वसुंधरा राजे आजकल कहां हैं? बमुश्किल दिखने वाली राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री को हाल में राज्य भाजपा अध्यक्ष मदन लाल सैनी के देहांत के बाद एक शोकसभा में देखा गया था. पिछले कुछ महीनों के दौरान सार्वजनिक आयोजनों में या जयपुर के भाजपा कार्यालय तक में वह कभी-कभार ही दिखीं, जबकि 2002 से ही वहां उनकी तूती बोलती थी.
विधानसभा चुनावों में गत वर्ष मिली नाकामी के बाद से, राजे का राजनीतिक सितारा धूमिल पड़ चुका है. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि राजे को धीरे-धीरे राजस्थान की सक्रिय राजनीति के केंद्र से दूर धकेला जा रहा है. हाल के महीनों की कई घटनाओं से उनको उत्तरोत्तर हाशिए पर डाले जाने के संकेत मिलते हैं.
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एकछत्र राज करने वाली का पतन
दो बार मुख्यमंत्री और पांच बार सांसद रहीं राजे राज्य में एक शक्ति केंद्र हुआ करती थीं. आज उनकी हैसियत राजस्थान के 73 भाजपा विधायकों में से किसी भी एक से थोड़ा अधिक की रह गई है.
गत विधानसभा चुनावों के बाद सदन में नेता प्रतिपक्ष बनने में उनकी रुचि के बावजूद ये अहम जिम्मेदारी आरएसएस समर्थित गुलाबचंद कटारिया को सौंपी गई.
दिचलस्प बात ये है कि कटारिया ही वो नेता हैं जिनके मेवाड़ क्षेत्र में पदयात्रा के फैसले से 2012 में राजस्थान भाजपा में संकट की स्थिति बन गई थी, क्योंकि राजे ने इस मुद्दे पर पार्टी छोड़ने की धमकी दे डाली थी, जिसके बाद कटारिया को पदयात्रा का निश्चय त्यागना पड़ा था.
वैसे तो राजे को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया गया, पर इसे राजे को राजस्थान में किसी बड़ी भूमिका से वंचित करने के प्रयास के रूप में देखा गया. ये बात लोकसभा चुनावों से पहले तब और स्पष्ट दिखी जब टिकट वितरण या चुनावी रणनीति बनाने में राजे की वास्तव में कोई भूमिका नहीं रह गई थी. उस महिला के लिए ये बहुत ही दयनीय स्थिति कही जा सकती है जिसने कि एक दशक से अधिक समय तक राजस्थान में पंचायती से लेकर संसदीय तक, सभी चुनावों में टिकट तय किए थे. इसके उलट, भाजपा प्रमुख अमित शाह ने पार्टी उम्मीदवार तय करते समय राजे के विचारों को सुनने तक की ज़रूरत नहीं समझी.
और राजे को तब शर्मिंदगी उठानी पड़ी, जब उनकी पार्टी ने जाट नेता हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन का फैसला किया. वर्षों से, हनुमान वसुंधरा राजे के मुखर आलोचक रहे थे, पर भाजपा को जाट वोटों के लिए उनका साथ चाहिए था, इसलिए राजे के विरोध और उनकी असहजता की अनदेखी कर दी गई.
स्वाभाविक था कि 23 मई को भाजपा की भारी चुनावी जीत के बाद मोदी मंत्रिमंडल में राजे के किसी विश्वासपात्र को जगह नहीं दी गई; बजाय इसके मंत्री बनाए गए कुछ सांसद राजस्थान भाजपा में राजे विरोधी गुट के जाने माने सदस्य रहे हैं. यहां तक कि ओम बिरला को लोकसभा अध्यक्ष बनाए जाने को भी राजे को नीचा दिखाने वाले कदम के तौर पर देखा जा रहा है, क्योंकि दोनों की कभी पटरी नहीं बैठी थी.
इन घटनाओं की सरल व्याख्या तो इस रूप में की जाती है कि भाजपा राज्य में अगली पीढ़ी के नेताओं को तैयार कर रही है. पर जैसा कि राजनीति में अक्सर होता है, हकीकत इससे कहीं अधिक जटिल है.
अमित शाह और मोदी से तनातनी
सवाल ये है कि भाजपा क्यों राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत के बाद के अपने सबसे कद्दावर नेता को ठिकाने लगाने पर तुली हुई है?
इसका जवाब नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ राजे के असहज रिश्तों में ढूंढ़ा जा सकता है. मुख्यमंत्री के रूप में अपने पूरे दूसरे कार्यकाल में, 2013 से 2018 तक, राजे इस चर्चा से परेशान रहीं कि वह पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की पसंद नहीं हैं. गत विधानसभा चुनावों से पहले दो महत्वपूर्ण अवसरों पर राजे और शाह के बीच टकराव हुआ. पहला मौका 2018 के शुरू में आया जब राजे के वफादार अशोक परनामी को राज्य भाजपा प्रमुख का पद छोड़ना पड़ा था. अमित शाह तब केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को नया अध्यक्ष बनाना चाहते थे, पर राजे ने ये दलील देते हुए इसमें अड़ंगा लगा दिया कि इस कदम से चुनावों से ठीक पहले राज्य का प्रभावशाली जाट समुदाय पार्टी से बिदक जाएगा.
राजे-शाह तकरार के कारण पार्टी का राज्य प्रमुख चुनने में 72 दिनों की शर्मनाक देरी के बाद, आखिरकार अमित शाह को अपने कदम पीछे खींचने पड़े और वह मदन लाल सैनी को अध्यक्ष बनाने पर सहमत हुए. दोनों के बीच दूसरी बार तनातनी 2018 में टिकट बंटवारे के समय हुई, पर अंतत: राजे को विधानसभा चुनावों के लिए उम्मीदवार तय करने की खुली छूट दी गई.
शाह के साथ राजे का टकराव हो सकता है महज हालिया घटनाक्रम हो, पर प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनकी पटरी नहीं बैठने का लंबा इतिहास है. दोनों के बीच कड़वाहट 2007 में तब चर्चा में आई थी जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और राजस्थान के जालोर जिले में नर्मदा नदी के जल की आपूर्ति के लिए एक नहर का निर्माण किया गया था. इस उपलब्धि का श्रेय लेने के उत्सुक दोनों नेता आपस में भिड़ गए थे. मोदी जहां नहर परियोजना पूरी होने पर गुजरात में एक भव्य आयोजन करना चाहते थे, वहीं राजे ने समारोह राजस्थान में किए जाने पर ज़ोर दिया.
पार्टी के अंदरूनी जानकारों के अनुसार इस तनातनी की एक वजह थी वसुंधरा राजे का खुद को मोदी से वरिष्ठ नेता मानना, और ये दुश्मनी वर्षों तक चली.
मोदी के 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद राजे ने अपने कुछ वफादारों को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कराने के लिए खूब भागदौड़ की. पर उनके आग्रह को मानने की बजाय मोदी ने राज्य में राजे-विरोधी गुट से अपने मंत्री चुने. इस बात को लेकर दोनों के बीच इतनी कड़वाहट फैली कि अगले एक साल तक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री किसी सार्वजनिक मंच पर एक साथ नहीं आए.
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शीर्ष पर बदलाव
विधानसभा चुनावों में हार के कुछ ही महीनों के भीतर राजस्थान की सभी 25 लोकसभा सीटों पर भाजपा की जीत के बाद अब, राजे का दबदबा और कमज़ोर हुआ है. राज्य में कई युवा नेताओं को मौका दिए जाने से साफ है कि भाजपा की नज़र राजे के बाद के युग पर है.
आमतौर पर जहां गजेंद्र सिंह शेखावत को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार माना जाता है, पार्टी को जब भी राज्य में सरकार बनाने का अवसर मिले; वहीं ओम बिरला को लोकसभा अध्यक्ष बनाए जाने पर बहुतों को आश्चर्य हुआ है – उनका चयन मुख्यत: अमित शाह से उनकी नजदीकियों के कारण हुआ है.
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मदन लाल सैनी के देहांत के बात राजस्थान के सियासी हलकों में अटकलबाजियों का दौर चल पड़ा है. यदि ये अहम पद राजे या उनके किसी वफादार को दिया जाता है, तो उसे एक हद तक राजे के पुनर्वास के संकेत के रूप में देखा जाएगा. लेकिन यदि राज्य में पार्टी के शीर्ष पर राजे विरोधी गुट के किसी व्यक्ति को बिठाया जाता है, तो फिर राजे के अलगाव और उन्हें हाशिए पर डालने की कवायद पूरी हो जाएगी.
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(लेखक मीडिया के प्रोफेसर और पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)