौ फीसदी रह गया था. कांग्रेस ने 464 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए, लेकिन पार्टी को 420 सीटों (91 फीसदी) पर हार का सामना करना पड़ा. 2019 के लोकसभा चुनाव में 421 सीटों में से 369 सीटों (88 फीसदी) पर कांग्रेस के उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा.

Graphic: Ramandeep Kaur | ThePrint
ग्राफिक । रमनदीप कौर । दिप्रिंट

राष्ट्रीय स्तर पर मोदी का उभार, कांग्रेस की गिरावट की एक मुख्य वजह रही है. दिप्रिंट की ओर से किए गए चुनावी नतीजों के विश्लेषण से पता चलता है कि कथित ‘मोदी लहर’ के शुरू होने से पहले से ही कांग्रेस कई सीटों पर हारने लगी थी.

अशोका यूनिवर्सिटी के टीसीपीडी के को-डायरेक्टर गिल्स वर्निस के मुताबिक, सांगठनिक असफलता पार्टी के हारने की मुख्य वजह हो सकती है.

उन्होंने कहा, ‘राज्य स्तर पर, सांगठनिक तौर पर, कांग्रेस पार्टी पीछे है. स्थानीय स्तर पर हुए नुकसान का असर संगठन पर पड़ना स्वाभाविक है. वह ताकत जो पार्टी के पास थी, अब अन्य पार्टियों ने ले ली है. कई बार तो कांग्रेस से ही अलग हुई पार्टियों ने इसकी जगह ले ली. वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (YSRCP) और तृणमूल कांग्रेस इसके बेहतर उदाहरण हैं.’


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61 ‘कांग्रेस मुक्त’ सीटें

डेटा से पता चलता है कि कई सीटों से पार्टी का नामोनिशान मिट गया है. 1999 के बाद से पांच लोकसभा चुनावों में, कम से कम 61 सीटें ऐसी रही हैं, जहां कांग्रेस ने हर बार चुनाव लड़ा है, लेकिन एक बार भी जीतने में कामयाब नहीं रही.

पिछले पांच लोकसभा चुनावों में 11 फीसदी लोकसभा सीटों पर वोटर कांग्रेस को लगातार नकारते रहे हैं. यह संख्या हर चुनाव में बढ़ती रही है.

साल 1999 से 2009 के बीच कांग्रेस लगातार आगे बढ़ती रही है. उसे 1999 में 114 सीटों पर, 2004 में 145 सीटों पर और 2009 में 206 सीटों पर जीत मिली थी. लेकिन, इस दौरान भी पार्टी उन 61 सीटों पर कभी चुनाव जीत नहीं पाई.

साल 2019 में, कांग्रेस ने 421 सीटों पर चुनाव लड़ा और 52 पर जीत हासिल की. इस चुनाव में 369 सीटों में से जिन 329 सीटों पर कांग्रेस पार्टी हारी थी, पार्टी को 2014 लोकसभा चुनाव में भी उन्हीं सीटों पर हार का सामना करना पड़ा. 2009 के चुनाव में भी इन 329 में से 142 सीटों पर पार्टी चुनाव हार गई.

साल 2004 तक के डेटा को देखने से पता चलता है कि पिछले चार लगातार चुनावों में कांग्रेस कम-से-कम 93 सीटों पर लगातार चुनाव हारती रही है. साल 1999 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को 93 में से 61 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा.

Graphic: Ramandeep Kaur | ThePrint
चित्रण । रमनदीप कौर । दिप्रिंट

इन 61 लोकसभा सीटों में से आधे से ज्यादा, उत्तर प्रदेश (18), मध्य प्रदेश (11) और ओडिशा (8) राज्यों में स्थित हैं. शेष छत्तीसगढ़ (5), पश्चिम बंगाल (4), गुजरात (3), महाराष्ट्र (2), आंध्र प्रदेश (1), तेलंगाना (1), बिहार (1) और त्रिपुरा (2), हिमाचल प्रदेश (1 ), कर्नाटक (1), मेघालय (1), राजस्थान (1), और सिक्किम (1) में हैं.

साल 2019 के बाद से, इनमें से ज़्यादातर सीटों पर बीजेपी का दबदबा रहा है. लेकिन, कई राज्यों जैसे कि उत्तर प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में क्षेत्रीय पार्टियों ने सबसे पहले कांग्रेस से सीट छीनी. इन 61 सीटों के चुनावी इतिहास को देखने पर पता चलता है कि कांग्रेस इन जगहों से गायब रही है.


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हार का इतिहास

उदाहरण के लिए, कांग्रेस पश्चिम बंगाल की आरामबाग लोकसभा सीट कभी भी जीत नहीं पाई. इस सीट का गठन 1967 में किया गया था. इसी साल इंदिरा गांधी चुनाव लड़ी थीं और पार्टी को पिछली बार के मुकाबले 78 सीटें कम सीटें मिलीं. यह सीट 1971 से 2009 तक कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) का गढ़ रहा. सिर्फ़ 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने इसका सिलसिला तोड़ा. लेकिन, साल 2014 और 2019 में तृणमूल कांग्रेस ने आरामबाग सीट सीपीआई (एम) से छीन ली.

पश्चिम बंगाल की बेलपूर सीट पर कांग्रेस पिछली बार 1967 में जीतने में कामयाब रही थी. वहीं, पुरुलिया और जलपाईगुड़ी सीट पर कांग्रेस को आखिरी बार जीत 1971 में मिली थी.

1957 में ओडिशा की केंद्रपाड़ा सीट कांग्रेस के कब्जे से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के पास चली गई थी और 1998 से यह सीट बीजू जनता दल के पास है.

सिक्किम की एकमात्र संसदीय सीट पर कांग्रेस को सिर्फ एक बार जीत मिली है. इसके बाद से पार्टी यहां कभी भी जीत नहीं पाई है. 1977 में पहली बार राज्य में लोकसभा चुनाव हुआ था जिसमें पार्टी के उम्मीदवार को निर्विरोध जीत मिली थी.

साल 1984 से ही आज के तेलंगाना में स्थित हैदराबाद सीट से कांग्रेस कभी भी जीत नहीं पाई है. यह सीट अब अब तेलंगाना में है. 1984 में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के तत्कालीन अध्यक्ष सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने निर्दलीय कैंडीडेट के रूप में चुनाव लड़कर जीत दर्ज की थी और 1999 तक वह लगातर इस सीट पर जीतते रहे. इसके बाद, उनके बेटे असदुद्दीन ओवैसी 2004 से यहां से लगातार जीत रहे हैं.

कांग्रेस पार्टी साल 1985 से ही इन 61 सीटों के एक बड़े हिस्से को हारती जा रही है. जिन 18 सीटों को 1999 से पार्टी हारती जा रही है उनमें से 14 पर 1984 के आम चुनावों से ही जीत दर्ज नहीं कर पाई है.

मध्य प्रदेश की ऐसी पांच सीटें हैं जहां पर 1984 के बाद से कांग्रेस को कभी जीत नहीं मिली है. उत्तर प्रदेश के उलट पहले जहां ये सीटें बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और समाजवादी पार्टी (एसपी) की ओर से जीते गए और अब ये सीटें बीजेपी के कब्जे में हैं. वहीं, मध्य प्रदेश में ये सीटें सीधे बीजेपी ने कांग्रेस से छीनी हैं.

इसके अलावा, कांग्रेस ने सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश), फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) भावनगर (गुजरात) और बेंगलुरू दक्षिण (कर्नाटक) सीट पर पिछली बार 1989 में जीत हासिल की थी. ऐसी 14 सीटें हैं जहां पर कांग्रेस को पिछली बार 1991 में जीत मिली थी. इनमें से छह मध्य प्रदेश में पड़ती हैं.

त्रिपुरा से अपनी पकड़ खत्म होने के बाद, कांग्रेस यहां की दो सीटें कभी नहीं जीत पाई. पिछली बार कांग्रेस को त्रिपुरा पश्चिम और त्रिपुरा पूर्व सीटों पर साल 1991 में जीत मिली थी.

1990 के दशक के मध्य में कांग्रेस की पकड़ ओडिशा से भी खत्म हो गई है. पार्टी ने कटक सीट पिछली बार 1995 में जीती थी. वहीं, 1996 के बाद से यहां की पुरी, किउनझाड़, कांकेर, बोलांगीर और भद्रक सीट से पार्टी को जीत नहीं मिल पाई है.

कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश की हमीरपुर सीट पर पिछली बार 1996 में जीत हासिल की थी. प्रदेश में कुल चार लोकसभा सीट हैं. सुरेश चंदेल ने यहां से कुल तीन बार, 1998,1999, और 2004 में जीत हासिल की थी. राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर यहां से वर्तमान में बीजेपी के सांसद हैं.

पार्टी इसके अलावा, इन सात सीटों पर 1998 के बाद जीत दर्ज नहीं कर पाई है. ये सात सीटें हैं: राजस्थान में चुरू, मेघालय में तुरा, छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्य प्रदेश) में राजनंदगांव और रायगढ़, ओडिशा में जाजपुर व जगतसिंहपुर और महाराष्ट्र में औरंगाबाद.


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क्या कहते हैं विशेषज्ञ

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज में लोकनीति के सह-निदेशक संजय कुमार के अनुसार, कांग्रेस की हार के पीछे कोई एक वजह नहीं है. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘कभी-कभी जनसांख्यिकी की वजह से ऐसा होता है, तो कभी-कभी मजबूत स्थानीय प्रतिद्वंदी की वजह से. हाल के दिनों में क्षेत्रीय दलों के उदय को भी कांग्रेस के पतन के पीछे के एक महत्वपूर्ण कारक के तौर पर जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘कांग्रेस पार्टी हर समय मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में गोलबंद करने में कामयाब रही है, लेकिन अब क्षेत्रीय दल मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में गोलबंद कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, बिहार, दिल्ली और अब पंजाब में पार्टी की स्थिति देखिए. हर जगह उसका पतन दिख रहा है. क्षेत्रीय दल बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस के लिए बड़ा खतरा हैं.’

कांग्रेस प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह का कहना है कि सांप्रदायिकता अन्य चुनावी मुद्दों पर भारी पड़ रही है. हालांकि, पार्टी ने एक मजबूत विपक्ष पेश करने के लिए कड़ी मेहनत की है. उन्होंने कहा, ‘हम सिर्फ विकास, नीतियों, और नागरिकों के से जुड़े मुद्दे के बारे में बात करते हैं, लेकिन बीजेपी चुनाव और राजनीति का सांप्रदायीकरण करती है. धार्मिक उन्माद और जातिवाद वास्तविक मुद्दों पर भारी पड़ रहा है.’

सिंह ने यह भी कहा, ‘पार्टी अब एक नई रणनीति पर विचार कर रही है. हम मतदाताओं के बीच फिर से यह जागरूकता फैलाने की कोशिश करेंगे कि उन्हें सांप्रदायिकता से ऊपर उठना है.’

पिछले हफ्ते इंडिया टुडे टीवी के साथ साक्षात्कार में, राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कहा, ‘कांग्रेस पार्टी को खुद को व्यवस्थित करने के तरीके में मौलिक बदलाव करने की जरूरत है. जिस तरह से पार्टी का संचालन किया जाता है, जिस तरह वे जनता से संपर्क करते हैं, उनमें काफी ज्यादा बदलाव की जरूरत है. पार्टी को एक बार फिर से अपने पुराने दौर में वापस आने के लिए काफी सारे बदलाव करने होंगे. आप सिर्फ कुछ एंटीबायोटिक से कैंसर का इलाज नहीं कर सकते, है न?’

उन्होंने आगे कहा, ‘अगर कांग्रेस खुद को पुनर्जीवित करना चाहती है, तो उसे दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाना होगा, कम से कम 7 से 10 साल.’ प्रशांत किशोर ने इस बात की ओर भी इशारा किया कि पार्टी में 1985 के बाद से ही ‘सेक्युलर गिरावट’ शुरू हो गई थी.

विश्लेषण का तरीका: हमने केवल उन निर्वाचन क्षेत्रों का विश्लेषण किया है जहां कांग्रेस चुनाव लड़ी और हार गई. ऐसे निर्वाचन क्षेत्र भी हैं जहां पार्टी ने चुनाव नहीं लड़ा है और यहां पार्टी जीत भी सकती थी और हार भी सकती थी. ये क्षेत्र हमारे विश्लेषण में शामिल नहीं हैं.

2009 में परिसीमन में बदलाव की वजह से कुछ लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के नाम बदल गए. कुछ का विलय हो गया और कुछ का अस्तित्व ही समाप्त हो गया. इन पुराने निर्वाचन क्षेत्रों को उनके विधानसभा क्षेत्रों के आधार पर मैप किया गया था. वर्तमान लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के नाम जिनमें पुराने विधानसभा क्षेत्रों के अधिकांश विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं उन्हें विश्लेषण में शामिल किया गया, ताकि नतीजे और बेहतर मिल सकें.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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