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Thursday, 19 December, 2024
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सौराष्ट्र, पाटीदार और ‘जमींदार’- गुजरात में BJP नेता रूपाला के खिलाफ राजपूतों के गुस्से की क्या है वजह

केंद्रीय मंत्री रूपाला की टिप्पणियों के बाद राजपूत-पाटीदार प्रतिद्वंदिता फिर से एक बार सबके सामने आ गई है, जिससे सौराष्ट्र के पारंपरिक गढ़ में भाजपा के जीत की संभावनाएं खतरे में पड़ गई हैं.

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नई दिल्ली: गुजरात के राजकोट से लगभग 15 किलोमीटर दूर, रतनपार में, क्षत्रिय समुदाय के 1 लाख से अधिक सदस्य रविवार को एक ‘महासम्मेलन’ के लिए एकत्र हुए. यह राज्य में इस तरह की दूसरी सभा थी और इसका कारण केंद्रीय मंत्री परषोत्तम रूपाला थे, जो राजकोट लोकसभा क्षेत्र से भाजपा के उम्मीदवार हैं.

19 अप्रैल की समय सीमा जारी करते हुए, राजपूत समुदाय के नेताओं ने भाजपा के राजकोट उम्मीदवार के रूप में रूपाला की उम्मीदवारी रद्द करने की मांग दोहराई.

पिछले दो सप्ताह से अधिक समय से गुजरात का सौराष्ट्र क्षेत्र राजपूतों के गुस्से का केंद्र रहा है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को राज्य की बड़ी राजपूत आबादी के विरोध का सामना करना पड़ा है. क्षत्रियों के बारे में रूपाला की विवादास्पद टिप्पणियों से समुदाय के सदस्यों में भारी आक्रोश फैल गया, जिनके अंदर विश्लेषकों के मुताबिक पिछले कुछ समय से भाजपा के भीतर उन्हें दरकिनार किए जाने के आरोपों के कारण गुस्सा था.

रूपाला के बार-बार माफ़ी मांगने के बावजूद, गुस्सा कम होने का कोई संकेत नहीं दिख रहा है.

22 मार्च को पाटीदार नेता रुपाला ने एक भाषण के दौरान दावा किया कि “महाराजाओं (तत्कालीन रियासतों के शासकों) ने अंग्रेजों के साथ संबंध जोड़ लिए और अपनी बेटियों की शादी भी उनसे कर दी”. इस टिप्पणी को लेकर सौराष्ट्र के पूर्व शाही और कुलीन वंशों के वंशज होने का दावा करने वाले कई क्षत्रिय समूहों ने प्रतिक्रिया दी.

क्षत्रिय या राजपूतों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले संगठन करणी सेना के राष्ट्रीय संयोजक महिपाल सिंह मकराना ने दिप्रिंट को बताया, “एक मुट्ठी बाजरे के लिए, दिल्ली की सल्तनत खोना समझदारी नहीं होगी.”

मकराना उस दिन बोल रहे थे जब समूह के राष्ट्रीय अध्यक्ष राज शेखावत को अहमदाबाद हवाई अड्डे के बाहर पुलिस ने हिरासत में लिया था. दरअसल द्वारा रूपाला को राजकोट के उम्मीदवार के रूप में हटाने से मना करने के बीजेपी के फैसले के बाद शेखावत गांधीनगर में बीजेपी हेडक्वार्टरका घेराव करने वाले थे. मकराना ने सभी राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन की भी धमकी दी.

रूपाला ने 22 मार्च के बाद से कई बार माफ़ी मांगी है, एक बार हाथ जोड़कर भी माफ़ी मांगी है, लेकिन विरोध प्रदर्शन ने क्षत्रियों के बीच एक बार फिर से असंतोष को जन्म दे दिया है और सौराष्ट्र में सदियों पुरानी राजपूत-पाटीदार प्रतिद्वंद्विता को फिर से सुर्खियों में ला दिया है.

गुजरात में बीजेपी नेतृत्व और क्षत्रिय नेताओं के बीच कई बैठकें हो चुकी हैं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. समुदाय रूपाला की उम्मीदवारी वापस लेने से कम किसी भी चीज़ पर समझौता करने को तैयार नहीं है.

रूपाला के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने वालों में से एक और राज्य भर में 90 संगठनों का एक संघ गुजरात क्षत्रिय संकलन समिति के प्रवक्ता करणसिंह चावड़ा ने कहा, “रूपाला की माफ़ी अहंकार से भरी है, उन्होंने केवल राजनीतिक लाभ के लिए माफ़ी मांगी है. उनके हटने तक तक हम एक कदम भी पीछे नहीं हटेंगे.’ उनका बयान महिलाओं का अपमान है.”

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ”आंदोलन न केवल गुजरात में, बल्कि भारत के सभी राज्यों में जंगल की आग की तरह फैल जाएगा और बीजेपी को अपनी चपेट में ले लेगा.”

लेकिन ऐसा लगता है कि बीजेपी ने इस तूफ़ान का सामना करने का फैसला कर लिया है. गुजरात बीजेपी के प्रवक्ता यमल व्यास ने कहा, “चाहे राजकोट हो या कोई अन्य सीट, भारत के लोग पीएम मोदी के साथ हैं.” उन्होंने कहा कि केवल पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति ही उम्मीदवारों पर फैसला कर सकती है.

11 जिलों में 66,000 वर्ग किमी में फैला सौराष्ट्र गुजरात राज्य का लगभग एक तिहाई हिस्सा है और राज्य विधान सभा में इस क्षेत्र से 48 विधायक आते हैं. गुजरात की कुल आबादी (6.9 करोड़) में पाटीदार 1.5 करोड़ हैं, जबकि 2011 की जाति जनगणना के अनुसार, राजपूत 5-6 प्रतिशत हैं.

चुनाव प्रचार जोर पकड़ चुका है, और राज्य में 7 मई को एक ही चरण में मतदान होना है, ऐसे में ये विरोध प्रदर्शन भाजपा के लिए उसके ‘गढ़’ के रूप में माने जाने वाले क्षेत्र में एक नई चुनौती पैदा करते हैं, इसके अलावा उसके राजनीतिक विरोधियों के हाथों में इस घटना ने एक हथियार भी मुहैया करा दिया है.

गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष शक्तिसिंह गोहिल ने दिप्रिंट को बताया, “यह भाजपा और उसके नेताओं का अहंकार है. रूपाला की टिप्पणी न केवल राजपूतों बल्कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों और अन्य लोगों का भी अपमान है. यह महिलाओं का अपमान है.”

कांग्रेस ने एक ‘कड़वा पटेल’ रूपाला के सामने एक ‘लेउवा पटेल’ परेश धनाणी को उतारा है.


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पाटीदार में रूपाला की अच्छी पैठ

रूपाला, जो 1988 और 1991 के बीच भाजपा के अमरेली जिला अध्यक्ष थे, ने 1991 में अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ा और जिले से विधायक चुने गए.

2002 में झटका लगने तक उन्होंने लगातार दो बार जीत हासिल की. रूपाला, जो तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में कृषि मंत्री थे, कांग्रेस के 26 वर्षीय परेश धनाणी से हार गए थे. 16 वर्षों में यह पहली बार था जब भाजपा अमरेली में हार गई थी.

इसके बाद रूपाला गुजरात भाजपा के अध्यक्ष बने, उसके बाद 2008 से 2014 तक राज्यसभा सदस्य रहे और जून 2016 में, वह फिर से उच्च सदन के लिए चुने गए. इस बार वह निर्विरोध चुने गए क्योंकि कांग्रेस ने कोई उम्मीदवार नहीं उतारा था.

जुलाई 2016 में, उन्हें केंद्रीय पंचायती राज राज्य मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया और 2019 में, उन्हें केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण राज्य मंत्री बनाया गया.

वह 2020 के अंत और 2021 की शुरुआत में वापस लिए गए कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन के दौरान केंद्र सरकार और प्रदर्शनकारी किसानों के बीच बातचीत की मध्यस्थता की.

69 वर्षीय रुपाला, जो इस वक्त केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्री हैं, पहली बार सौराष्ट्र के केंद्र राजकोट से चुनाव लड़ने जा रहे हैं. राजकोट, गुजरात का चौथा सबसे बड़ा शहर है जिस पर किसी न किसी पाटीदार नेता का ही कब्जा रहा है भले ही वह किसी भी पार्टी का रहा हो.

सौराष्ट्र, पाटीदार और ‘ज़मींदार’

भारत की आजादी के छह महीने बाद, काठियावाड़ की लगभग 200 रियासतों के शासक – जिनमें से कई राजपूत थे, इसके अलावा कुछ मुस्लिम, ब्राह्मण और अन्य भी थे – बहुत समझाने के बाद, काठियावाड़ के केंद्रीय राज्य के गठन पर सहमत हुए, जिसका उद्घाटन सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा फरवरी 1948 में किया गया.

नौ महीने बाद, इसका नाम बदलकर ‘सौराष्ट्र राज्य’ कर दिया गया, जिसकी राजधानी राजकोट थी.

लेखक और राजनीतिक समाजशास्त्री घनश्याम शाह ने कहा, “आज जो हो रहा है, वह अतीत का खुमार है.” उन्होंने आगे कहा, “राजपूत बनाम पाटीदार प्रतिद्वंद्विता तब शुरू हुई जब 1950 के दशक की शुरुआत में सौराष्ट्र का आर्थिक विकास शुरू हुआ.”

यू.एन. ढेबर, जो बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने, 1948 से 1954 तक सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने. 1951 में, ढेबर के नेतृत्व वाली सरकार ने ‘जमींदारी प्रथा’ से छुटकारा पाने के लिए ‘सौराष्ट्र भूमि सुधार अधियनियम’ और ‘सौराष्ट्र संपदा अधिग्रहण अधिनियम 1952’ लागू किया. इनका उद्देश्य भूमि जोतने वालों को मालिकाना का अधिकार देना था, जिनमें से अधिकांश कन्बी/पाटीदार समुदाय से थे.

घनश्याम शाह ने बताया, “अब पाटीदार समुदाय जमीन जोतने वालों से मालिक बन गया. सौराष्ट्र का आर्थिक विकास 1950 के दशक की शुरुआत में शुरू हुआ और राजपूत समुदाय को उपेक्षित महसूस हुआ,”

1956 में सौराष्ट्र को तत्कालीन बॉम्बे के साथ एकीकृत किया गया और फिर 1960 में यह गुजरात का हिस्सा बन गया.

पिछले कुछ वर्षों में पाटीदारों की बढ़ती सामाजिक और आर्थिक उन्नति के साथ-साथ उनकी लामबंदी भी बढ़ी है जिसकी वजह से राजनीति में उनका दबदबा भी बढ़ता गया है.

महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अमित ढोलकिया ने बताया कि, “राजपूतों में लंबे समय से असंतोष रहा है कि उन्हें सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक संगठनों में महत्वपूर्ण पद नहीं दिए गए हैं.”

पाटीदार-राजपूत प्रतिद्वंद्विता सौराष्ट्र की रगों में गहरी है. भावनगर का मनगढ़ गांव 1980 के दशक की शुरुआत में इस जातीय प्रतिद्वंद्विता का केंद्र बन गया.

1982 में तीन राजपूतों की हत्या और उसके बाद मामले में 20 पाटीदार सदस्यों के बरी होने से दोनों समुदाय के बीच यह दरार और चौड़ी हो गई.

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, दो साल बाद, पाटीदार समुदाय के 10 लोगों की हत्या कर दी गई, जिसे राजपूत समुदाय ने बदले के रूप में देखा.

यह लगभग वही समय था, जब माधव सिंह सोलंकी स्वतंत्र पार्टी का मुकाबला करने के लिए गुजरात में “KHAM” (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) फॉर्मूला तैयार कर रहे थे. उनकी यह रणनीति कांग्रेस के लिए रंग लाई, जिससे 1985 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को 185 में से 149 सीटों पर जीत मिली, जो कि रिकॉर्ड था, जो आकर 2022 में टूटा.

लेकिन, उनकी सरकार द्वारा आरक्षण नीति में बदलाव का राज्य भर में हिंसक तरीके से विरोध प्रदर्शन हुआ. कालांतर में इसकी वजह से पाटीदारों के साथ-साथ उच्च जातियां भी कांग्रेस की तरफ से खिसकने लगीं.

प्रोफेसर ढोलकिया ने प्रकाश डाला,“कांग्रेस को क्षत्रिय-समर्थक पार्टी के रूप में देखा जाता था, लेकिन वह इसका फायदा नहीं उठा पाई. राज्य में कांग्रेस में भी कोई राजपूत नेतृत्व नहीं है, अभी भी नहीं है.”

इस बीच, राजपूत-पाटीदार प्रतिद्वंद्विता इस क्षेत्र में हत्याओं और झड़पों के रूप में फिर से सामने आती रही.

15 अगस्त 1988 को, गोंडल से कांग्रेस के पाटीदार विधायक पोपटलाल सोराठिया की एक राजपूत अनिरुद्धसिंह जड़ेजा ने सार्वजनिक रूप से सबके सामने गोली मारकर हत्या कर दी.

राजपूत प्रतिनिधित्व और भाजपा

प्रदर्शनकारी क्षत्रिय समूहों के अनुसार, उनकी लड़ाई पाटीदार समुदाय के खिलाफ नहीं है, बल्कि रूपाला की टिप्पणी और “भाजपा व सरकार में राजपूतों के सिस्टमेटिक बहिष्कार” के खिलाफ है.

“हम भाजपा के साथ थे, हमने पार्टी की नींव मजबूत बनाई. लेकिन उन्होंने न केवल गुजरात में बल्कि पूरे भारत में हमारा प्रतिनिधित्व कम कर दिया. करणी सेना के मकराना ने कहा, हमारी लड़ाई जारी रहेगी.

बलवंतसिंह राजपूत गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल की कैबिनेट में एकमात्र क्षत्रिय मंत्री हैं.

सौराष्ट्र में, पाटीदार आरक्षण आंदोलन के कारण 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन तब से 85 प्रतिशत से अधिक सीटों पर पाटीदार उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर और 2022 में उनमें से 39 सीटों पर जीत हासिल करके उसने फिर से अपना प्रभाव जमा लिया है.

चूंकि पार्टी क्षत्रिय समुदाय के गुस्से का सामना कर रही है, इसके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इस गुस्से का सहारा लेकर बीजेपी को नुकसाना पहुंचाना चाहते हैं. गुजरात कांग्रेस प्रमुख शक्तिसिंह गोहिल ने घोषणा की, “हमारी रणनीति सही है, गुजरात भाजपा को करारा जवाब देगा.”

इस बीच, पिछले कुछ दिनों में सत्तारूढ़ दल के विधायकों को कम से कम चार गांवों में जाने की अनुमति नहीं दिए जाने की खबरें सामने आई हैं. इसके अलावा, क्षत्रिय समुदाय के नेताओं और भाजपा के बीच बातचीत और रूपाला के साथ-साथ गुजरात भाजपा प्रमुख सी.आर. पाटिल की माफी का अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है – जिससे सौराष्ट्र में भाजपा के लिए मुकाबला और कठिन हो गया है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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