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Sunday, 3 November, 2024
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चिराग, सुशील मोदी, प्रधान, आरसीपी पर लगाए शाह-नड्डा के दांव ने बिहार में BJP को सत्ता से बाहर किया

भाजपा को नीतीश कुमार के साथ मामले सुलझाने में अरुण जेटली की कमी काफी ज्यादा खली है, खासकर जब वह बिहार में संगठन मजबूत करने और विस्तार की कोशिशों में जुटी थी.

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नई दिल्ली: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मंगलवार को अपने सहयोगी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का साथ छोड़ दिया, लेकिन वो तो भाजपा ही थी जिसने करीब 20 महीने पहले—11 नवंबर 2020 को—यानी विधानसभा चुनाव नतीजे आने के एक दिन बाद इसके लिए जमीन तैयार कर दी थी.

बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद जनता का ‘थैंक यू’ जताने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रमुख नेताओं का पूरा अमला उस शाम दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में जुटा.

समारोहों की भव्यता चुनावी सफलता के अनुपात में कुछ ज्यादा ही लग रही थी. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) बमुश्किल बहुमत हासिल कर पाया था—243 सदस्यीय विधानसभा में 125 सीटें, और नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) को बड़ा झटका लगा था, जो 2015 के चुनावों में 71 सीटों की तुलना में केवल 43 सीटें ही जीत पाई थी.

उन्हें आगे चलकर जीतन राम मांझी और मुकेश साहनी की पार्टियों जैसे छोटे सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार चलानी थी जिन्हें चार-चार सीटें ही मिली थीं, और इनमें से किसी के भी बाहर होने पर सरकार के अल्पमत में आने का खतरा था. इसके अलावा, मुख्यमंत्री भी भाजपा का नहीं बनने वाला था.

फिर, आखिर यह भव्य समारोह क्यों हो रहा था? इसके संदेश से नीतीश कुमार भी अनभिज्ञ नहीं थे. बताया जाता है कि इधर दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में भव्य समारोह हो रहा था और उधर पटना में उदासी छाई थी. जाहिर तौर पर 74 सीटें जीतने के बाद भाजपा, जो 2015 की तुलना में 21 ज्यादा थीं—जदयू के साथ 2005 में सरकार बनाने के बाद से पहली बार गठबंधन में खुद ‘बड़े भाई’ की भूमिका में आ जाने का जश्न मना रही थी.

जदयू नेताओं ने दिप्रिंट को बताया कि जिस तरह भाजपा ने जदयू का प्रदर्शन ‘बिगाड़ने’ की ‘साजिश’ रची, उससे नीतीश कुमार बुरी तरह आहत थे. हालांकि, भाजपा ने तो पुरजोर खंडन किया, लेकिन नीतीश कुमार की नजर में लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) चिराग पासवान पीएम मोदी के ‘हनुमान’ थे जिन्हें जदयू का घर ढहाने के लिए भेजा गया था.

चिराग की लोजपा ने सिर्फ एक ही सीट जीती, लेकिन 25 सीटों पर जदयू उम्मीदवारों को हराने में उनकी पार्टी की अहम भूमिका रही. उन्होंने भाजपा के खिलाफ अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे.

इसमें कोई अचरज नहीं कि राजनीतिक हलकों में मजाकिया तौर पर कहा जा रहा था कि भाजपा मुख्यालय में ‘धन्यवाद-चिराग’ कार्यक्रम का आयोजन चल रहा था.

हनुमान के राम को संदेह का लाभ मिलने की जो थोड़ी-बहुत गुंजाइश थी भी, वो तो भाजपा के भव्य समारोहों के साथ खत्म हो गई, क्योंकि यह एक संकेत था कि बिहार में नीतीश कुमार के चेहरे और सियासी कद को पहुंचे नुकसान से भाजपा खुश है.

हालांकि, नीतीश कुमार ने बाद में चिराग के साथ मामला बराबर कर लिया और लोजपा और पासवान परिवार को विभाजित करने में उनकी अहम भूमिका रही. लेकिन चुनाव के बाद भाजपा से इस तरह बदला लेने में नीतीश को 16 महीने लग गए. नीतीश कुमार के खिलाफ चिराग पासवान को खड़ा करना एक ऐसा सियासी दांव था जिसने 2020 के चुनाव में तो भाजपा को फायदा पहुंचाया लेकिन आगे चलकर उसके लिए नुकसानदेह ही साबित हुआ.


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सियासी दांव या गलती

नीतीश कुमार को घेरने की अपनी रणनीति जारी रखते हुए ही भाजपा ने सुशील कुमार मोदी को राज्य से बाहर लाने का फैसला किया, जो 2005 के बाद से नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान उनके डिप्टी थे. दोनों के बीच परस्पर तालमेल काफी अच्छा था और दोनों ही सहयोगी दलों के बीच एक सहज संबंध सुनिश्चित करके आराम से सरकार चलाते रहे थे.

सुशील मोदी को नीतीश के नए मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया और उनकी जगह अपेक्षाकृत छोटा सियासी कद रखने वाले दो नेताओं दो डिप्टी सीएम बनाया गया. सुशील मोदी को राज्यसभा लाया गया, लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया. भाजपा के इस कदम को नीतीश कुमार के साथ उनकी निकटता की सजा के तौर पर देखा गया.

बिहार में भाजपा आलाकमान ने जो तीसरा दांव खेला या फिर सियासी गलती की, वो पार्टी की तरफ से केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को नीतीश के साथ वार्ताकार बनाना था, जो भूमिका तीन साल पहले अपने निधन तक अरुण जेटली निभाया करते थे.

नीतीश कुमार के करीबी जदयू नेताओं का मानना है कि प्रधान इस भूमिका के लिए कभी उपयुक्त विकल्प नहीं थे, भले ही वह शाह के कितने भी विश्वस्त सहयोगी क्यों न हों. प्रधान मई में पटना में नीतीश कुमार से मिले, लेकिन भाजपा नेताओं की तरफ से उनकी सरकार पर लगातार कटाक्ष किए जाने को लेकर मुख्यमंत्री की चिंताएं दूर करने में नाकाम रहे.

विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा सहित कई भाजपा नेताओं के साथ नीतीश कुमार की तनातनी जारी रही. ऐसे में नीतीश कुमार के साथ रिश्ते सुलझाने से भाजपा को अरुण जेटली की कमी काफी ज्यादा खली, खासकर जब बिहार में संगठन की मजबूती और विस्तार की कोशिशें कर रही थी. दोनों सहयोगियों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा था और दोनों के बीच, खासकर नीतीश कुमार की आशंकाओं और चिंताओं को दूर करने वाला कोई नहीं था.

जदयू नेताओं का कहना है कि इस सारी तनातनी के बीच नीतीश कुमार का यह संदेह कि भाजपा उनके पूर्व विश्वस्त सहयोगी आरसीपी सिंह को उनके खिलाफ इस्तेमाल कर रही, इस रिश्ते में आखिरी कील साबित हुआ. जदयू के एक मंत्री ने दिप्रिंट को बताया कि मुख्यमंत्री के पास यह मानने के ‘पर्याप्त कारण’ थे कि भाजपा एक अन्य कुर्मी नेता आरसीपी सिंह का इस्तेमाल जदयू के खिलाफ उसी तरह कर रही है जिस तरह से उसने महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे को शिवसेना के खिलाफ इस्तेमाल किया. उन्होंने कहा, ‘आप जल्द ही इसके सबूत देखेंगे.’

इसमें कोई दो-राय नहीं कि भाजपा आलाकमान का वो फैसला नीतीश कुमार को और ज्यादा आगाह करने वाला था जिसके तहत पार्टी ने 28-29 जुलाई को सभी विधानसभा क्षेत्रों में अपने नेताओं का ‘प्रवास’ कार्यक्रम रखा, जिसमें जदयू के कब्जे वाली सीटें भी शामिल थीं.

यह कदम नीतीश कुमार को इस बात के लिए उकसाने के लिए काफी था कि अब वे भाजपा का मुकाबला करके दिखाएं. पार्टी ने ऐसा क्यों किया था इसका जवाब तो शायद अमित शाह और जेपी नड्डा ही जानते होंगे.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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