पटना: सितंबर की यह एक सुस्त, धीमी दोपहर है. उत्तर बिहार के बिजैपुर में सड़कें ज्यादातर खाली हैं, बस कभी-कभार कोई गाड़ी गुजरती है.
अजय और उसके दोस्त सड़क किनारे खड़े हैं, हाथों में भगवा झंडे लिए. वे वाहनों को रोककर ‘चंदा’ मांगते हैं — जो वे कहते हैं कि दुर्गा पूजा के आयोजन के लिए है. आमतौर पर शाम के बाद काम तेज़ हो जाता है.
स्थानीय लोग कहते हैं कि शाम ढलने के बाद यहां की सड़कें जीवंत हो जाती हैं, खासकर इस हिस्से में, जो उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़िले की सीमा से लगा हुआ है. तभी, उनका कहना है, शराब की तस्करी करने वाले वाहन चलने लगते हैं. अजय और उसके दोस्तों के लिए इसका मतलब है ज्यादा ट्रैफिक — और ज्यादा मौका दान मांगने का.
“वो (तस्कर) ज्यादा उदार होते हैं,” यादव जाति के अजय राय मुस्कुराते हुए कहते हैं और नीतीश कुमार सरकार द्वारा अप्रैल 2016 में लागू शराबबंदी की सच्चाई बता देते हैं.
यही वजह है कि बिहार की सड़कों पर दिन-दहाड़े लड़खड़ाते कदमों से चलते, ठीक से बात न कर पाने वाले पुरुषों को देखना आम है.
राहुल कुमार, जो पूर्वी चंपारण ज़िले के रक्सौल का एक वेल्डर है और नेपाल सीमा के पास रहता है, कहता है कि अंतरराष्ट्रीय सीमा पर भी शराब की तस्करी खूब होती है.
“आप जानते हैं बिहार की सबसे बड़ी विडंबना क्या है? जो पीते हैं, खासकर गरीब, उन्हें तो गिरफ्तार कर लिया जाता है. लेकिन जो शराब बेच रहे हैं, वही सारा पैसा बना रहे हैं — तस्कर से लेकर पुलिसकर्मी तक,” राहुल कहते हैं. वह शराबबंदी को नीतीश कुमार की “सबसे बड़ी गलती” बताते हैं.
“ये सबसे बड़ी भूल है नीतीश कुमार का,” वह कहते हैं.
जमीन पर, जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर इसी नाराज़गी को भुनाते हैं. वह वादा कर रहे हैं कि अगर वे सत्ता में आए, तो शराबबंदी हटा देंगे.
गांव-गांव, कस्बों में, उनका ये वादा — “सत्ता में आने के एक घंटे के भीतर” शराबबंदी खत्म करने का — चर्चा का विषय बन गया है. इससे जन सुराज को बिहार की जटिल राजनीति में जगह बनाने में मदद मिल रही है, जहां जाति और समुदाय की गहरी खाई हमेशा से राजनीति को दिशा देती रही है.
हालांकि, शराबबंदी खत्म करने का वादा जन सुराज का अकेला आकर्षण नहीं है. बहुत से मतदाता, जो बदलाव के खिलाफ नहीं हैं लेकिन आरजेडी को विकल्प नहीं मानते, किशोर में नई उम्मीद देखते हैं — वैसी ही उम्मीद जैसी उन्हें नीतीश कुमार के शुरुआती वर्षों में नजर आई थी.
“आपको क्यों लगता है कि नीतीश कुमार ने अचानक बुजुर्गों, विधवाओं और विकलांगों की पेंशन 400 रुपये से बढ़ाकर 1,100 रुपये कर दी? ये पीके इफेक्ट है,” गोपालगंज ज़िले के गम्हरिया गांव के सुरेश राय कहते हैं.
मासिक पेंशन को 2,000 रुपये तक बढ़ाना किशोर के पांच सूत्री एजेंडे का हिस्सा है, जिसे उन्होंने मार्च में पेश किया था. अब लोग मजाक में कहते हैं कि जब नीतीश कुमार किशोर के वादे पूरे कर रहे हैं, तो उन्हें शराबबंदी भी खत्म कर देनी चाहिए.
“अगर नीतीश कुमार शराबबंदी हटा दें, तो कोई उन्हें हटा नहीं पाएगा,” छपरा ज़िले के अमनौर गांव के सुरेंद्र कुशवाहा कहते हैं. लेकिन असलियत यह है कि जन सुराज के अलावा बिहार की कोई भी बड़ी राजनीतिक पार्टी शराबबंदी हटाने की खुलेआम हिमायत नहीं कर रही. वजह है महिलाओं को नाराज़ करने का डर.
आम धारणा है कि शराबबंदी से नीतीश कुमार को महिला वोटरों का समर्थन मिला, क्योंकि शराबखोरी को अक्सर वैवाहिक झगड़े और घरेलू हिंसा से जोड़ा जाता है. गरीब परिवारों में पुरुषों को शराब पर खर्च करते हुए देखा जाता है, बजाय ज़रूरी जरूरतों के.
लेकिन शराबबंदी लागू हुए नौ साल बाद, बहुत सी महिलाएं अब इसमें कोई फायदा नहीं देखतीं क्योंकि शराब अब भी हर जगह आसानी से मिल रही है. दरभंगा के सिंहवाड़ा की मीना देवी कहती हैं, “अब तो और ज्यादा खर्च हो रहा है, क्योंकि तस्करी वाली शराब महंगी पड़ती है. सबको पता है सच क्या है, सर.”
किशोर अपने इंटरव्यू में तर्क देते हैं कि यह दावा गलत है कि नीतीश कुमार को शराबबंदी से महिलाओं का समर्थन मिला. उनका कहना है कि शराबबंदी के बाद से जेडीयू की सीटें लगातार घटी हैं. वह यह भी कहते हैं कि शराब न केवल आसानी से उपलब्ध है, बल्कि घर-घर पहुंचाई जा रही है.
किशोर का कहना है कि अगर बिहार में कानूनी तौर पर शराब बिकती, तो राज्य को 20,000 करोड़ रुपये का राजस्व मिलता. लेकिन यह पैसा अब शराब माफिया और भ्रष्ट अफसरों की जेब में जा रहा है. वह दावा करते हैं कि शराब पीने के मामलों में दलित और हाशिए पर खड़े लोग सबसे ज्यादा फंसे हैं.
राज्य में इस बात पर व्यापक सहमति है कि शराबबंदी ने अवैध शराब की समानांतर अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया है. इससे पुलिस अफसरों जैसे छोटे से वर्ग को फायदा हो रहा है, जबकि लोग सस्ती और नकली शराब पीकर बीमारियों का शिकार हो रहे हैं.
सिंहवाड़ा के मंगल झा कहते हैं, “बाकी कोई हकीकत क्यों नहीं मान रहा? हमें नहीं पता कि उन्हें वोट मिलेगा या नहीं. लेकिन अच्छे कारण हैं कि लोग प्रशांत किशोर के बारे में सोच रहे हैं. उनकी बातें ठीक लगती हैं. वे सभी नेताओं, मोदी समेत, को अंदर-बाहर जानते हैं. ज़मीन पर यात्रा करके उन्होंने लोगों को मुद्दों पर जगा दिया है…”
किशोर का यह तर्क कि शराबबंदी हटाने से बिहार को शराब पर टैक्स से राजस्व मिलेगा, लोगों में समर्थन पा रहा है. हालांकि कई मामलों में यह समर्थन राजस्व की वजह से कम और खुलकर पीने की चाहत से ज्यादा प्रेरित लगता है.
जैसा कि झा हंसते हुए कहते हैं, “अब लोग सस्ती शराब पी रहे हैं. अगर बैन हटेगा तो लोग अच्छी शराब पी सकेंगे.”
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