पटना: बिहार की कुल आबादी में मात्र दो फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाली अपनी कुर्मी जाति के लोगों के जनाधार के साथ राजनीति की शुरुआत करने वाले नीतीश कुमार, जो शुरुआत में नालंदा जिले और उसके आसपास ही सीमित थे, ने 1994 में लालू से अलग होने के बाद अपनी अलग पार्टी बनाई और अब सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने को तैयार नजर आ रहे हैं.
यदि नीतीश कुमार इस कार्यकाल को पूरा करते हैं तो वह बिहार के पहले मुख्यमंत्री एसके सिन्हा के बनाए 18 साल के कार्यकाल का रिकॉर्ड तोड़कर सबसे लंबे तक बिहार का नेतृत्व करने वाले मुख्यमंत्री बन जाएंगे.
उनके समर्थकों के लिए राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ कांटे की टक्कर के बाद बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की जीत नीतीश की कड़ी मेहनत का नतीजा है, जो उनकी आखिरी दौर की राजनीति के लिए एक अच्छी शुरुआत है जैसा कि मुख्यमंत्री ने प्रचार के दौरान ही घोषणा कर दी थी कि यह उनका आखिरी चुनाव होगा.
जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी ने कहा, ‘अगर 15 साल सत्ता में रहने और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के 23 सीटों पर हमें हराने की वजह के बनने के बावजूद एनडीए ने फिर जीत हासिल की है तो यह दर्शाता है कि नीतीश ने कितना मजबूत जनाधार बना रखा है. अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और महिलाओं ने फिर जमकर उनका समर्थन किया है.’
अपने कई साथी राजनेताओं की तरह नीतीश भी जे.पी. आंदोलन (1974-77) की उपज हैं, जो बिहार में छात्रों के प्रदर्शन के तौर पर शुरू हुआ, लेकिन बाद में पूर्व पीएम इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के खिलाफ एक आंदोलन के रूप में देशभर में फैल गया. पेशे से इंजीनियर नीतीश ने 1985 में अपना पहला चुनाव जीता था.
बाद के सालों में अपने प्रशासनिक कौशल के कारण वह ‘सुशासन बाबू’ रूप में चर्चित हो चुके हैं, लेकिन नीतीश ने कभी भी सहयोगी दलों के बिना कोई चुनाव नहीं जीता, चाहे वह भाजपा हो या 2015 और 2017 के बीच कुछ समय के लिए राजद और कांग्रेस के साथ बना गठबंधन.
लालू की छत्रछाया
नीतीश का जन्म 1 मार्च 1951 को बिहार के बख्तियारपुर जिले में हुआ था. उन्होंने पटना स्थित बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से इंजीनियरिंग में बीएससी किया. जे.पी. आंदोलन में शामिल होने से कुछ महीनों पहले ही फरवरी 1973 में उनका विवाह हुआ था और जल्द ही उन्हें मेंटीनेंस ऑफ इंटर्नल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) के तहत हिरासत में ले लिया गया. मंजू सिन्हा के साथ उनकी शादी से एक बेटा है, दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के दो साल बाद 2007 में लंबी बीमारी के बाद उनकी मृत्यु हो गई थी.
झारखंड के गठन से 15 साल पहले 1985 में उन्होंने संयुक्त बिहार की विधानसभा में पहली बार प्रवेश किया. अगले कुछ वर्षों में उन्होंने लोकसभा सदस्य और केंद्रीय मंत्री के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में भी दबदबा बनाया.
1990 के दशक में रास्ते अलग होने से पहले तक नीतीश को लालू की छाया के तौर पर देखा जाता था जिन्होंने कभी खुद के लिए लाइमलाइट की अपेक्षा नहीं की. एक अंतर्मुखी व्यक्ति के रूप में उन्हें सत्ता की तड़क-भड़क से दूर रहने वाला माना जाता रहा है.
नीतीश कुमार जब (1998 से 1999 के बीच) रेल मंत्री थे तब पटना रेलवे स्टेशन के अधिकारी एक दिन यह देखकर हतप्रभ रह गए कि उनकी पत्नी ट्रेन की टिकट खरीदने के लिए कतार में खड़ी थीं. बताया जाता है कि तुरंत ही एक रेलवे अधिकारी ने जाकर टिकट खरीदने के लिए उनसे पैसे लिए.
उनके बहनोई स्वर्गीय प्रभात कुमार, जो एक जूनियर रेलवे अधिकारी थे, को टेम्पो से घर जाते देखा जाता था. जदयू के एक नेता ने कहा, ‘लेकिन वह नीतीश कुमार हैं. लालू के विपरीत उन्होंने कभी परिवार को राजनीति में नहीं मिलाया.’
संकट भरी शुरुआत
लालू से अलग होने के बाद नीतीश की समता पार्टी का पहली बार चुनाव मैदान में उतरना किसी आपदा से कम नहीं था, जिसे स्वर्गीय जॉर्ज फर्नांडीज और उन्होंने 1994 में मिलकर स्थापित किया था. बिहार के विभाजन से पहले 324 सदस्यीय विधानसभा में समता पार्टी को सिर्फ सात सीटें हासिल हुई थीं.
नीतीश के एक पुराने सहयोगी ने बताया, ‘उस समय लालू की तरफ से नीतीश कुमार को माफ किए जाने और फिर से पार्टी में शामिल होने को कहने के लिए उनके घर जाने को लेकर काफी बातें हुईं. लेकिन लालू कभी नहीं गए और इसी के बाद नीतीश कुमार ने जाति और गठबंधन की राजनीति शुरू कर दी. नीतीश और उनके संरक्षक फर्नांडीज ने भाजपा के साथ गठबंधन किया और 1998 और 1999 में पार्टी ने लोकसभा की क्रमशः छह और 12 सीटें जीतीं.
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(नीतीश ने फर्नांडीज को सम्मानित पद पर रखा. पिछले साल पूर्व रक्षा मंत्री की मृत्यु के बाद नीतीश ने अपना संयम खो दिया और उनके साथ के अपने दिनों को याद करते हुए फूटकर रो पड़े)
बतौर केंद्रीय रेल मंत्री उन्होंने विकास कार्यों को मजबूती से आगे बढ़ाने वाले एक नेता की छवि कायम की, क्योंकि वह तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ निकटता के कारण कई केंद्रीय परियोजनाओं को बिहार तक लाने में सफल रहे थे.
हालांकि, राज्य में 11 नई ट्रेन और सात मेगा प्रोजेक्ट शुरू कराने और ‘विकास पुरुष’ की एक छवि बना लेने के बावजूद 2004 में उन्हें अपने लोकसभा क्षेत्र बाढ़ में हार का सामना करना पड़ा. तब उन्हें अहसास हुआ कि केवल विकास पर्याप्त नहीं है.
उस समय उन्होंने इस संवाददाता से कहा था, ‘बाढ़ में हार एक व्यक्तिगत त्रासदी है. मुझे भरोसा ही नहीं हो रहा कि मतदाताओं के लिए विकास का कोई मतलब ही नहीं है. लेकिन अब मैं लालू को उनके ही खेल में हरा दूंगा.’
फरवरी 2005 के चुनाव में जब त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति पैदा हो गई तब नीतीश ने अपना पूरा ध्यान ईबीसी, 156 छोटी जातियों के इस समूह का कुल वोटबैंक 29 प्रतिशत है, और आठ फीसदी वोट वाले कुर्मियों व कुशवाहों के बीच ‘लव-कुश वाले रिश्तों’ पर केंद्रित करना शुरू किया. (लव और कुश हिंदू देवता राम और सीता के पुत्र थे और रामायण के अनुसार, कुर्मी लव के वंशज हैं और कुशवाह कुश के हैं.)
चूंकि, भाजपा के बारे में माना जाता था कि उसे उच्च जातियों का समर्थन हासिल है, इसलिए इस गठबंधन के पास खुद का एक मजबूत आधार बन गया था.
नवंबर 2005 के चुनाव से पहले दिवंगत भाजपा नेता अरुण जेटली ने सुझाव दिया कि नीतीश को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया जाए. इसी का नतीजा था कि गैर-यादव ओबीसी का एक बड़ा धड़ा एनडीए के पाले में आ गया और गठबंधन ने एकतरफा जीत हासिल की.
अपने पहले कार्यकाल के दौरान नीतीश ने जाति की राजनीति के साथ समान रूप से सड़कों, अस्पतालों और स्कूलों के निर्माण जैसे कार्यों पर जोर दिया- पंचायत और नगर निकायों में ईबीसी आरक्षण की व्यवस्था की और महादलित वोट बैंक बनाया (शुरू में पासवान समुदाय को इससे बाहर रखा गया था लेकिन अंततः राज्य के सभी 22 दलित समुदायों को शामिल करके इसका विस्तार किया गया.)
इसके अलावा उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल करने वाली लड़कियों के लिए मुफ्त साइकिल और छात्रवृत्ति की शुरुआत की. उन्होंने नगरपालिका और पंचायत निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण भी शुरू किया, और लाभार्थियों को ब्याज मुक्त कर्ज मुहैया कराने के उद्देश्य से जीविका पहल के तहत महिलाओं के नेतृत्व वाले स्वयं सहायता समूहों की शुरुआत की.
कुछ समय के लिए भाजपा से दूरी
2013 में कथित तौर पर नरेंद्र मोदी के एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नामांकन को लेकर आशंकाओं के चलते नीतीश भाजपा से अलग हो गए, लेकिन यह निर्णय महंगा साबित हुआ. 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू को बमुश्किल 15 फीसदी वोट मिले. उन्होंने बाद में 2015 में लालू और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन का गठन किया और इस गठबंधन ने उस साल विधानसभा चुनाव जीता. गठबंधन 2017 में टूट गया और नीतीश फिर भाजपा के साथ आ गए.
इस सबके बीच ईबीसी और महिलाओं के कल्याण के लिए उठाए गए उनके कदमों ने उन्हें लोकप्रिय बनाए रखा. उनकी सीटें काफी कम होने- मंगलवार देर रात को भाजपा की 74 सीटों की तुलना में जदयू को 43 सीटें ही मिलीं- के बावजूद भाजपा के लिए उसे नजरअंदाज करना बहुत मुश्किल होगा, खासकर तब तक जब तक उसकी बिहार की राजनीति में दिलचस्पी है. असल सवाल यह है कि अब जबकि भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गई है, वह इतनी कम सीटों के साथ राज्य में सरकार कैसे चलाएंगे.
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