लखनऊ: पिछले हफ्ते ललितेश पति त्रिपाठी की विदाई के साथ ही, ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण चेहरों को पेश करने के मामले में, कांग्रेस पार्टी अब अपनी अंतिम सीमा पर आ गई है.
पिछले पांच वर्षों में, कई प्रभावशाली ब्राह्मण नेता जिनमें रीता बहुगुणा जोशी, जितिन प्रसाद, और स्वर्गीय एनडी तिवारी शामिल थे, ये कहते हुए पार्टी से बाहर हो गए, कि उनके समर्थकों की अनदेखी की जा रही है. बल्कि प्रसाद का बीजेपी में जाना उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ है, क्योंकि रविवार को हुए मंत्रिमंडल विस्तार में, सीएम योगी आदित्यनाथ ने उन्हें कैबिनेट मंत्री के तौर पर शामिल कर लिया.
त्रिपाठी एक ऐसे परिवार के वंशज हैं, जो 100 से अधिक वर्षों से कांग्रेस से जुड़ा रहा है. उन्होंने भी अपने कांग्रेस छोड़ने के पीछे, उपेक्षा को ही कारण बताया.
बृहस्पतिवार को उन्होंने कहा, ‘जब समर्पित पार्टी कार्यकर्त्ता जो कठिन समय में पार्टी के साथ खड़े रहे, दरकिनार किए जा रहे हों तो फिर ऐसे में, पार्टी में बने रहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता’. उन्होंने आगे कहा कि साझा इतिहास की वजह से, ये एक कठिन फैसला था.
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त्रिपाठी परिवार
चौथी पीढ़ी के कांग्रेस सदस्य ललितेश, पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री और उत्तर प्रदेश सीएम कमलापति त्रिपाठी के पड़पोते हैं.
कमलापति के सबसे बड़े पुत्र लोक पति त्रिपाठी भी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री थे. लोक पति के बेटे राजेश पति भी यूपी में एमएलसी थे. बाद में राजेश के बेटे ललितेश 2012 में, कांग्रेस के टिकट पर मिर्ज़ापुर से विधायक बने.
त्रिपाठी परिवार के नेहरू-गांधी परिवार से अच्छे संबंध रहे हैं.
इलाहबाद यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डॉ पंकज कुमार ने कहा, ‘त्रिपाठी परिवार नेहरू-गांधी खानदान के सबसे क़रीब था. 1970 के दशक में, जब भी श्रीमती (इंदिरा) गांधी यूपी आती थीं, ये कमलापति त्रिपाठी ही थे जो उनकी बग़ल में बैठते थे. कमलापति की मौत के बाद भी, परिवार का गांधी परिवार से ऐसा ही रिश्ता बना रहा’.
कुमार ने आगे कहा, ‘त्रिपाठी परिवार के क़रीबी लोग कहते हैं, कि अभी भी उनकी गांधी परिवार तक सीधी पहुंच है. अब उनका (ललितेश) का जाना पूर्वी यूपी में कांग्रेस के लिए निश्चित रूप से एक झटका है’.
त्रिपाठी परिवार के एक क़रीबी सूत्र ने कहा, कि गांधी परिवार से उनकी घनिष्ठता के कारण, कांग्रेस के नेताओं के लिए विश्वास करना मुश्किल हो रहा है, कि ललितेश ने पार्टी छोड़ दी है.
सूत्र ने कहा, ‘इस परिवार के अभी भी गांधी परिवार से बहुत अच्छे रिश्ते हैं. राजेश पति और ललितेश दोनों की उन तक सीधी पहुंच है…यही वजह है कि पार्टी में किसी को यक़ीन नहीं हो रहा है, कि ये परिवार पार्टी छोड़ सकता है’.
प्रसाद परिवार
इसी साल, यूपी कांग्रेस का एक और ब्राह्मण चेहरा- जितिन प्रसाद पार्टी छोड़कर बीजेपी में चले गए, और अब योगी आदित्यनाथ ने उन्हें बतौर कैबिनेट मंत्री अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया है. बीजेपी उन्हें विधान परिषद में चुनवाने जा रही है.
पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन, कभी राहुल गांधी के क़रीबी सहयोगी हुआ करते थे.
उनके पिता जितिन प्रसाद एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता थे, जिन्होंने 2000 में सोनिया गांधी के खिलाफ पार्टी अध्यक्ष का चुनाव लड़ा था. वो दो पूर्व प्रधानमंत्रियों- राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव के राजनीतिक सचिव भी थे. 1995 में वो यूपीसीसी के अध्यक्ष भी थे. जितेंद्र के पिता ज्योति प्रसाद भी एक कांग्रेस एमएलसी थे.
कांग्रेस के एक उच्च-पदस्थ सूत्र ने दिप्रिंट को बताया, कि पार्टी अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी को चुनौते देने के जितेंद्र प्रसाद के फैसले ने, उनके रिश्तों को प्रभावित किया था.
सूत्र ने कहा, ‘जितेंद्र प्रसाद के राजीव गांधी के साथ अच्छे रिश्ते थे, लेकिन उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा, जिससे वो रिश्ते ख़राब हो गए. लेकिन उनकी मौत के बाद कांग्रेस आलाकमान ने उनकी पत्नी को एक टिकट दिया, लेकिन दुर्भाग्यवश वो उप-चुनाव हार गईं’.
उन्होंने आगे कहा, ‘2004 में जितिन प्रसाद को टिकट मिला, और वो चुनाव जीत गए. 2008 में, यूपीए-1 के दौरान उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया गया. यूपीए 2 में उन्हें फिर मंत्री बनाया गया. लेकिन 2014 से 2019 के बीच, वो लगातार तीन चुनाव हार गए. यूपी कांग्रेस प्रमुख बनने के संभावितों में उनका भी नाम था, लेकिन पार्टी ने उनका चयन नहीं किया’.
इस सूत्र ने आगे कहा कि जीतिन प्रसाद की विदाई का कारण ‘टीम प्रियंका’ थी. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वादरा के सहयोगी, जो यूपी में उनकी गतिविधियों को देखते हैं, लगातार उन्हें किनारे कर रहे थे.
प्रसाद भी उन तथाकथित जी-23 में शामिल थे, 23 नेताओं का समूह जिसने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर, ज़्यादा जवाबदेही की मांग की थी, और 2019 के लोकसभा चुनावों में हार के बाद, पार्टी के ओवरहाल के लिए दबाव बनाया था.
सूत्र ने कहा, ‘जी 23 में जब जितिन का नाम आया, तो लखीमपुर खेरी में उन्हें निकालने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया. इससे जितिन को बहुत दुख पहुंचा’.
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बहुगुणा परिवार
रीता बहुगुणा जोशी ने, जो फिलहाल एक बीजेपी सांसद हैं, 2016 में कांग्रेस छोड़ दी थी. 2007 और 2012 के बीच वो यूपीसीसी प्रमुख रहीं थीं.
रीता हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी हैं, अब उत्तराखंड कहे जाने वाले पर्वतीय क्षेत्र के नेता, जो 1973 से 1975 के बीच अविभाजित यूपी के सीएम रहे थे. 1977 में, जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी हटाकर लोकसभा के ताज़ा चुनावों का ऐसान किया, तो बहुगुणा ने कांग्रेस छोड़ दी, और बाबू जगजीवन राम तथा नंदिनी सतपथी के साथ मिलकर, कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी (सीएफडी) नाम से एक नई पार्टी गठित कर ली. 1984 में उन्होंने भारतीय लोकदल के टिकट पर, कांग्रेस उम्मीदवार अमिताभ बच्चन के खिलाफ चुनाव लड़ा लेकिन हार गए.
हेमवती नंदन के बेटे विजय बहुगुणा 2012 से 2014 तक उत्तराखंड सीएम रहे. वो टिहरी गढ़वाल से दो बार सांसद भी रहे. 2016 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी, और बाद में उसी साल रीता भी कांग्रेस से बाहर आ गईं. अब दोनों बीजेपी में हैं.
बहुगुणा परिवार के एक क़रीबी सूत्र ने कहा, ‘रीता और विजय दोनों नाराज़ थे, क्योंकि उनकी निरंतर उपेक्षा की जा रही थी’.
एनडी तिवारी की विदाई
पहाड़ के एक और क़द्दावर नेता नारायण दत्त तिवारी, जो तीन बार यूपी और एक मरतबा उत्तराखंड के सीएम रहे, 2017 असेम्बली चुनावों से पहले बीजेपी में शामिल हो गए. तिवारी एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता थे, जो आंध्र प्रदेश के राज्यपाल भी रहे थे.
उनके बेटे रोहित शेखर को अखिलेश यादव के समाजवादी पार्टी शासन में, यूपी परिवहन विभाग का सलाहकार नियुक्त किया गया. लेकिन, 2017 के यूपी चुनावों से कुछ पहले ही, तिवारी, उनकी पत्नी और बेटा, बीजेपी में शामिल हो गए.
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ब्राह्मण विदाई पर क्या कहते हैं कांग्रेस नेता
दिप्रिंट से बात करने वाले कई यूपी कांग्रेस नेताओं और विश्लेषकों का कहना था, कि पार्टी के अपना फोकस बदलकर ओबीसी तबक़े के पीछे जाने, और वंशवाद पर निर्भर होने की वजह से उसका पतन हुआ है.
यूपी कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘एक समय था जब इन परिवारों की वजह से, पूरे सूबे में कांग्रेस की ब्राह्मण वोटों पर पकड़ थी. ब्राह्मणों के लिए कांग्रेस पहली पसंद थी, लेकिन अब हमारे अधिकतर ब्राह्मण नेता पार्टी छोड़ गए हैं. ब्राह्मण नेताओं के नाम पर हमारे पास केवल प्रमोद तिवारी, (उनकी बेटी) आराधना मिश्रा और राजेश मिश्रा बचे हैं. हालांकि उनकी पकड़ सिर्फ उनके चुनाव क्षेत्रों में है, लेकिन उन्हें पूरी यूपी के नेताओं के तौर पर आगे बढ़ाया जाता है’.
नेता ने आगे कहा, ‘अगर उन्होंने (कांग्रेस आला कमान) जितिन प्रसाद या ललितेश को पीसीसी अध्यक्ष या सीएम चेहरा बनाया होता, तो उन्होंने इस्तीफा न दिया होता. लेकिन पार्टी का ज़्यादा ज़ोर ओबीसी मतदाताओं को लुभाने पर है, जिनपर पहले ही एसपी और बीजेपी की पकड़ है’.
एक अन्य पार्टी नेता ने कहा, ‘आलाकमान यूपी में अपने पत्ते बदलता रहता है. पिछले 10 वर्षों में उन्होंने इतने प्रयोग किए हैं, लेकिन कोई काम नहीं आया है. मसलन, अगर हम अपने तीन पिछले यूपीसीसी अध्यक्ष देखें- निर्मल खत्री, राज बब्बर और अजय कुमार लल्लू- तो बहुत कम लोग उनकी जाति से वाक़िफ होंगे. यूपी में जाति की हमेशा अहमियत होती है’.
दूसरे नेता ने आगे कहा, ‘रीता बहुगुणा के जाने के बाद, पार्टी ने ब्राह्मणों पर ध्यान देना बंद कर दिया. इसी वजह से ब्राह्मण पूरी तरह से बीजेपी की ओर चले गए. अब अधिकांश पुराने कांग्रेसी परिवार पार्टी छोड़ रहे हैं. ये बहुत निराशाजनक है’.
लेकिन, लखनऊ यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर एसके द्विवेदी का कहना था, कि यूपी में कांग्रेस पिछले तीन दशकों में इसलिए कमज़ोर हुई है, कि वो वंशवाद पर निर्भर रही, और उसने नए नेतृत्व को मौक़ा नहीं दिया.
उन्होंने कहा, ‘अगर उन्होंने ग़ैर-वंशवादी नेताओं में ज़्यादा निवेश किया होता, तो शायद स्थिति कुछ अलग हो सकती थी. अब बहुत देर हो चुकी है. अगर उन्हें फिर से जीवित होना है, तो राज्य में नए नेताओं को उभारना चाहिए’.
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