लखनऊ/कानपुर/दिल्ली: साल 2000 के राज्यसभा चुनाव के दौरान एक राजनीतिक दांव ने सबका ध्यान खींचा. कांग्रेस से अलग होकर बनी अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश से एक अप्रत्याशित उम्मीदवार उतारा—दिल्ली के एक पत्रकार राजीव शुक्ला.
उनके पास सिर्फ 22 विधायकों का समर्थन था, जबकि जीत के लिए कम से कम 36 वोट चाहिए थे. राजनीतिक गलियारों में शक की बातें होने लगीं, लेकिन जब नतीजे आए तो शुक्ला ने सबको चौंका दिया—उन्हें 51 वोट मिले.
बाद में उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं ने माना कि कई पार्टियों के विधायकों ने लाइन पार कर शुक्ला को वोट दिया था.
यह चुनाव उनके लिए एक निर्णायक पल था, जिसने दिखाया कि वे राजनीतिक सीमाओं के पार जाकर रिश्ते बनाने और प्रभाव कायम करने में कितने माहिर हैं. यहीं से उन्होंने एक ऐसे ताकतवर खिलाड़ी की भूमिका निभानी शुरू की, जो राजनीति, क्रिकेट, मीडिया और कॉर्पोरेट की दुनिया में समान सहजता से चलता है.

अब 65 की उम्र में वे बीसीसीआई (भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड) के अंतरिम अध्यक्ष बनने वाले हैं क्योंकि मौजूदा अध्यक्ष रोजर बिन्नी का कार्यकाल खत्म हो रहा है. फिलहाल शुक्ला बीसीसीआई के उपाध्यक्ष हैं.
दिप्रिंट से बात करते हुए उन्होंने याद किया कि करियर के शुरुआती दिनों में उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वे राजनीति में आएंगे, लेकिन “किसी तरह ये हो गया.”
परदे के पीछे काम करने वाले से लेकर पार्टी के मुख्य चेहरों में शामिल होने तक, राजीव शुक्ला की कहानी सही समय, नरम ताकत और रणनीतिक नेटवर्किंग की है—राजनीति, क्रिकेट और उससे आगे भी. वे अक्सर सही समय पर कैमरे में कैद हो जाते हैं, और इसी कारण वे लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं. ग्लैमर, ताकत और खेल जगत के सितारों के साथ उनकी मुलाकातें अक्सर मीम का हिस्सा बन जाती हैं.
बीसीसीआई में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुखर आवाज और पूर्व क्रिकेटर व सांसद कीर्ति आजाद ने एक बार शुक्ला की भूमिका को “टमाटर” बताया था.
राजीव शुक्ला का जन्म कानपुर जिले के दर्शन पुरवा इलाके में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था. उनके पिता राम कुमार शुक्ला वकील थे, और उनके नक्शे कदम पर चलते हुए राजीव ने भी कानपुर के वीएस सनातन धर्म कॉलेज से कानून की पढ़ाई की. बाद में उन्होंने क्राइस्ट चर्च कॉलेज से अर्थशास्त्र में मास्टर्स किया.
उनके बड़े भाई दिलीप शुक्ला भी कानपुर में पत्रकार हैं.
राजनीतिक ताकत और पहचान हासिल करने से पहले, राजीव शुक्ला ने 1977 में अपने गृहनगर कानपुर में एक छोटे शाम के टैब्लॉइड ‘सत्य संवाद’ से रिपोर्टर के तौर पर करियर शुरू किया. उस समय उनकी तनख्वाह सिर्फ 200 रुपये थी. हालांकि यह अखबार बंद हो गया, लेकिन उनकी पत्रकारिता की यात्रा तेज़ी से आगे बढ़ी. 1978 में वे नॉर्दर्न इंडिया पत्रिका में आ गए, फिर दैनिक जागरण में कानपुर और लखनऊ में काम किया और धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए.
उनकी असली तरक्की तब शुरू हुई जब वे 1980 के दशक के मध्य में दिल्ली आ गए, जहां मीडिया, राजनीति और क्रिकेट प्रशासन में उनका तेज़ उभार एक उदाहरण बन गया कि प्रभाव कैसे बनाया और बनाए रखा जाता है—सिर्फ विरासत से नहीं.
बीजेपी नेता और उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष सतीश महाना, जो खुद कानपुर से हैं, ने दिप्रिंट से कहा, “मैं शुक्ला को 1980 के दशक से जानता हूं, जब वे कानपुर में पत्रकार थे और मैं वहां युवा नेता था. तब से हमारे अच्छे संबंध रहे हैं.”
महाना ने याद किया, “हम दोनों के एक साझा मित्र थे, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली जी. मैं अक्सर संसद में शुक्ला को उनके चैंबर में देखता था. असल में, हम तीनों के बीच अच्छा रिश्ता था. शुक्ला हमेशा सभी पार्टियों में अच्छे संबंध बनाए रखते हैं.”
वरिष्ठ जेडीयू नेता के.सी. त्यागी ने कहा, “मैं शुक्ला को 1980 के शुरुआती दौर से जानता हूं. उनके भाई को भी जानता हूं, जो पेशे से पत्रकार हैं. आज भी वे मुझसे वैसा ही रिश्ता रखते हैं जैसा 40 साल पहले था. यही उनकी सफलता की वजह है.”
उन्होंने कहा, “शुक्ला प्रबंधन में माहिर हैं. वे विरोधियों से वैचारिक मतभेद रखते हैं लेकिन उन्हें दुश्मनी में नहीं बदलते. अपने राजनीतिक बयानों में भी वे व्यक्तिगत हमले नहीं करते.”
‘ABVP से जुड़ाव’, और दिल्ली आने के बाद तेज़ी से तरक्की
कानपुर में उनके कई पुराने सहयोगियों का दावा है कि कॉलेज के दिनों में शुक्ला अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के सक्रिय सदस्य थे.
वर्मा ने कहा, “मुझे अभी भी ठीक से याद नहीं कि हमारी पहली सैलरी कितनी थी, लेकिन वो कुछ सौ रुपये महीने की रही होगी. राजीव की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि जब वो किसी जगह से निकलते थे तो कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते थे. वो हमेशा पॉज़िटिव रिज़ल्ट पर फोकस करते थे. उनका करियर भी इसका उदाहरण है—वो बिना रुके तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते गए.”
हालांकि शुक्ला ने ABVP से किसी भी तरह के जुड़ाव से इनकार किया, लेकिन माना कि वर्मा उनके सीनियर सहयोगी थे और करियर की शुरुआत में उन्होंने उन्हें गाइड किया.
दिल्ली आने से पहले 1980 के दशक के मध्य में शुक्ला मेरठ में इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के हिंदी अखबार ‘जनसत्ता’ के लिए काम करते थे.
जनसत्ता में काम करते हुए, शुक्ला ने याद किया कि मेरठ में 1980 के दशक के मध्य में जब वह वेस्टर्न यूपी ब्यूरो चीफ थे, उस समय इंडियन एक्सप्रेस में सात दिन की कर्मचारियों की हड़ताल हुई थी. इस दौरान जनसत्ता के उन पत्रकारों को जो अंग्रेज़ी में दक्ष थे, इंडियन एक्सप्रेस में काम करने के लिए बुलाया गया. उसी समय उन्होंने एक द्विभाषी रिपोर्टर के तौर पर खुद को साबित किया.
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री भगवत झा आज़ाद के बेटे आज़ाद ने कहा, “जब वो पत्रकार थे, तो 1980 के दशक के आखिर में हमारे घर पापा से मिलने आते थे. मेरा परिवार उन्हें तभी से जानता है, लेकिन उन्होंने हमें न राजनीति में और न क्रिकेट प्रशासन में कभी कोई फायदा पहुंचाया.”
इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप में थोड़े समय तक काम करने के बाद, शुक्ला एबीपी ग्रुप की रविवर मैगज़ीन में स्पेशल करेस्पॉन्डेंट बन गए, जहां उन्होंने लुटियंस दिल्ली की प्रभावशाली हस्तियों से नेटवर्किंग शुरू की.
वह समय था जब वी.पी. सिंह रक्षा मंत्री थे और एक स्वीडिश रेडियो स्टेशन ने आरोप लगाया कि स्वीडिश हथियार निर्माता कंपनी एबी बोफोर्स ने भारत में 400 155 मिमी हॉवित्ज़र तोपों की सप्लाई के लिए 1,437 करोड़ रुपये के सौदे में कुछ लोगों को रिश्वत दी. बाद में, जब सिंह ने इस्तीफा दिया और बोफोर्स घोटाले को लेकर राजीव गांधी के खिलाफ मुखर हो गए, तब कांग्रेस नेताओं ने राजीव शुक्ला की स्टोरी का हवाला देकर उन पर हमला किया.
सिंह ने कोलकाता आधारित इस हिंदी वीकली द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों को खारिज कर दिया.
“इसके बाद शुक्ला राजीव गांधी के काफ़ी क़रीब आ गए,” एक पुराने सहयोगी ने बताया. उन्होंने कहा कि विदेश दौरों के दौरान राजीव गांधी से हुई मुलाकातों ने उन्हें प्रधानमंत्री से और नज़दीक कर दिया. “मुझे याद है कि 1990 के शुरुआती सालों में राजीव गांधी उनके एशियाड विलेज के पास वाले घर भी आए थे,” उस सहयोगी ने कहा. उन्होंने यह भी बताया कि 1990 के दशक तक शुक्ला रिपोर्टिंग करने के लिए स्कूटर का इस्तेमाल करते थे.
दोस्त और कारोबार
जो लोग उन्हें जानते हैं, वे कहते हैं कि शुक्ला चार अलग-अलग दुनिया — राजनीति, व्यापार, क्रिकेट और मनोरंजन — में सहजता से चलते हैं. लेकिन वे सिर्फ इन क्षेत्रों में मौजूद नहीं हैं, बल्कि इन्हें जोड़ते भी हैं.
2004 में जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लाया, शुक्ला ने दिल्ली के महादेव ऑडिटोरियम में खास फिल्म स्क्रीनिंग आयोजित की, जिसमें शाहरुख खान की ‘वीर ज़ारा’ और ‘मैं हूं ना’ दिखाई गईं. उस कार्यक्रम में राहुल और प्रियंका गांधी भी शामिल थे.
जब भी गांधी भाई-बहन किसी क्रिकेट मैच में दिखते हैं, अक्सर शुक्ला उनके बगल में ही होते हैं.
“वे अक्सर ऐसे लोगों के साथ खड़े दिखाई देते हैं — उनकी पार्टियों में शामिल होना हो या बड़े इवेंट्स में सबसे आगे बैठना. और लोगों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता. तेज याददाश्त, राजनीतिक समझ और कहानी-प्रियता के साथ शुक्ला किसी भी सभा में आकर्षक मौजूदगी दिखा सकते हैं.”

उनका निजी जीवन भी राजनीति से जुड़ा है. उनकी पत्नी, अनुराधा प्रसाद, बीएजी ग्रुप नाम की मीडिया कंपनी चलाती हैं, जिसकी शुरुआत 1993 में हुई थी. अनुराधा के पिता, ठाकुर प्रसाद, जनसंघ के नेता और सम्मानित वकील थे. उनके भाई, रवि शंकर प्रसाद, वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं.
वर्षों से, शुक्ला व्यापार और फिल्म जगत की हाई‑प्रोफाइल हस्तियों, जैसे मुकेश अंबानी और शाहरुख खान, के दायरे में रहे हैं.

1996 में जब वे ज़ी टीवी पर ‘रू बा रू’ नामक टॉक शो होस्ट कर रहे थे, तब उन्होंने शाहरुख खान का इंटरव्यू लिया. फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ बड़ी हिट थी. साथ ही उन्होंने 1990 के दशक में नरेंद्र मोदी का भी इंटरव्यू किया. अन्य प्रभावशाली हस्तियों में अटल बिहारी वाजपेयी, बालासाहेब ठाकरे और सोनिया गांधी को भी शामिल किया जा चुका है.
कांग्रेस में सफर और वर्तमान स्थिति
पत्रकारिता में राजनीतिक कवरेज करते हुए शुक्ला राजनीतिक हस्तियों के करीब आए, खासकर उत्तर प्रदेश के नेताओं के. वे पूर्व सांसद और राजीव गांधी के सलाहकार जितेंद्र प्रसाद के करीब माने गए.
एक वरिष्ठ यूपी कांग्रेस कार्यकर्ता के अनुसार, जितेंद्र ने उन्हें यूपी नेता नरेश अग्रवाल से मिलवाया, जो 1997 में लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाना चाह रहे थे. बाद में, शुक्ला इसी पार्टी के जरिए राज्यसभा पहुंचे.
2003 में जब मुलायम सिंह यादव यूपी के सीएम बने, तब राजनीतिक रुख बदल गया. लोकतांत्रिक कांग्रेस के कई सदस्य समाजवादी पार्टी से जुड़ गए, जबकि अग्रवाल को कैबिनेट में शामिल किया गया. लेकिन दो वरिष्ठ नेता — पूर्व MLC सिराज मेहंदी और राजीव शुक्ला — कांग्रेस की ओर धीरे-धीरे आए, सीधे तौर पर घोषणा ना करके लेकिन पार्टी के कार्यक्रमों में दिखने लगे.

मेहंदी ने कहा, “हमने आधिकारिक रूप से तब तक शामिल नहीं हुए, लेकिन दिखना शुरू कर दिया. राजीव राष्ट्रीय राजनीति पर ध्यान देना चाहते थे क्योंकि वे दिल्ली में रहते थे, और मुझे राज्य राजनीति में.”
यूपीए‑1 के शुरुआती दिनों तक, शुक्ला सिर्फ देखने वाले नहीं रहे। वे कांग्रेस के अंदरूनी घेरे में आ चुके थे. उनसे आज़ाद की करीबी बनने से उन्हें पार्टी में अधिकार और पहुंच मिली.
2006 में जब उनका राज्यसभा कार्यकाल खत्म होने को था, तब वे पहले से कांग्रेस के भरोसेमंद लोगों में शामिल थे. तब अहेद पटेल ने सोनिया गांधी से उनकी बैठक करवाई, और जल्द ही कांग्रेस ने उन्हें महाराष्ट्र से राज्यसभा उम्मीदवार बनाया.
राजनीतिक पहचान के साथ-साथ उनकी दूसरी ऊंचाइयां भी थीं: बीसीसीआई में क्रिकेट प्रशासन और पत्नी के मीडिया कारोबार में. उनकी पत्नी की बैग फिल्म्स एंड मीडिया लिमिटेड (भगवान, अल्लाह, गॉड) ने 2007 में हिंदी न्यूज चैनल News 24 और 2008 में एंटरटेनमेंट चैनल E24 शुरू किया.
कैंप के पीछे, शुक्ला की प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ मजबूत कामकाजी संबंध थे, जो उस समय चुनाव में नहीं थीं, लेकिन बैक‑रूम भूमिका निभाती थीं. प्रियंका की मुख्य टीम के एक सदस्य के अनुसार, “शुक्ला जी प्रियंका जी तक सीधे पहुंच रखने वाले व्यक्ति थे. उन्होंने बैठकें तय कीं, यूपीए दौर में समस्याएं सुलझाईं. बॉलीवुड स्टार शाहरुख खान से लेकर पहलवान द ग्रेट खली तक, वे चीज़ें संभव बनाते थे.”
कांग्रेस के वरिष्ठ पदाधिकारियों के अनुसार, प्रियंका ने वर्ष 2020 में हिमाचल प्रदेश में उनकी जिम्मेदारी का प्रस्ताव रखा. वहां भी शुक्ला ने अपनी विशेष क्षमता दिखाई—तीन प्रतिद्वंद्वी गुटों (रानी प्रतिभा सिंह, सुखविंदर सिंह सूूखू और मुकेश अग्निहोत्री) की महत्वाकांक्षाओं को संतुलित किया.
2018 में जब उनका तीसरी बार राज्यसभा कार्यकाल समाप्त होने को था, तब वे सूक्ष्म कारणों से पुनः नामांकन से चूक गए. उन्हें गुजरात से नामांकन फाइल करने बुलाया गया था, लेकिन एयरपोर्ट बंद होने के कारण समय निकल गया.
कांग्रेस एक सूत्र ने बताया कि शुक्ला ने खुद के लिए चार्टर प्लेन भी मंगवा लिया था, लेकिन वे पहुंच नहीं पाए. उन्होंने चिंता जताई कि तब तक मूल उम्मीदवार नारायणभाई राठवा के दस्तावेज न पूरे हों.
चार साल बाद, वे फिर छत्तीसगढ़ से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा गए, जहां उस समय कांग्रेस सत्ता में थी. फिर से, प्रियंका गांधी — जिनका पूर्व छत्तीसगढ़ सीएम भूपेश बघेल से अच्छा तालमेल था — ने शुक्ला को टिकट दिलाने में मदद की.
इस साल मार्च में उन्हें हिमाचल प्रदेश प्रभारी पद से हटाया गया. कुछ दिनों बाद ही उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति (CWC) में शामिल किया गया, जो पार्टी की सर्वोच्च निर्णय‑लेने वाली बॉडी है.
“उनकी CWC नियुक्ति अप्रैल में अहमदाबाद सत्र से ठीक पहले की गई थी. दिलचस्प बात यह है कि आधिकारिक विज्ञप्ति में सिर्फ एक नाम था—उनका. यही उनके पार्टी में रुतबे की बेहतर समझ देता है,” एक वरिष्ठ कांग्रेस सांसद ने बताया.
खेल की दुनिया में एंट्री
राजीव शुक्ला ने बीसीसीआई में एंट्री उत्तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन (UPCA) के ज़रिए 1989 में की। कानपुर में उनके पुराने साथियों का कहना है कि शुक्ला कानपुर के सिंघानिया बिजनेस परिवार के काफ़ी क़रीबी माने जाते थे, जिनका UPCA में अच्छा असर था, क्योंकि कमला क्लब और ग्रीन पार्क स्टेडियम दोनों कानपुर में हैं. शुक्ला ने 1980 के आखिरी सालों में UPCA में प्रवेश किया.
एक UPCA पदाधिकारी ने कहा, “शुक्ला जी कभी UPCA के अध्यक्ष नहीं बने, लेकिन उनके क़रीबी हमेशा UPCA प्रमुख बनाए जाते रहे. इसी तरह शुक्ला जी यूपी की क्रिकेट चलाते हैं.”
वहीं, शुक्ला का कहना है कि 1989 में UPCA में आने के बाद उनकी बीसीसीआई में एंट्री 1991 में जूनियर क्रिकेट कमिटी के ज़रिए हुई, जब कांग्रेस नेता माधवराव सिंधिया बोर्ड के अध्यक्ष थे. बाद में उन्होंने सीनियर पुरुष क्रिकेट बॉडी में एंट्री ली.

2002 में शुक्ला भारतीय क्रिकेट टीम के मीडिया मैनेजर बनाए गए, और इसी दौरान वह चर्चा में आए, ख़ासकर नेटवेस्ट सीरीज़ की जीत के वक्त, जब ड्रेसिंग रूम में सौरव गांगुली के साथ खड़े उनकी तस्वीर काफ़ी मशहूर हुई.
शुक्ला का बीसीसीआई में कद तब और बढ़ा जब उन्हें 2011 में आईपीएल चेयरमैन बनाया गया, और 2015 में फिर से इस पद पर नियुक्त किया गया. बोर्ड के सूत्रों का कहना है कि आईपीएल फ्रेंचाइज़ी मालिकों और राजनेताओं से उनके अच्छे रिश्ते उनकी नियुक्ति में अहम कारण थे.
2020 के आखिरी महीनों से शुक्ला बीसीसीआई के उपाध्यक्ष हैं, और 2017 तक UPCA के सचिव भी रह चुके हैं.
स्पोर्ट्स एसोसिएशन में 30 साल से ज़्यादा का अनुभव रखने वाले वरिष्ठ खेल प्रशासक और खेल मंत्रालय के सलाहकार रहे अमृत माथुर के अनुसार, शुक्ला एक “टीम पर्सन” हैं, जो बोर्ड सदस्यों के बीच सहमति बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं.
माथुर ने कहा कि शुक्ला का क्रिकेट बोर्ड में प्रभाव पिछले दो दशकों से काफ़ी अहम रहा है, और वह सदस्यों और खिलाड़ियों के बीच पुल का काम करते हैं.
‘सबके बेस्ट फ्रेंड’
शुक्ला को सबके बेस्ट फ्रेंड माने जाते हैं. उनके बयान कभी विवाद नहीं खड़े करते और उनके सोशल मीडिया पोस्ट ज़्यादातर जन्मदिन की बधाइयों, शादियों और राजनीतिक आयोजनों में उपस्थिति से जुड़े होते हैं.
“मीडिया सर्कल में उन दिनों वह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के काफ़ी क़रीबी माने जाते थे. वह हर किसी की मदद करने के लिए मशहूर थे—राजनीतिक संपर्क दिलाने में. वह मीटिंग फिक्स करवाने में मदद करते थे. आज भी वह अपने दोस्तों की मदद करते हैं. वह किसी भी नेता के बारे में बुरा नहीं कहते.”
सरदेसाई ने सांसद इलेवन और पत्रकार इलेवन के बीच खेले गए एक दोस्ताना क्रिकेट मैच को याद करते हुए कहा—शुक्ला सांसद इलेवन के मैनेजर थे, और राजदीप पत्रकार इलेवन के लिए खेल रहे थे. “जब हमारी टीम मैच जीत गई, तो शुक्ला ने साइड बदल ली और ट्रॉफी के लिए फोटो क्लिक करवाने आ गए. मैंने कहा, ‘आप तो सांसदों की टीम में थे.’ वह मुस्कराए और बोले, ‘तो क्या हुआ? मैं पेशे से पत्रकार भी हूं.’ यानी वह सही समय पर सही फ्रेम में रहना जानते हैं,” सरदेसाई ने कहा.
कानपुर के लेखक डॉ. संजीव मिश्रा शुक्ला के स्वभाव को “मस्त मौला कानपुरिया” बताते हैं.
“शुक्ला ने कभी अपनी जड़ें नहीं छोड़ीं. हर कानपुर वाला शुक्ला के दिल्ली वाले घर में स्वागत पाता है. मुझे आज भी याद है, पिछले साल मैं दिल्ली के एक बुक फेयर में गया था, जहां मेरी किताब बावली कानपुरिया पर चर्चा कार्यक्रम था. शुक्ला हमारे स्टॉल पर आए और हमारे साथ तस्वीरें खिंचवाईं,” उन्होंने याद किया. “कुछ लोग वहां मुस्कराते हुए बोले, ‘तीन कानपुरिया बावली एक साथ’ (मैं, राजीव और हमारी किताब). बावली का मतलब यहां मस्ती से है, धमाल. सच में, उन्होंने राजनीति, मीडिया और खेल—तीनों में धमाल मचाया.”
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