दिप्रिंट की वरिष्ठ संवाददाता फ़ातिमा ख़ान ने तीन मुख्य चुनावी राज्यों के कई ज़िलों का दौरा किया- केरल, पश्चिम बंगाल, और असम- जिनमें काफी संख्या में मुस्लिम वोट हैं, क्रमश: 26, 30 और 34 प्रतिशत. लेकिन इन क्षेत्रों के बीच, राजनीतिक रूप से काफी स्पष्ट अंतर है.
केरल में, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल), कांग्रेस की अगुवाई वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) का एक अहम हिस्सा रही है. पश्चिम बंगाल में उग्र मौलवी अब्बास सिद्दीक़ी की इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) के उदय के साथ ही, ममता बनर्जी को मिल रही चुनौती में एक नया पहलू जुड़ गया है. और असम में बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) और कांग्रेस ने, जिनके बीच अभी तक मुस्लिम वोट के लिए होड़ रही है, इस बार बीजेपी के खिलाफ हाथ मिला लिया है.
फ़ातिमा को तीनों प्रांतों में खासकर युवाओं की बीच, बदलते राजनीतिक समीकरणों की सुगबुगाहट दिखाई दी. तीनों सूबों में जटिलताएं हैं लेकिन जो चीज़ सब में समान पाई गई वो है युवा मुसलमानों के बीच प्रतिनिधित्व की चाह, किसी भी पार्टी के बंधे हुए वोट समझे जाने से नफ़रत और ग्लानिहीन अंदाज़ की पहचान की राजनीति की इच्छा. ज़्यादा उम्र के बहुत से मुसलमान इसे लेकर सहज नहीं हैं और कहते हैं कि इसकी बजाय वो अभी भी, सेक्युलर समझी जाने वाली पार्टियों को ही वोट देंगे.
फातिमा खान की विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ें:
2017 की सर्दियों में, जाहिरा हुसैन जल्दी से अपने माता-पिता को कोलकाता के रूबी जनरल अस्पताल ले जा रही थी, चूंकि उनके पिता के सीने में दर्द उठ रहा था. लेकिन घबराई हुए परिवार को गेट पर ही रोक दिया गया क्योंकि सिक्योरिटी गार्ड जानना चाहता था कि क्या वो ‘बांग्लादेशी’ थे और उसने उनसे पहचान का सबूत मांगा. किसी और से ये नहीं पूछा गया.
चार साल हो गए हैं और जाहिरा, जो अब 29 साल की हैं, फुरफुरा शरीफ के मौलवी अब्बास सिद्दीक़ी की नव-गठित आईएसएफ को समर्थन देने के लिए तैयार हैं, जिसे बंगाली मुसलमानों के वोट मिलने की उम्मीद है. जाहिरा साउथ 24 परगना ज़िले के, भंगर चुनाव क्षेत्र की वोटर हैं, जहां से अब्बास के भाई नौशाद सिद्दीक़ी एक उम्मीदवार हैं.
‘बंगाली मुस्लिम होने के नाते, हम हर कदम पर अन्य की श्रेणी में डाले जाने के आदी हैं. शायद आईएसएफ इसी से निपटेगी- हो सकता है अन्य से निकलकर, आखिरकार हमें अपनी पहचान मिल जाए’.
नजमा तबशीरा और अब्दुल निशाद की 2020 में शादी हुई थी- देश में कोविड महामारी फैलने से बमुश्किल एक महीना पहले. मल्लापुरम के तिरुरंगाड़ी क्षेत्र में युवा वकील होने के नाते, दोनों ने लॉकडाउन के दौरान अपना समय, एक साझा उद्देश्य की ओर बढ़ने में लगाया- वो आईयूएमएल के ज़्यादा सक्रिय सदस्य बन गए.
केरल का एक मुस्लिम-बहुल ज़िला मल्लापुरम, हमेशा से आईयूएमएल का गढ़ रहा है. लेकिन जहां निशाद, आईयूएमएल का समर्थन करने वाले, एक राजनीतिक रूप से सक्रिय परिवार में पलकर बड़े हुए, वहीं नजमा का इस पार्टी की ओर झुकाव यूनिवर्सिटी के दिनों में ही शुरू हुआ.
25 वर्षीय नजमा ने कहा, ‘एक मुस्लिम महिला के नाते, आपसे अपेक्षा नहीं की जाती कि आप सियासत के बारे में बात करेंगी या आपकी उसमें दिलचस्पी होगी. शिक्षा पूरी करने के बाद भी, मुझे कहा गया कि मेरी ज़िंदगी का एकमात्र उद्देश्य शादी करना है’. लेकिन कालीकट यूनिवर्सिटी से कानून में ग्रेजुएशन करते हुए, वो हरिता के संपर्क में आईं- जो आईयूएमएल की छात्र इकाई मुस्लिम स्टूडेंट्स फेडरेशन (एमएसएफ) की महिला विंग थी.
नजमा ने कहा, ‘यहां, मैं ऐसी महिलाओं से मिली जो खुलकर अपनी महत्वाकांक्षओं के बारे में बात करतीं थीं, हर मुमकिन तरीके से आत्मनिर्भर बनने की बात करतीं थीं. मैं उससे बहुत प्रेरित हुई’.
आईयूएमएल ने नगर निकाय चुनावों में तो पहले भी महिला उम्मीदवार उतारी हैं लेकिन 25 साल में ये पहली बार है कि पार्टी ने विधानसभा के लिए एक उम्मीदवार खड़ी की है- दक्षिण कोझिकोड़ से नूरबीना रशीद. लेकिन नजमा इस लंबे अंतराल से ज़्यादा परेशान नहीं हैं.
उन्होंने कहा, ‘(पार्टी) धीरे-धीरे वहां पहुंच रही है और समाज के बहुत से मुद्दों पर काम कर रही है’.
आईयूएमएल, बटवारे से पहले की मुस्लिम लीग की, भारतीय उत्तराधिकारी है और पिछले 70 वर्षों से चुनाव लड़ती आ रही है. 1962 के बाद से हर लोकसभा में इसके कम से कम दो सांसद रहे हैं.
‘आईयूएमएल ने सुनिश्चित किया है कि मुख्यधारा की एक सियासी पार्टी होने के नाते, वो मुस्लिम समुदाय की शिकायतों और मांगों को सुने और उठाए और अपनी बातचीत से किसी भी अन्य समुदाय को अपने से दूर न करे, ’ ये कहना था राजनीतिक विश्लेषक तथा लेखक व सामाजिक टीकाकार शाहजहां मादमपत का, जो अब यूएई में रहते हैं लेकिन जिन्होंने अपना अधिकतर जीवन केरल में बिताया है और अपने सूबे तथा आईयूएमएल पर काफी लिखा है.
मादमपत ने एक ‘सांप्रदायिक’ पार्टी और ‘समुदायवादी’ पार्टी में भी अंतर किया और आईयूएमएल को ‘समुदायवादी’ की श्रेणी में रखा.
‘सांप्रदायिक पार्टी एक दुश्मन को सामने रखकर, समाज के कुछ वर्गों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, जबकि एक समुदायवादी पार्टी मुख्यधारा में रहकर एक समुदाय के हितों की रक्षा करती है और किसी अन्य समुदास्य से वैमनस्य नहीं रखती’.
बल्कि, बहुत से टीकाकार अतीत से एक मिसाल देते हैं, जो आईयूएमएल की समावेशी साख का सबूत है- इसके वरिष्ठ नेता, पूर्व केरल शिक्षा मंत्री और अब पोन्नानी से तीन बार के सांसद ईटी मौहम्मद बशीर ने 1994 में कलाड़ी में श्री संकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय शुरू किया था.
और फिर भी, आईयूएमएल पर हमला करने के लिए, अन्य लोग इसके मुस्लिम लीग का वंश होने की ओर इशारा करते हैं, जैसे कि पिछले साल उत्तर प्रदेश सीएम योगी आदित्यनाथ ने इसे एक वायरस ‘करार’ दिया था.
निशाद ने कहा, ‘यही बात है, सिर्फ इसलिए कि पार्टी के नाम में ‘मुस्लिम’ है, इसे एक खास तरह से देखा जाएगा. कोई इस बात को नहीं देखता कि आईयूएमएल शिक्षा और विकास पर कितना ज़ोर देती है’.
मुस्लिम पहचान का बोझ जिसका ज़िक्र जाहिरा, नजमा और निशाद करते हैं, उसे तीनों सूबों की पार्टियां ढो रही हैं- पश्चिम बंगाल में अगर आईएसएफ है और केरल में आईयूएमएल है तो असम में बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ है.
लेकिन तीनों सूबों में, उनके समर्थक पूरे यकीन के साथ कहते हैं कि पार्टियों को किसी एक समुदाय से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए- उनकी आकांक्षा मुख्यधारा में आने की है और वो मतदाताओं के दूसरे तबकों से भी वोट हासिल करना चाहते हैं.
‘सूबे के सभी मुसलमानों के बीच, बंगाली मुसलमान अकसरियत में हैं. संख्या के मामले में उर्दू-भाषी मुसलमान, बांग्ला-भाषी मुसलमानों के सामने कहीं नहीं ठहरते. तो फिर हम अल्पसंख्यक राजनीति में क्यों पड़ें? सिर्फ उत्पीड़न के इतिहास की वजह से हम ऐसा नहीं कर सकते. ऐसा करना प्रतिक्रियावादी होगा’, ऐसा कहना था 30 वर्षीय डॉक्युमेंट्री फिल्ममेकर आबिद हुसैन का, जिनका ताल्लुक मुर्शिदाबाद से है, जो बंगाल के दो मुस्लिम-बहुल ज़िलों में से एक है (दूसरा मालदा है).
हुसैन आईएसएफ संस्थापक अब्बास सिद्दीक़ी को ‘भाईजान’ कहकर बुलाते हैं, जैसा कि युवा मतदाताओं समेत बहुत से दूसरे समर्थक भी बुलाते हैं, जो न तो कभी मौलवी से मिले हैं, न कभी उनसे बात हुई है लेकिन जो उन्हें ‘देखा हुआ’ महसूस करते हैं.
उन्हीं में एक 27 वर्षीय सारा अहमद भी हैं, हावड़ा की एक विचित्र सी शख़्सियत, जो अब कोलकाता में पढ़ रही हैं. उन्हें महसूस हुआ है कि बंगाली मुस्लिम होने के नाते, उनके साथ भेदभाव हुआ है और उन्हें ‘बांग्लादेश जाओ’ जैसे कमेंट सुनने को मिले हैं.
सारा ने कहा, ‘बंगाली मुसलमान ज़्यादातर देहाती इलाकों से हैं. लेकिन जब भी हम बाहर निकलते हैं, तो मान लिया जाता है कि हमें उर्दू आती होगी. पहली बार हमें एक ऐसा लीडर मिला है, जो बांग्ला के अलावा कुछ नहीं बोलता’. बल्कि, कहा जाता है कि अब्बास के दादा अबु बक्र सिद्दीक़ी ने, नमाज़ के बाद बंगाली में ख़ुतबा देना शुरू किया था, ताकि आम लोग उसे समझ सकें.
सारा बहुत यकीन के साथ नहीं कह सकतीं कि समलैंगिकता के विषय पर अब्बास सिद्दीक़ी का क्या रुख है लेकिन वो उन्हें एक मौका देने के लिए तैयार हैं. सीपीआई(एम) के 2019 लोकसभा चुनाव घोषणा पत्र का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, ‘बहरहाल, वो एक मौलवी हैं और मुझे नहीं मालूम कि समलैंगिक अधिकारों पर उनका रुख क्या होगा. लेकिन, आईएसएफ वाम मोर्चे का हिस्सा है, जिसने एलजीबीटीक्यू+ अधिकारों के प्रति वचनबद्धता दिखाई है, जो अच्छी बात है’.
असम में मुसलमानों के लिए ‘पहचान’ और उस पर सियासत, अलग से जटिलताएं लेकर आती है. समुदाय में असमी-भाषी और बांग्ला-भाषी के बीच एक साफ अंतर है- एक ऐसा जातीय विभाजन जो दशकों से लोगों के विस्थापन और सियासत का मुद्दा रहा है, जिसमें छात्र आंदोलन भी रहा है, जिसके नतीजे में असम समझौता वजूद में आया और उसके बाद सूबे में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पर काम हुआ.
एक असमी मुसलमान और गौहाटी हाई कोर्ट में वकील हमीम अहमद, 2014 में अपनी प्रैक्टिस से छुट्टी लेकर, बीजेपी में शामिल हो गए.
हमीम ने दिप्रिंट से कहा, ‘मैं पांच वक्त नमाज़ पढ़ने वाला मुसलमान हूं, इसलिए मेरे परिवार और दोस्तों को मेरे बीजेपी में शामिल होने पर हैरत हुई थी. मेरे अंदर अपनी क़ौम के लिए कुछ करने की बहुत इच्छा थी, ताकि मुसलमानों का कल्याण और विकास हो सके’.
उन्होंने कहा कि शुरू में, उन्हें पार्टी से बहुत सम्मान मिला और उन्हें प्रदेश अल्पसंख्यक मोर्चे में शामिल कर लिया गया, और हज कमेटी का अध्यक्ष भी बना दिया गया. लेकिन, धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि ये सम्मान उनके ‘मुसलमान’ होने की वजह से नहीं था बल्कि खासतौर से ‘असमी मुसलमान’ होने के कारण था.
‘मैं एक मुसलमान के नाते बीजेपी में आया था लेकिन मुझे लगा कि पार्टी का ज़ोर, सिर्फ देसी मुसलमानों, ‘धरती-पुत्रों’ के वोट हासिल करने पर है. फिर एनआरसी आया और उसका अंतर्प्रवाह पूरी तरह से, हमारे (स्थानीय) बनाम उनके (विदेशी) मुसलमानों के बारे में था और मैं बहुत असहज महसूस करने लगा’.
जब वो इस विरोधाभास को और अधिक नहीं झेल सके, तो हमीम ने 2019 में बीजेपी छोड़ दी. आज वो ‘अराजनीतिक’ हो गए हैं और उनका सिर्फ एक मकसद है: मुस्लिम क़ौम को एकजुट करना.
आपसी दरार के आकार को देखते हुए, जिससे बंगाली-भाषी मुसलमान, खासकर एनआरसी को अपडेट किए जाने के बाद से, बखूबी वाक़िफ हैं, ये एक मुश्किल काम है. असम में, बंगाली मुसलमानों को आमतौर से ‘मिया’ कहा जाता है, लेकिन 2016 में, इस समुदाय के सदस्यों ने इस शब्द को ही पलट दिया और अपनी देसी भाषा में वो लिखना शुरू कर दिया, जिसे अब ‘मिया कविता’ कहा जाता है, जिसके अंदर वो अपने साथ किए जाने वाले भेदभाव को बयान करते हैं.
2019 में मिया कवि तब मुसीबत में घिर गए, जब अपनी कविताओं में विदेशी लोगों को पसंद न करने की, असम की छवि को उभारने के आरोप में उनके खिलाफ एक एफआईआर दर्ज कर ली गई.
मुस्लिम-बहुल बारपेटा ज़िले के एक निवासी फरहाद भूयन, उन 10 लोगों में से थे, जिनका एफआईआर में नाम लिया गया था, और उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि उनका काम अहम क्यों था. उन्होंने कहा, ‘अपने संघर्षों के बारे में हम बात नहीं करेंगे, तो कौन करेगा? मेरी कविताओं में हमेशा सिर्फ दोनों पहचानों (असमी और बंगाली) के बीच, मतभेद मिटाने की बात की गई है.
भूयन ने अपना फोन निकाला और अपना पसंदीदा शीर्षक ‘मंडेला आ रहे हैं’ पढ़ने लगे, जिसमें युवा स्कूली लड़कियों की बात की गई है, जो पेड़ के नीचे बैठकर, ‘ओ मुर अपुनार देश ’ गा रही हैं, जो लक्ष्मीनाथ बेज़बरुआ का लिखा असम का राज गीत है. भूयन ने अपनी मिया पहचान और उससे जुड़े उत्पीड़न पर कविता लिखी है, लेकिन उन्होंने कहा कि उन्होंने इसे मिया में नहीं, बल्कि असमी भाषा में लिखा ताकि हर कोई समझ सके:
जय गोसोर तोले तोले
कोनमोइना होतोर
ओ मुर अपुनार देश
बहुत से मुस्लिम युवाओं में इन ‘मुस्लिम पार्टियों’ के प्रति बढ़ता आकर्षण कांग्रेस, वाम दलों और तृणमूल कांग्रेस जैसी तथाकथित ‘सेक्युलर पार्टियों’ के प्रति अवहेलना को भी दर्शाता है.
ऐसा इसलिए है कि ‘मुस्लिम पार्टियां’ खुद इन ‘सेक्युलर पार्टियों’ के विरोध में उठकर खड़ी हुईं या उन्हें बढ़ावा दिया गया, ताकि अनके वोटों को अब ऐसे ही मानकर न चला जाए.
राजनीतिक विश्लेषक और रिसर्चर हिलाल अहमद ने कहा कि मुसलमानों को हमेशा गलत तरीके से एक ‘ब्लॉक’ समझा जाता रहा है, जबकि ऐसा कभी नहीं रहा है. सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) में एसोसिएट प्रोफेसर अहमद ने कहा, ‘मैं 1962 से मुसलमानों के वोट देने के व्यवहार पर नज़र रखे हूं. मुसलमान कोई एक विशालकाय इकाई नहीं हैं’.
उन्होंने आगे कहा, ‘मुस्लिम मतदाता केवल राज्य-विशेष नहीं बल्कि चुनाव क्षेत्र-विशेष ढंग से भी वोट देते हैं. चुनाव क्षेत्र के स्तर पर, मुसलमान विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से सौदेबाज़ी करके अस्तित्व की रणनीति के तहत वोट देते हैं. लेकिन मुस्लिम वोट बैंक जैसी कोई चीज़ नहीं है’.
तृणमूल प्रमुख और पश्चिम बंगाल सीएम ममता बनर्जी पर, समय-समय पर ‘तुष्टिकरण’ की राजनीति करने के आरोप लगते रहे हैं और 2019 में उन्होंने उस आरोप का जवाब देने के लिए मुस्लिम वोट बैंक की तुलना एक ‘दुधारू गाय’ से की थी.
बहुत से मुसलमानों ने इसे पसंद नहीं किया. सारा अहमद ने कहा, ‘अगर वो हमें ऐसा कह रही हैं, तो उससे ज़ाहिर होता है कि पार्टी की नज़र में हम कहां खड़े हैं- एक बंधा हुआ वोट बैंक’.
‘मुस्लिम’ पार्टियों पर हमेशा एक आरोप ये भी लगाया जाता है कि वो बीजेपी-विरोधी वोट को काटने का काम करती हैं- बंगाल में आईएसएफ टीएमसी की अंतिम तालिका में सेंध लगा सकती है. जाहिरा ने कहा, ‘लेकिन ये कौन कह सकता है कि कौन सी पार्टी किसके वोट काट रही है? पिछले कुछ महीनों में बहुत सारे टीएमसी विधायक बीजेपी में शामिल हुए हैं. एआईएसएफ को वोट देते समय कम से कम हमें उस तरह की अनिश्तितता का अहसास तो नहीं रहेगा’.
लेकिन चीज़ें तब जटिल हो जाती हैं, जब एआईयूडीएफ असम में कांग्रेस से गठजोड़ कर लेती है क्योंकि केरल में आईयूएमएल के उलट बदरुद्दीन अजमल की पार्टी ने 2006 में अपनी स्थापना के समय से ही कांग्रेस का विरोध किया है. विश्लेषकों का कहना है कि ‘असुरक्षित’ बंगाली मुसलमानों के बीच अजमल बेहद लोकप्रिय रहे हैं.
गुवाहाटी स्थित वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक सुशांता तालुकदार ने कहा, ‘इस गठबंधन के पीछे बुनियादी वजह बीजेपी को हराना है. असम का मुस्लिम मिडिल क्लास किसी भी पार्टी का बंधुआ वोटर बनकर नहीं रहना चाहता लेकिन वो जानते हैं कि अगर बीजेपी को हराना है तो ये गठबंधन ही एकमात्र विकल्प है’.
वरिष्ठ बीजेपी नेता और असम में मंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने, एआईयूडीएफ की राजनीति की बात करते हुए बार-बार ‘सभ्यताओं के टकराव’ वाक्यांश का इस्तेमाल किया है.
तालुकदार ने कहा: ‘इस तरह के जुमलों से असमी मुसलमानों और बंगाली-मूल के मुसलमानों के बीच का फर्क धुंधला पड़ जाता है क्योंकि उन्हें लगता है कि बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने का ये अहसास और बाकी सभी विभाजन, इससे दब जाते हैं’.
बहुत से मुस्लिम वोटर ऐसे हैं जिनकी राय अभी भी अलग है. वो पहचान की सियासत को बिल्कुल नापसंद करते हैं और उनका कहना है कि धर्म और राजनीति में किसी भी तरह का रिश्ता नहीं होना चाहिए.
कोझीकोड में साहित्य के छात्र, 19 वर्षीय मोहम्मद सज्जाद इसी वजह से आईयूएमएल के सख्त खिलाफ हैं. सज्जाद ने कहा, ‘आईयूएमएल बहुत अच्छे काम करती है, खासकर मल्लापुरम के लिए. लेकिन कुछ पॉकेट्स से बाहर, आगे चलकर ये कोई असर नहीं डाल पाएगी. ये अपनी बहुत सी रैलियां मस्जिदों से शुरू करती है, सभी फैसले पार्टी के लोगों द्वारा लिए जाते हैं…उसे और लचीला बनने की ज़रूरत है’.
बिहारी मूल की उर्दू-भाषी मुसलमान, 28 वर्षीय बेनज़ीर अजमल, जिन्होंने पश्चिम बंगाल के हावड़ा में परवरिश पाई, आईएसएफ के बारे में ऐसे ही विचार रखती थीं, चूंकि उनके परिवार का अब्बास सिद्दीक़ी या फुरफुरा शरीफ दरगाह से कोई जुड़ाव नहीं है. बेनज़ीर ने कहा, ‘टीएमसी को पसंद की वजह से वोट नहीं दिया जाता. मुसलमानों को बीजेपी को बाहर रखने के लिए टीएमसी को वोट देना पड़ता है. इसके अलावा, अगर आईएसएफ का मुखिया एक मौलवी है, तो उसका दकियानूसी और रूढ़िवादी होना लाज़िमी है. आखिर मैं किसी मौलवी पर कितना भरोसा कर सकती हूं? उससे कहीं बेहतर है कि एक आज़माई हुई पार्टी को वोट दिया जाए’.
लेकिन, ये सिर्फ युवा नहीं हैं- तीनों सूबों में बहुत से अधिक उम्र के मुसलमान भी, जो 50 या 60 से ज़्यादा उम्र के हैं, इनकी बजाय ‘सेक्युलर पार्टियों’ को वोट देना पसंद करेंगे.
51 वर्षीय बशीर शेख यूएई में एक ट्रांसपोर्ट वर्कर हैं लेकिन केरल में पिछले दो दशक से लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट के एक समर्पित समर्थक होने के नाते, वो हर चुनाव के समय दो हफ्ते के लिए प्रचार में हिस्सा लेने घर वापस आते हैं.
उन्होंने कहा, ‘केरल में मुसलमानों के लिए अलग पार्टी की ज़रूरत नहीं है. हमें एक ऐसी सरकार चाहिए, जो सभी लोगों के लिए काम करती हो और एलडीएफ बिल्कुल वही है’.
जहां दिप्रिंट से बात करने वाले बहुत से मुसलमानों का कहना है कि उनके अनुभवों ने उन्हें और गहराई से सियासत में घुसने के लिए मजबूर किया है, वहीं बहुत से गरीब और हाशिए पर रह रहे मुसलमानों ने ख़ुद को सियासी रूप से बिल्कुल अलग-थलग कर लिया है- जिसकी ज़्यादातर वजह निराशा है.
बारपेटा के व्यवसाई फैज़ल व्यापारी ने, असम में एनआरसी के तहत ‘विदेशी’ घोषित किए जाने के बाद 2016 से 2019 तक तीन साल, एक डिटेंशन कैंप में बिताए. ज़मानत मिलने के बाद जब वो घर लौटे तो पता चला कि उनके छह में से तीन बेटे मर चुके थे. परिवार का कहना है कि व्यापारी को डिटेंशन कैंप में ले जाने के एक साल बाद, तीनों ने खुदकुशी कर ली थी.
व्यापारी की पत्नी सबर बानो ने कहा, ‘वो बहुत दबाव में थे, उनकी आमदनी घट गई थी और वो शायद इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पाए कि हो सकता है उनके पिता कैंप से कभी बाहर न आ पाएं’.
फ़ैज़ल व्यापारी जीविका के लिए मछली के जाल बनाते हैं और उनके परिवार का कहना है कि उनके तीन साल जेल में रहने के दौरान, अदालत में सुनवाइयों पर आने जाने के लिए 5 लाख रुपए उधार लेकर खर्च करने पड़े. अब ये परिवार गरीबी का शिकार है और कहता है कि उसके पास सियासत के लिए समय नहीं है.
सत्तर वर्षीय व्यापारी ने पूछा, ‘इस सब की वजह से हमने अपने तीन बेटे खो दिए, अब हम कैसे सकून से जी सकेंगे?’
बारपेटा से ही 31 वर्षीय सद्दाम अहमद ने बताया कि वो भी डिप्रेशन और चिंता से गुज़र रहे हैं.
‘एक सिविल अस्पताल में संविदा-कर्मी के तौर पर काम करने वाले सद्दाम अहमद ने कहा, ‘पिछले तीन दशकों में, हर कुछ साल के बाद कुछ आ जाता है- या तो डी-वोटर (संदिग्ध वोटर) लिस्ट या एनआरसी या फिर डिटेंशन कैंप्स…ये सब बहुत थकाने और निराश करने वाला है.’
लेकिन, इस सब के बावजूद, सद्दाम अहमद ने कहा कि उन्होंने एक बार भी बारपेटा या असम छोड़कर जाने के बारे में नहीं सोचा है. उन्होंने आगे कहा, ‘नेता लोग जीना मुश्किल कर देते हैं लेकिन यहां के लोग ज़्यादातर अच्छे ही हैं. एक भाईचारा है जिसने विपरीत हालात में भी हमें सहारा दिया है और वही एक चीज़ है जो ज़िंदगी को जीने लायक बनाती है’.
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