नई दिल्ली: एक सख़्त पुलिस अधिकारी जिसने एक समय पंजाब में ड्रग तस्करों पर कार्रवाई की थी. एक कट्टर सिख नेता जो खालिस्तान की पैरवी करता है. एक लोकसभा सांसद जिसे एक बार संसद में कृपाण ले जाने से रोक दिया गया था. बीते सालों में सिमरनजीत सिंह मान के अलग अलग रूप रहे हैं, और अब क़रीब दो दशक तक चुनावी हाशिए पर रहने के बाद, 77 वर्षीय मान एक बार फिर से सियासी तौर पर अहम हो गए हैं.
शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के अध्यक्ष- जो बादल परिवार की अगुवाई वाले शिरोमणि अकाली दल से टूट कर अलग हुआ एक गुट है- सिमरनजीत सिंह मान ने इस रविवार सभी को चौंका दिया, जब उन्होंने संगरूर लोकसभा सीट पर हुआ उपचुनाव 5,822 वोटों के अंतर से जीत लिया, जिसमें उनका वोट शेयर 35.61 प्रतिशत रहा.
ये सीट आप नेता और मुख्यमंत्री भगवंत मान का गृह क्षेत्र है, जिन्होंने तीन महीने पहले ही कार्यभार संभाला था जब उनकी पार्टी ने पंजाब विधान सभा चुनावों में ज़बर्दस्त जीत दर्ज की थी. भगवंत मान 2014 से संगरूर से सांसद रहे थे, और उनके पंजाब सीएम का कार्यभार संभालने पर ये सीट ख़ाली हो गई थी.
हालांकि सिमरनजीत मान तरन तारन से 1989 और फिर 1999 में सांसद चुने गए थे, लेकिन उसके बाद के सालों में न तो वो ख़ुद, और न ही एसएडी(ए) से कोई और नेता यहां से कोई चुनाव जीत पाया, और समय के साथ उनका वोट प्रतिशत घटता चला गया.
इसलिए एसएडी(ए) नेता की ज़ाहिरी वापसी से अटकलों का बाज़ार गर्म हो गया है, जिसमें कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षक उनकी अप्रत्याशित सफलता के पीछे का कारण कट्टर अकाली राजनीतिक वापसी को मान रहे हैं, जो आंशिक रूप से आप के प्रति पैदा हुए असंतोष- ख़ासकर इस मई में लोकप्रिय गायक और कांग्रेस नेता सिद्धू मूसेवाला की हत्या के बाद- की वजह से बढ़ा है.
अकाली राजनीति के उत्थान के बाद गिरावट का उलटना
2004 और 2019 के बीच सिमरनजीत मान सभी लोकसभा चुनावों में खड़े हुए, लेकिन निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के अनुसार उनके वोट शेयर में तक़रीबन लगातार गिरावट आती रही.
2004 में, 26 प्रतिशत मतों के साथ वो तीसरे स्थान पर रहे- जो पिछले चुनावों के 41.7 प्रतिशत से कम था. 2009 में वो और नीचे गिरकर पांचवें स्थान पर आ गए, और उनका वोट शेयर घटकर केवल 3.62 प्रतिशत रह गया.
2014 में, खदूर साहिब से चुनावों में हाथ आज़माया, लेकिन यहां उनका अब तक का सबसे ख़राब प्रदर्शन रहा, और उनके हिस्से में केवल 1.34 प्रतिशत वोट आए. 2019 में वो वापस संगरूर सीट पर चले गए, जहां उनका वोट शेयर थोड़ा बढ़कर 4.37 प्रतिशत हो गया.
इस अवधि में, असेम्बली चुनावों में भी उनका प्रदर्शन ऐसा ही रहा. उन्होंने धंडोली (2007), फतेहगढ़ साहिब (2012), और बरनाला (2017) से असफल चुनाव लड़े, जहां उनका वोटशेयर 2007 में 15 प्रतिशत से गिरकर 2012 में 2.9 प्रतिशत, और 2017 में 3.8 प्रतिशत रह गया.
इसलिए, ख़ासकर पंजाब में आप की लहर के बाद, इस महीने संगरूर में हासिल हुई जीत की अहमियत और बढ़ जाती है.
दिप्रिंट से बात करते हुए चंडीगढ़ में विकास और संचार संस्थान के निदेशक प्रमोद कुमार ने कहा, कि पंजाब में अकाली सियासत फिर से ज़ोर पकड़ रही है जिसमें ‘उग्र सुधारवाद के प्रमुख रंग’ देखे जा रहे हैं, और मान की जीत इसी को दर्शाती है.
कुमार ने कहा, ‘इस सियासत के तीन व्यापक अंग हैं- पंथिक, प्रांतीय और किसान-जनता. ऐसा लगता है कि मान को इन सभी अंगों का समर्थन मिला है’.
कुछ राजनीतिक विशेषज्ञ और पर्यवेक्षक भी कहते हैं, कि किसान आंदोलन ने भी जो 2020 में शुरू हुआ और एक साल से अधिक समय तक चला, पंजाब के कई हिस्सों में पुरानी कट्टर भावनाओं की चिंगारी को फिर से हवा दे दी, जिससे खेदहीन, सिख-केंद्रित राजनीतिक आवाज़ों को और अधिक जगह मिल गई.
उनका कहना है कि सिख राजनीतिक में एक ख़ालीपन है, और मान जैसे नेता को इस समय उस पर क़ब्ज़ा करते हुए देखा जा सकता है.
चंडीगढ़ की पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर रोंकी राम के अनुसार, संगरूर नतीजे को आम जन की ओर से आप सरकार को एक ‘मज़बूत संदेश’ के रूप में देखा जा रहा है, जो उसके ‘बदलाव’ के चुनावी वायदे को जल्द पूरा होते देखना चाहते हैं’.
राम ने कहा, ‘लोगों का किसी पारंपरिक राजनीतिक पार्टी की बजाय सिमरनजीत सिंह मान जैसे उम्मीदवार को वोट देना, आप को एक मज़बूत संदेश के अलावा कुछ नहीं है. लोग ढांचागत बदलावों के रूप में आप सरकार से तुरंत नतीजे चाहते हैं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि उन्हें अभी भी दूसरी पार्टियों पर भरोसा है’.
राम ने आगे कहा, ‘लगता है कि इस अनुभूति ने भी, कि भगवंत मान दिल्ली में अपने शीर्ष पार्टी नेताओं से निर्देश लेते हैं, आप के खिलाफ काम किया है’.
राम और कुमार दोनों ने कहा कि इस असंतोष की भावना के साथ ही, सिद्धू मूसे वाला की मौत के बाद क़ानून व्यवस्था को लेकर भी चिंताएं बढ़ गई हैं.
इसी संदर्भ में, हो सकता है कि एक मज़बूत सिख-समर्थक आवाज़ तथा एक पुलिस अधिकारी की पृष्ठभूमि ने भी, मान की अपील में इज़ाफा किया हो.
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IPS में करियर और एक कट्टरपंथी मोड़
सिमरनजीत मान का ताल्लुक़ एक ऐसे परिवार से है जिसे राजनीतिक रूप से जुड़ा हुआ कहा जा सकता है.
उनके पिता लेफ्टिनेंट कर्नल जोगिंदर सिंह मान (रिटा), जो एक अकाली दल नेता थे, 1960 के दशक के उत्तरार्ध में पंजाब असेम्बली के स्पीकर रहे थे. उनकी पत्नी गीतिंदर कौर मान प्रणीत कौर की छोटी बहन हैं, जो पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पत्नी हैं.
मान ने अपना करियर भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के 1967 बैच के अधिकारी के रूप में शुरू किया था, लेकिन 1984 में उन्होंने ऑपरेशन ब्लूस्टार के विरोध में इस्तीफा दे दिया, जो अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में रह रहे खालिस्तानी अलगाववादियों के खिलाफ सेना की कार्रवाई थी.
उससे पहले मान ने अन्य पदों के अलावा, पंजाब पुलिस के सतर्कता विभाग में बतौर पुलिस अधीक्षक, और फिरोज़पुर तथा फरीदकोट ज़िलों में बतौर वरिष्ठ अधीक्षक काम किया था. फऱीदकोट में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने ड्रग तस्करों के खिलाफ कथित रूप से एक बड़ी कार्रवाई की अगुवाई की थी.
1984 में जब उन्होंने सेवा छोड़ी, तो वो बॉम्बे (अब मुम्बई) में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) में प्रतिनियुक्ति पर तैनात थे. उस समय मान, जिन्हें हमेशा एक ‘अत्यधिक धार्मिक व्यक्ति’ के तौर पर जाना जाता था, ऑपरेशन ब्लूस्टार के खिलाफ प्रदर्शनों में सक्रिय रूप से शामिल थे.
अपने त्यागपत्र में उन्होंने कथित रूप से भारतीय सेना की तुलना जनरल डायर से और उसके स्वर्ण मंदिर में घुसने की तुलना 1919 के जलियांवाला वाग़ नरसंहार से की, जिससे सरकार बेहद नाराज़ हो गई थी.
बाद में उन्हें देशद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के सिलसिले में भी उनकी कथित तौर पर जांच की गई.
1984 से 1989 के बीच मान जेल में रहे. 1989 के अंत में, वो उन 100 से अधिक सिख बंदियों में थे जिन्हें केंद्र सरकार ने बिना किसी शर्त के रिहा कर दिया, और उनके खिलाफ सभी आरोप ख़त्म कर दिए गए.
लेकिन अभी भी, 6 जून को- सैनिकों के स्वर्ण मंदिर में घुसने की वर्षगांठ पर- मान और उनके समर्थक परिसर के अंदर जमा होकर खालिस्तान-समर्थक नारे लगा रहे थे.
चुनावी उत्कर्ष
जब वो भागलपुर जेल में बंद थे तो मान ने 1989 में तरन तारन से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत गए. उसी साल उनकी पार्टी ने, जो बादल के एसएडी से टूटकर अलग हुई थी, पंजाब की 13 में से 6 सीटें जीत लीं थीं.
पंजाब स्थित एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने पहचान न बताने की शर्त पर कहा, ‘उस समय पंजाब में उग्रवाद भी अपने चरम पर था. उस अवधि में मान जैसे नेताओं ने भारी चुनावी जीत हासिल की’.
1990 में, मान फिर से सुर्ख़ियों में आए जब उन्होंने अपना कृपाण –जिसे सिख एक आस्था की चीज़ मानते हैं- संसद के अंदर ले जाने की ज़िद की, लेकिन उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी गई.
आज भी मान जिनका क़द छह फीट से अधिक है, और जो एक लंबी डाढ़ी रखते हैं- अपनी तलवार जैसी कृपाण के बिना सार्वजनिक रूप से बहुत कम दिखते हैं.
अगले दो लोकसभा चुनावों में मान को कामयाबी नहीं मिली, लेकिन 1999 में उन्होंने थोड़े समय के लिए वापसी की, और अकाली दिग्गज तथा पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरजीत सिंह बरनाला को हराकर उनसे संगरूर सीट छीन ली.
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‘उन्होंने कभी हार नहीं मानी’
जैसे जैसे पंजाब उग्रवाद के दौर से बाहर आना शुरू हुआ, मान की तर्ज़ की सियासत का समर्थन घटने लगा.
1999 के बाद से, मान और उनकी पार्टी लगातार चुनावों में हारती रही, और शिरोमणि गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) तक के चुनाव नहीं जीत पाई. एसजीपीसी एक धार्मिक इकाई है जिससे सूबे में पंजाब की सियासत को अपनी बुनियादी ताक़त मिलती है
लेकिन, पंजाब स्थित एक नेता ने जो अब कांग्रेस में हैं, कहा कि मान ने ‘कभी हार नहीं मानी’.
इसके पीछे एक कारण था. नेता ने कहा कि जब पंजाब में उग्रवाद का पतन हुआ तो बादल परिवार की अगुवाई में एसएडी ने मुख्यधारा के राष्ट्रवाद को कसकर गले लगाना शुरू कर दिया, लेकिन बहुत से परंपरागत अकाली मतदाताओं ने इसे पसंद नहीं किया.
कांग्रेस नेता ने आगे कहा, ‘इसलिए मान को, जो एक कट्टर सिख-समर्थक आवाज़ थे, अपनी तरह की राजनीतिक के लिए हमेशा जगह नज़र आई’.
ये स्थान और व्यापक हो गया जब तीन कृषि क़ानूनों के खिलाफ- जो अब वापस ले लिए गए हैं- 2020 में किसानों का आंदोलन शुरू हुआ.
पंजाब के एक पूर्व सिविल सर्वेंट ने कहा, ‘मान ने किसान आंदोलन में एक सक्रिय भूमिका निभाई जिससे उन्हें जन समर्थन हासिल हुआ, जो अंत में उनके फिर से उभरने में बहुत सहायक साबित हुआ’.
नए सिरे से हासिल हुई इस शोहरत 2022 के विधान सभा चुनावों में भी नज़र आई, जो मान ने मालवा क्षेत्र की अमरगढ़ सीट से लड़ा.
हालांकि वो 6,000 वोटों के अंतर से आप से परास्त हो गए, लेकिन 30 प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब हो गए- जो पिछले दो दशकों के उनके चुनावी प्रदर्शन में एक बड़ा सुधार था. ये देखते हुए वो प्रदर्शन और भी अहम हो जाता है, कि उस समय राज्य में आप की लहर के चलते कई राजनीतिक दिग्गज अपनी सीटें गंवा बैठे थे.
2022 के पंजाब असेम्बली चुनावों से पहले दीप सिद्धू जैसी लोकप्रिय पंजाबी हस्तियों ने, जो किसान आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे, मान के लिए चुनाव प्रचार किया था. एसएडी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि पंजाब में 20 फरवरी को मतदान से पांच दिन पहले, सिद्धू की एक हाईवे दुर्घटना में मौत हो गई और उनका समर्थन मान के लिए वोटों में तब्दील हो गया.
पंजाब स्थित एक वरिष्ठ आप नेता ने कहा, ‘अपने चुनाव प्रचार में सिमरनजीत सिंह मान अकसर दावा करते थे, कि सिद्धू मूसे वाला ने (उन्हें) आश्वस्त किया था कि वो संगरूर में मान की उम्मीदवारी का समर्थन करेंगे. 29 मई को मूसे वाली की हत्या ने, पंजाब में क़ानून व्यवस्था की स्थिति पर बढ़ती चिंता के बीच, निर्विवाद रूप से संगरूर उपचुनाव पर असर डाला था’.
एक पंजाबी हिप-हॉप गायक और कांग्रेस राजनेता मूसे वाला का राज्य में एक ज़बर्दस्त जनाधार था.
भारी संख्या में उनके समर्थक उनकी मौत से एक दिन पहले, उनकी निजी सुरक्षा में कटौती को लेकर पहले ही आप सरकार को दोषी ठहरा रहे थे. बाद में, मूसे वाला की हत्या को एक ‘गिरोह प्रतिद्वंद्विता’ क़रार देने का पंजाब सरकार का रुख़ भी और उल्टा पड़ गया, जिससे मजबूर होकर आप को अपने रुख़ में एक ‘बारीक बदलाव’ करना पड़ा.
मान की पार्टी ने अपना संगरूर प्रचार पूरी तरह भावनात्मक अपील पर चलाया- जिसमें अकसर पंजाब की भलाई के लिए मान के ‘बलिदानों’, खालिस्तान मुद्दे पर पुरानी भावनाओं को फिर से उभारने, सिख क़ैदियों की रिहाई के आश्वासन, और मूसे वाली की मौत के विषय पर बात की गई. कुछ पार्टी सदस्यों ने तो मान की उम्र तक को उजागर किया, और कहा कि संसद में जाने का ये उनका आख़िरी मौक़ा हो सकता है.
रविवार को संगरूर उपचुनाव जीतने के बाद, मान ने कहा कि उनकी जीत जरनैल सिंह भिंडरांवाले की ‘शिक्षाओं’ की एक बड़ी जीत है- एक विवादास्पद धार्मिक नेता जिसकी ऑपरेशन ब्लूस्टार के दौरान मौत हो गई थी.
उन्होंने मीडिया को लोगों से कहा, ‘हमारा मज़ाक उड़ाया जाता था कि हम जीत नहीं पाएंगे. सभी पार्टियां हक्का-बक्का होंगी क्योंकि हमने बहुत समय के बाद जीत हासिल की है’.
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