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Sunday, 15 December, 2024
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पुणे अब ब्राह्मणों का गढ़ नहीं रहा, बदलती जनसांख्यिकी ने BJP की राजनीति को कैसे बदला

जनसांख्यिकी में बदलाव का मतलब है कि भाजपा अब गैर-ब्राह्मण उम्मीदवारों पर विचार कर रही है, लेकिन ब्राह्मण सामाजिक समूह इस बदलाव से नाखुश हैं.

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पुणे: पुणे 18वीं शताब्दी से ही ब्राह्मणों का गढ़ रहा है, जब यह पेशवाओं की सीट थी — शक्तिशाली ब्राह्मण मंत्री जो मराठा संघ को नियंत्रित करते थे. यह इस शहर का इतिहास रहा है — और इससे जुड़ा ब्राह्मण गौरव है — जिसने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को, जिसे अक्सर अतीत में “ब्राह्मण-बनिया” पार्टी बनने और पुणे में जड़ें जमाने और बढ़ने में मदद की.

हालांकि, पुणे की बदलती जनसांख्यिकी ने इसकी राजनीतिक गतिशीलता में बदलाव ला दिया है, शहर अब ब्राह्मणों का गढ़ नहीं रह गया है जो पहले हुआ करता था. इसने भाजपा को मुश्किल स्थिति में डाल दिया है — जबकि पार्टी बदलते समय के साथ आगे बढ़ना चाहती है, लेकिन उसे अपने सबसे बड़े चैंपियन को परेशान करने की कीमत चुकानी पड़ रही है.

समस्या की जड़ शहर के ब्राह्मण सार्वजनिक स्थान पर प्रतिनिधित्व की कमी को देखते हैं. इस चुनाव के लिए भाजपा के उम्मीदवार पुणे के पूर्व मेयर मुरलीधर मोहोल हैं — जो एक मराठा नेता हैं. 13 मई को होने वाले चौथे चरण के मतदान में मोहोल का मुकाबला कांग्रेस के ओबीसी नेता रवींद्र धांगेकर से होगा.

शहर के ब्राह्मण पार्टी की पसंद से नाराज़ हैं, जो कि पुणे लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले विधानसभा क्षेत्र — कस्बा पेठ में उपचुनाव पर इसी तरह के विवाद के ठीक एक साल बाद आया था. अपने मूल वोट बैंक को खुश करने के लिए भाजपा ने इस फरवरी में कोथरुड की पूर्व विधायक और ब्राह्मण नेता मेधा कुलकर्णी को राज्यसभा सीट के लिए नामांकित किया.

लेकिन ऐसा लगता है कि उससे भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. अखिल भारतीय ब्राह्मण महासंघ, एक सामुदायिक संगठन, के महासचिव विक्की धडफले के पास नाराज़गी जताने के लिए शब्द नहीं थे.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “ब्राह्मण समुदाय परेशान है. हमें लगता है कि अगर हमें पुणे में प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका, तो हमें कहां मिलेगा?”

जबकि अखिल भारतीय ब्राह्मण महासंघ ने पहले भाजपा के लिए सक्रिय रूप से प्रचार किया था, इस बार उसने दूरी बनाए रखने का फैसला किया है.

उन्होंने कहा, “इसलिए हमने समुदाय से उन उम्मीदवारों को वोट देने के लिए कहा है जिन्हें वे चाहते हैं.”

राजनीतिक विश्लेषक हेमंत देसाई के अनुसार, शहर की बदलती जनसांख्यिकी को देखते हुए पार्टियां पुणे के लिए गैर-ब्राह्मण चेहरों की तलाश कर रही हैं.

उन्होंने कहा, “1990 के दशक से पुणे अधिक से अधिक महानगरीय बनना शुरू हो गया. लोग रोज़गार और शिक्षा के लिए पुणे आते हैं. बहुत से लोग उत्तर से हैं और महाराष्ट्र के भीतर, मराठवाड़ा से बहुत से लोग पुणे आ रहे हैं.”

अपनी ओर से भाजपा मानती है कि कस्बा पेठ उपचुनाव के बाद ब्राह्मणों में नाराज़गी थी, लेकिन इस बात पर जोर दिया कि इसे अब शांत कर दिया गया है.

पार्टी नेता और राज्यसभा सांसद संजय काकड़े ने दिप्रिंट को बताया, “भाजपा एक अनुशासित पार्टी है, जो नेतृत्व जिसे जो भी भूमिका देता है उसे स्वीकार करती है और आगे बढ़ती है.”


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ब्राह्मण वर्चस्व से मिश्रित दावेदार तक

पुणे एक शहरी निर्वाचन क्षेत्र है जहां बढ़ती महानगरीय आबादी है. राजनीतिक दलों के अनुमान के मुताबिक, इसमें ब्राह्मणों और मराठों की अच्छी-खासी उपस्थिति है, दोनों जाति समूहों की संख्या लगभग बराबर है.

इसके अलावा, 2011 की जनगणना से यह भी पता चलता है कि पुणे जिले की आबादी में अनुसूचित जाति की आबादी 12.5 प्रतिशत है और मुस्लिम आबादी 7.14 प्रतिशत है.

इसके अंतर्गत छह विधानसभा सीटें हैं: वडगांव शेरी, शिवाजीनगर, कोथरुड, पार्वती, पुणे छावनी (एससी), और कस्बा पेठ. इनमें से वर्तमान में भाजपा के पास चार सीटें हैं — शिवाजीनगर, कोथरुड, पार्वती और पुणे छावनी (एससी) — जबकि कांग्रेस के पास एक, कस्बा पेठ है.

इस बीच, वडगांव शेरी वर्तमान में अजित पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के पास है.

यह शहर कई महत्वपूर्ण ब्राह्मण नेताओं का घर रहा है, उनमें स्वतंत्रता आंदोलन के प्रतीक ‘लोकमान्य’ बाल गंगाधर तिलक, गिरीश बापट और गाडगिल परिवार के वंशज — काकासाहेब गाडगिल, उनके बेटे और पूर्व मंत्री वी.एन गाडगिल और पोते और अनंत गाडगिल शामिल हैं.

जबकि तिलक और गाडगिल कांग्रेस के वफादार माने जाते हैं, दिवंगत गिरीश बापट, जो पिछले साल मार्च में अपनी मृत्यु तक पुणे के सांसद थे, भाजपा के साथ थे.

लगभग पांच दशक पहले तक पुणे ब्राह्मण बहुल निर्वाचन क्षेत्र था. कांग्रेस के दिग्गज नेता वी.एन. गाडगिल ने 1980 में जनता पार्टी के नानासाहेब गोरे को हराकर और बाद में क्रमशः 1984 और 1989 में भाजपा के जगन्नाथ जोशी और अन्ना जोशी को हराकर तीन बार सीट जीती.

1984 से — जब भाजपा पुणे में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में उभरने लगी — 1996 तक पार्टी ने चार ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जिनमें जगन्नाथ जोशी और अन्ना जोशी शामिल थे.

1991 में अन्ना जोशी ने गाडगिल को 16,938 वोटों से हराकर पहली बार भाजपा के लिए सीट जीती थी.

1998 में भाजपा और तत्कालीन अविभाजित शिवसेना के गठबंधन ने कांग्रेस नेता और तत्कालीन मौजूदा सांसद सुरेश कलमाड़ी को समर्थन देने का फैसला किया, जो निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ रहे थे. कलमाड़ी, एक ऐसे नेता जिनकी जड़ें कर्नाटक से जुड़ी हैं और जिन पर अंततः 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों के संबंध में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा, कांग्रेस के तुपे विट्ठल बाबूराव से 93,218 वोटों से चुनाव हार गए.

भारतीय चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले तीन दशकों में पुणे में बीजेपी का वोट शेयर दोगुना से भी ज्यादा हो गया है. 1991 में 24 प्रतिशत से बढ़कर 1999 में 29 प्रतिशत, 2014 में 55 प्रतिशत और 2019 में 61 प्रतिशत हो गया.

1990 के दशक से पार्टी के उम्मीदवार चयन में एक स्पष्ट बदलाव आया है.

1999 से 2014 तक बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में राजपूत और मराठा उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. राजपूत नेता प्रदीप रावत ने 1991 में पुणे से चुनाव जीता, लेकिन 2004 में कलमाड़ी से हार गए, तब तक वे कांग्रेस में वापस आ गए थे. कलमाड़ी ने 2009 में मराठा नेता अनिल शिरोले को भी हराया था, लेकिन वह 2014 में सीट छीनने में कामयाब रहे।.

इस बीच, भाजपा ने कस्बा पेठ विधानसभा सीट पर लगातार ब्राह्मण प्रतिनिधित्व करके इसे संतुलित करने की कोशिश की. यह रणनीति पिछले मार्च में हुए उपचुनाव में बदल गई, जब इसने ओबीसी नेता हेमंत रसाने को चुना, जो कांग्रेस के धांगेकर से हार गए थे.

रसाने को चुनने का भाजपा का फैसला चार साल बाद आया जब पार्टी ने कोथरुड की तत्कालीन विधायक मेधा कुलकर्णी को हटाकर मराठा नेता और कोल्हापुर के मूल निवासी चंद्रकांत पाटिल के साथ जाने का फैसला किया. हालांकि, पाटिल चुनाव जीत गए, लेकिन इस आश्चर्यजनक फैसले से ब्राह्मणों में रोष बढ़ गया.

यह सारा गुस्सा कस्बा पेठ उपचुनाव से ठीक पहले सामने आया, जब पूरे निर्वाचन क्षेत्र में फैले गुमनाम पोस्टरों ने भाजपा के उम्मीदवारों की पसंद पर सवाल उठाया. एक पोस्टर पर लिखा था, “कुलकर्णी अपना निर्वाचन क्षेत्र हार गए. तिलक अपना निर्वाचन क्षेत्र हार गए. क्या अब बापट की बारी है?”

उसी महीने बापट की मृत्यु हो गई. कई लोगों के लिए मोहोल की उम्मीदवारी उस पोस्टर को भविष्यसूचक बनाती है.

गुजराती ब्राह्मण नेता और हिंदू महासंघ के अध्यक्ष आनंद दवे ने दिप्रिंट को बताया, “ब्राह्मण समाज बहुत गुस्से में है और आप देखेंगे कि इसका असर वोटों पर कुछ हद तक दिख रहा है. अगर आप राज्यसभा में (कुलकर्णी को) एक प्रतिनिधित्व देते हैं, लेकिन अन्य समुदायों से विधायक लाते हैं, तो इससे मदद नहीं मिलेगी.”

हालांकि, भाजपा का कहना है कि ये चिंताएं राजनीतिक समझ के बजाय सामाजिक मजबूरी के दृष्टिकोण से प्रतीत होती हैं.

भाजपा प्रवक्ता कुणाल तिलक ने कहा, “ये ब्राह्मण समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले सामाजिक संगठन हैं, न कि राजनीतिक समूह. तो, उनका परेशान होना स्वाभाविक है, लेकिन पुणे एक बड़ा निर्वाचन क्षेत्र है और जिस उम्मीदवार के जीतने की संभावना अधिक होती है उसे टिकट मिलता है.”

फिर भी बीजेपी अपने ब्राह्मण वोटरों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है. अप्रैल में चंद्रकांत पाटिल और कई वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने मोहोल के लिए समर्थन जुटाने के लिए ब्राह्मण संगठनों के साथ बैठकें कीं.

लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ भाजपा ही ब्राह्मण उम्मीदवारों से दूर जा रही है. 2004 और 2009 में कलमाड़ी को चुनने से लेकर 2014 में मराठा नेता विश्वजीत कदम को मैदान में उतारने तक, यह बदलाव कांग्रेस में भी दिखाई दे रहा है, जिससे उसके कुछ ब्राह्मण नेता नाराज़ हैं.

पूर्व एमएलसी और कांग्रेस नेता अनंत गाडगिल ने कहा, “कांग्रेस में ब्राह्मणों की हालत बीजेपी में मुसलमानों जैसी है.”

कांग्रेस के एक अन्य नेता जो खुद ब्राह्मण हैं, ने सहमति जताते हुए कहा कि पार्टी “ब्राह्मणों के मुकाबले ओबीसी और अन्य समुदायों को प्राथमिकता देती है”. उन्होंने कहा, धारणा में यह बदलाव लोकसभा के लिए कांग्रेस की पसंद में भी परिलक्षित होता है.

नेता ने कहा, “राज्य नेतृत्व को भी लगता है कि धांगेकर अपने कसबा प्रदर्शन को दोहरा सकते हैं, लेकिन देखते हैं.”

हालांकि, समाजशास्त्री श्रुति तांबे का मानना है कि पुणे को ब्राह्मणों का गढ़ बना देना गलत होगा. वे इस बात पर जोर देती हैं कि यह उतना ही समाज सुधारक ज्योतिराव फुले का था जितना पेशवाओं का था.

सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर ताम्बे ने कहा, “औपनिवेशिक काल से पुणे ने सभी जातियों और समुदायों के लोगों को आवाज़ दी है. यह ब्रिटिश काल से ही गैर-ब्राह्मण आंदोलन का गढ़ रहा है. स्वतंत्रता के बाद भी, एक औद्योगिक और शैक्षणिक केंद्र के रूप में पुणे का विकास सभी समुदायों के सहयोग से हुआ है.”

अनेक गुट, अंतर्कलह

पिछले मार्च में गिरीश बापट के निधन के बाद से पुणे संसदीय सीट खाली है. निर्वाचन आयोग ने उपचुनाव नहीं करवाया और भाजपा, जिसके पास एक ही सीट के लिए कई दावेदार थे, ने भी इसके लिए जोर नहीं दिया.

दिसंबर में बॉम्बे हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग को तुरंत चुनाव कराने का आदेश दिया था. कोर्ट ने कहा था, “ईसीआई न केवल निहित है बल्कि चुनाव कराने और यह सुनिश्चित करने के लिए कर्तव्य और दायित्व भी रखता है कि कोई भी खाली सीट भरी जाए. ईसीआई किसी निर्वाचन क्षेत्र को बिना प्रतिनिधित्व के नहीं रहने दे सकता है. मतदाताओं को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है.”

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की अपील पर इस आदेश पर रोक लगा दी. अपने तर्कों में चुनाव आयोग ने कहा कि उपचुनाव कराना एक “निरर्थक अभ्यास” होगा, क्योंकि लोकसभा चुनाव कुछ महीने दूर थे.

इस बीच, भाजपा के तीन दावेदार — पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय सचिव और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के पूर्व प्रचारक सुनील देवधर, वडगांव शेरी के पूर्व विधायक जगदीश मुलिक और मोहोल — ने पहले ही चुनाव प्रचार करना शुरू कर दिया था.

मोहोल को मैदान में उतारने के पार्टी के फैसले से दूसरों की आकांक्षाओं पर पानी फिर सकता है. हालांकि, पार्टी नेताओं के अनुसार, इससे पुणे इकाई के भीतर अंदरूनी कलह भी शुरू हो गई. बीजेपी के एक पदाधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “वरिष्ठ नेताओं को नज़रअंदाज किया गया क्योंकि मोहोल राज्य के वरिष्ठ नेताओं के करीबी थे.”

14 मार्च को मोहोल की उम्मीदवारी की घोषणा के कुछ घंटों बाद, मुलिक ने अपने समर्थकों के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए ट्वीट किया. हालांकि, उन्होंने उम्मीदवार को बधाई नहीं दी.

पार्टी नेताओं के मुताबिक, मुलिक अब मोहोल के लिए प्रचार कर रहे हैं. यह बात मार्च में महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस से मुलाकात के बाद आई.

अपने घर को व्यवस्थित रखने की भाजपा की कोशिशों के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर यह चुनाव अभियान सामान्य से अधिक धीमा है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “वे (मोहोल) एक पूर्व पार्षद हैं और वे मेयर भी थे. हालांकि, हममें से कुछ लोग यहां सांसद और विधायक रहे हैं और बेहतर पदों पर काम कर चुके हैं… इसलिए बाहर जाकर उनके लिए प्रचार करना थोड़ा मुश्किल हो रहा है, लेकिन क्या करें, हमारे पास कोई विकल्प नहीं है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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