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Saturday, 16 November, 2024
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पांच राज्यों में चुनाव की तारीख घोषित, जानें कहां क्या हैं समीकरण

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मध्य प्रदेश, मिजोरम में 28 नवंबर को मतदान होगा. राजस्थान और तेलंगाना में 7 दिसंबर को चुनाव होंगे. छत्तीसगढ़ में चुनाव दो चरणों में होंगे.

नई दिल्ली: निर्वाचन आयोग ने शनिवार को पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा की, जो 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले सेमीफाइनल के रूप देखा जा रहा है.

निर्वाचन आयोग ने घोषणा कि छत्तीसगढ़ में चुनाव दो चरणों में होंगे- 12 और 20 नवंबर. मध्य प्रदेश और मिजोरम में 28 नवंबर को मतदान होंगे. जबकि राजस्थान और तेलंगाना में 7 दिसंबर को मतदान होगा.

निर्वाचन आयोग ने कहा कि सभी राज्यों के वोटों की गिनती 11 दिसंबर को होगी.

आचार संहिता शनिवार से लागू होगी.

2019 के आम चुनावों से पहले पश्चिमी, मध्य, पूर्वोत्तर और दक्षिणी क्षेत्रों के राज्यों में होने वाले चुनावों को उत्सुकता से देखा जा रहा है. क्योंकि ये पूरे देश के मतदाताओं के रुझान के नमूने के रूप में कार्य करेंगे.

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) इन पांच में से तीन राज्यों में सत्ता में है. भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि राज्यों में भी सत्ता विरोधी भावनाओं से जूझ रही है. चुनाव भी ऐसे समय में आये हैं जब बीजेपी कई मोर्चों पर आलोचना झेल रही है. बढ़ती ईंधन की कीमतें, महंगाई, राफेल डील में घोटाला पर आलोचना के साथ साथ बीजेपी एससी/एसटी एक्ट के मुद्दे पर अपने पारंपरिक वोटबैंक यानी सवर्णों की नाराजगी झेल रही है.

राजस्थान

200 सीटों की राजस्थान विधानसभा में, बीजेपी ने 2013 में 160 सीटें जीती थीं, कांग्रेस को 25 पर ला दिया था. लोकसभा चुनाव में 25 सीटें जीतकर बीजेपी ने यहां काफी अच्छा प्रदर्शन किया था. हाल के दिनों में एक वैकल्पिक पैटर्न देखा गया है कि राज्य की जनता भाजपा और कांग्रेस बारी बारी मौका देती है.

वसुंधरा राजे की अगुआई वाली सरकार बढ़ती अलोकप्रियता का सामना कर रही है. इस साल की शुरुआत में अजमेर और अलवर में लोकसभा के उपचुनाव में बीजेपी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था. जबकि इन्हीं सीटों को भाजपा ने पहले बड़े अंतर के साथ जीता था.

गाय को लेकर अतिसतर्कता के कारण हुईं घटनाओं ने राज्य में बीजेपी की छवि को ख़राब किया है. इसके अलावा, खुले तौर पर केंद्रीय नेतृत्व खासकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ वसुंघरा राजे की खींचतान जगजाहिर है. जिसने पार्टी को नुकसान पहुंचाया है.

हालांकि कांग्रेस के लिए भी करो या मरो की स्थिति है. हाल में हुए उपचुनाव के परिणाम काफी हद तक कांग्रेस के पक्ष में हैं और स्थिति अच्छी दिख रही है. लेकिन पार्टी के आंतरिक तनाव और मुख्यमंत्री के उम्मीदवार पर अस्पष्टता इस संभावना को प्रभावित कर सकती है. प्रदेश कांग्रेस कमेटी (पीसीसी) के अध्यक्ष सचिन पायलट और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत के बीच असहज संबंध भी भाजपा को यह मौका देते हैं कि वह कांग्रेस को बंटा हुआ कहकर प्रचारित करे.

इसके अलावा, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती ने कांग्रेस पर हमला बोला और यह घोषणा कर दी है कि वे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करेंगी. कांग्रेस को यह भी नुकसान पंहुचा सकता है.

मध्य प्रदेश

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लगातार तीसरे कार्यकाल के साथ 231 सीटों वाली मध्य प्रदेश असेंबली बीजेपी का गढ़ है. 2013 में बीजेपी ने 166 सीटें जीतीं, जबकि कांग्रेस 57 ही जीत सकी थी.

राजस्थान से अलग, बीजेपी को उम्मीद है कि चौहान की निजी लोकप्रियता और विश्वसनीयता एक बार फिर से चुनाव जीतने में मदद करेगी. हालांकि चौहान का अच्छा प्रदर्शन कर पाना कठिन है. राज्य में ऊंची जातियां सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रही हैं, आरोप लगाती हैं कि बीजेपी दलितों को खुश कर रही है.

सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग समाज (SAPAKS)- जो कि ऊपरी जातियों और ओबीसी जातियों का समूह है, अब एक राजनीतिक दल के रूप में आगामी विधानसभा चुनावों में सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम के तहत बिना जांच के गिरफ्तारी पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी. लेकिन विरोध के बाद भाजपा ने इसे बहाल करने की घोषणा कर दी है. इससे ऊपरी जातियों के लोग गुस्से में हैं. जबकि चौहान सरकार उन्हें मनाने का प्रयास कर रही है वहीं दूसरी ओर दलित मतदाताओं तक पहुंचने का प्रयास कर रही है.

पिछले साल मंदसौर का हिंसक किसान विरोध भाजपा के लिए चिंता का विषय है.

इस बीच, कांग्रेस मध्य प्रदेश में बंटी हुई नज़र आती है. शीर्ष नेतृत्व के लिए कई दावेदार हैं. कमलनाथ पीसीसी अध्यक्ष हैं, ज्योतिरादित्य सिंधिया अभियान समिति के प्रमुख हैं और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजिय सिंह समन्वय समिति के अध्यक्ष हैं. यह कोई नयी बात नहीं है कि तीनों मध्य प्रदेश में स्वतंत्र गुट के रूप में काम करते है. इस गुटबाजी ने पार्टी को अब तक बीजेपी को टक्कर देने से रोका है.

यहां पर अकेले चुनाव लड़ने का मायावती का निर्णय भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचने जा रहा है. राज्य में दलितों की जनसंख्या 15 प्रतिशत से अधिक है और 230 विधानसभा सीटों में से 35 सीटें उनके लिए आरक्षित हैं. भाजपा, पहले बसपा-कांग्रेस के दलित समीकरण को लेकर चिंतित थी, लेकिन इन दोनों के अलगाव के बाद अब राहत की सांस ले रही है.

छत्तीसगढ़

बीजेपी का एक और गढ़ है छत्तीसगढ़, जहां मुख्यमंत्री रमन सिंह लगातार अपने तीसरे कार्यकाल को पूरा करने के लिए तैयार हैं. छत्तीसगढ़ वह जगह है जहां कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच के मामूली अंतर को देखते हुए कांग्रेस जीतने की कल्पना कर सकती है. 2013 के विधानसभा चुनावों में, बीजेपी ने 41.04 प्रतिशत वोटों के साथ 90 सीटों में से 49 सीटें जीतीं जबकि कांग्रेस ने 40.29 फीसदी वोट पाकर 39 सीटें जीतीं.

यहां बीजेपी विकास और कल्याणकारी योजनओं के सहारे चुनाव लड़ने की उम्मीद कर रही है, जबकि कांग्रेस 15 साल की सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाना चाह रही है. पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और मायावती की पार्टियों के साथ आने से कांग्रेस को भारी झटका लगा है. जोगी पहले कांग्रेस में थे, 2016 में कांग्रेस से रिश्तों कड़वाहट आई थी. जिसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस का गठन किया था.

बसपा में सिर्फ एक विधायक है, लेकिन बीजेपी का मानना है कि 8 से 10 सीटें हैं जहां बसपा कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकती है. राज्य में 11.6 प्रतिशत दलित आबादी है और एससी के लिए 10 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं जो कांग्रेस का खेल बिगाड़ने के लिए पर्याप्त हैं.

मिजोरम

यह सात पूर्वोत्तर राज्यों में से एकमात्र राज्य है जहां बीजेपी फिलहाल सत्ता में नहीं है. जिस पार्टी ने पूर्वोत्तर को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है, वह मिजोरम को भी जीतने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है. भाजपा 40 सीटों वाली विधानसभा को जीतने के लिए जमीन पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश कर रही है. कांग्रेस वर्तमान में 34 सीटों के साथ सत्ता में है, और बीजेपी की अब तक राज्य में कोई खास मौजूदगी नहीं है.

असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड, पूर्वोत्तर के इन 6 राज्यों में बीजेपी चुनाव जीतकर, गठबंधन करके या अन्य माध्यमों से सत्ता में आने में कामयाब रही है.

मिजोरम में, बीजेपी ने एक टीम को फरवरी में भेज दिया था. जो राज्य में मतदाताओं तक पहुंचें और राज्य में निचले स्तर पर संगठन का निर्माण करें. पार्टी ने इस टीम को उसी तर्ज पर काम करने का निर्देश दिया है जिस तरह त्रिपुरा में वाम के पुराने किले को ढहा दिया था.

तेलंगाना

119 सीटों वाला तेलंगाना चुनाव के दृष्टिकोण से शायद सबसे दिलचस्प युद्ध का मैदान है. तेलंगाना में विधानसभा चुनाव अगले साल के मध्य में होने वाले थे लेकिन अब जल्द ही होंगे क्योंकि मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) के कैबिनेट की सिफारिश के बाद 6 सितंबर को राज्य विधानसभा भंग कर दी गई थी.

2014 में, केसीआर के नेतृत्व वाले टीआरएस ने 90 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने 13 सीटें जीती थीं. बीजेपी ने पांच सीटें जीती थीं, जबकि तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने 15 जीती थी.

बीजेपी 2019 के चुनावों में उत्तर भारत के हिस्सों में संभावित किसी भी घाटे को भरने के लिए दक्षिणी राज्यों को महत्वपूर्ण मान रही है. लेकिन वह तेलंगाना में खुद को कमजोर पाती है. राज्य में इसकी चुनावी तैयारियां आधी अधूरी हैं. पार्टी में कोई राज्य स्तर का विश्वसनीय नेता नहीं है और कोई सहयोगी भी नहीं. तो इसका मतलब है कि पार्टी की स्थिति तेलंगाना में असहज दिख रही है.

इस बीच, कांग्रेस, टीडीपी और वाम एक साथ आ गये हैं. बीजेपी सरकार ने आंध्र प्रदेश को विशेष श्रेणी का दर्ज़ा देने से इनकार कर दिया था, जिसके कारण टीडीपी एनडीए गठबंधन से बाहर हो गई. यहां तक कि जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस आंध्र में विरोध के कारण भाजपा से दोस्ती रखने में सावधानी रख रहे हैं.

इसी बीच, असेंबली को समय से पहले भंग करना केसीआर के आत्मविश्वास और तैयारियों को दर्शाता है. तेलंगाना लोकसभा में 17 सदस्यों को भेजता है. इसे देखते हुए सभी पार्टियों के लिए विधानसभा में अपना आधार मजबूत करना महत्वपूर्ण है.

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