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Thursday, 25 April, 2024
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नारायण राणे कहते हैं- मैं सभी के लिए एक जिताऊ नेता से बढ़कर हूं, लेकिन आंकड़े कुछ और बयां करते हैं

नारायण राणे ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1970 के दशक में शिवसेना के साथ की थी, 2005 में पार्टी छोड़ दी और अंततः भाजपा में शामिल होने से पहले कुछ समय के लिए कांग्रेस का भी हाथ थामा. उन्हें कभी कोंकण के एक ताकतवर नेता के तौर पर जाना जाता था.

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मुंबई: केंद्रीय मंत्री नारायण राणे को मंगलवार को अग्रिम जमानत दिए जाने से इनकार कर दिया गया और उद्धव ठाकरे को थप्पड़ मारने वाली टिप्पणी के मामले में उनकी गिरफ्तारी हो गई, जो उन्होंने भारत के स्वतंत्रता वर्ष के बारे में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की अज्ञानता के संदर्भ में की थी, और उन्हें आधी रात के बाद ही जमानत मिल पाई.

एक दिन बाद मुंबई के जुहू उपनगर स्थित अपने बंगले पर बैठे राणे, जो शिवसेना के पूर्व नेता रहे हैं, ने एक प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित किया और इस दौरान वह आत्मविश्वास से लबरेज नजर आए. उन्होंने कहा, ‘शिवसेना को बढ़ाने में मेरी बड़ी भूमिका रही है. आज के इन नेताओं में से कोई भी उस समय नहीं था…आप में से कोई (शिवसैनिक) मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. मैंने खुद को सभी के लिए एक जिताऊ नेता से बढ़कर साबित किया है.’

हालांकि, आंकड़े राणे के इस विश्वास का समर्थन नहीं करते हैं.

पिछले दो दशकों के चुनावी आंकड़ें दर्शाते हैं कि राणे, जिन्हें कभी कोंकण के एक ताकतवर नेता के तौर पर जाना जाता था, इस क्षेत्र में अपनी पकड़ खोते जा रहे हैं. कोंकण क्षेत्र में मुंबई, ठाणे, रायगढ़, रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग जिले आते हैं.

1990 में पहली बार सिंधुदुर्ग के मालवां निर्वाचन क्षेत्र से विधायक बने राणे का इस जिले के साथ-साथ कुछ हद तक पड़ोसी जिले रत्नागिरी में भी राजनीतिक प्रभाव माना जाता रहा है.

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उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1970 के दशक में शिवसेना के साथ की थी, 2005 में पार्टी छोड़ी और कांग्रेस में शामिल हो गए. वह 2017 में कांग्रेस से बाहर हो गए और भाजपा के साथ गठबंधन करते हुए अपना खुद का संगठन—महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष—बनाया. अंततः 2019 में उन्होंने अपनी पार्टी का भाजपा में विलय कर दिया.

1999 से सिंधुदुर्ग और रत्नागिरी जिलों के विधानसभा और लोकसभा चुनाव परिणामों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि न तो राणे के बाहर होने से शिवसेना को कोई बहुत नुकसान हुआ, और न ही उनकी उपस्थिति ने उन पार्टियों—कांग्रेस और भाजपा—को कोई खास राजनीतिक फायदा पहुंचाया जिनमें वे बाद में शामिल हुए थे.

राजनीतिक टिप्पणीकार हेमंत देसाई ने दिप्रिंट को बताया कि ‘शिवसेना रत्नागिरी-सिंधुदुर्ग में मजबूत थी, लेकिन राणे का प्रभाव काफी हद तक सिंधुदुर्ग जिले तक सीमित था, वह भी तब जब वह शिवसेना के साथ थे.’

उन्होंने कहा, ‘लेकिन, समय के साथ राणे ने अपना यह विधानसभा क्षेत्र गंवा दिया. उनके बेटे नीलेश वहां (2014 में) लोकसभा चुनाव हार गए, और अब सिंधुदुर्ग में भी उनका दबदबा काफी घट गया है.’


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विधायक के तौर पर राणे का सफर

नारायण राणे पहली बार मालवां विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए थे. उन्होंने शिवसेना प्रत्याशी के तौर पर 1995, 1999 और 2004 में फिर से यह सीट जीती.

शिवसेना छोड़ने के बाद नारायण राणे ने 2005 में मालवां विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर लड़ा और इस सीट पर अपनी पकड़ बनाए रखी, जिसमें शिवसेना उम्मीदवार की जमानत तक जब्त हो गई.

2009 के परिसीमन के बाद मालवां विधानसभा क्षेत्र का अस्तित्व खत्म हो गया और राणे ने सिंधुदुर्ग के कुडाल से चुनाव लड़ा, जिसमें उन्होंने जीत हासिल की.

2014 में शिवसेना ने राणे को निर्वाचन क्षेत्र से बाहर कर दिया. शिवसेना के वैभव नाइक ने राणे को 10,376 मतों से हराया. नाइक ने 2019 में निर्दलीय रंजीत देसाई को हराया, जिन्हें राणे ने अपने महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष की तरफ से मैदान में उतारा था.

2015 में राणे ने बांद्रा पूर्व विधानसभा क्षेत्र, जहां ठाकरे का निवास मातोश्री है, से उपचुनाव लड़कर महाराष्ट्र विधानसभा में वापसी की कोशिशें की. यह सीट शिवसेना विधायक बाला सावंत के निधन के कारण खाली हुई थी.

शिवसेना ने राणे के खिलाफ सावंत की पत्नी तृप्ति सावंत को मैदान में उतारा और उन्हें हरा दिया. 2016 में कांग्रेस ने राणे की महत्वाकांक्षाएं पूरी करते हुए उन्हें एमएलसी सीट के लिए मैदान में उतारा और उन्होंने जीत भी हासिल की.

2017 में कांग्रेस छोड़ने और अपनी पार्टी बनाने के बाद दिप्रिंट से बात करते राणे ने कहा था, ‘2019 तक मैं यहां हूं, उसके बाद मैं दिल्ली जाना चाहूंगा.’

भाजपा ने राणे की महत्वाकांक्षाओं को उनकी तय समयसीमा से थोड़ा पहले ही पूरा कर दिया. पार्टी ने 2018 में उन्हें राज्यसभा सीट जीतने के लिए समर्थन दिया और तीन साल बाद उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी जगह दे दी गई.

सिंधुदुर्ग-रत्नागिरी में शिवसेना मजबूत

पिछले चुनावों के आंकड़ों बताते हैं कि राणे के शिवसेना से बाहर होने के बाद केवल पहले लोकसभा और विधानसभा चुनाव को छोड़ दें तो उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली पार्टी रत्नागिरी-सिंधुदुर्ग बेल्ट में मजबूत ही हुई है.

1999 और 2004 के विधानसभा चुनावों में शिवसेना ने दोनों जिलों की 11 विधानसभा सीटों में से क्रमशः आठ और सात पर जीत हासिल की.

2009 में परिसीमन के बाद रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग जिलों में विधानसभा सीटों की कुल संख्या आठ ही रह गई, जिनमें से शिवसेना ने तीन पर जीत हासिल की. पार्टी सिंधुदुर्ग की तीन सीटों में से एक पर भी जीत हासिल नहीं कर पाई (उसने दो पर चुनाव लड़ा था). हालांकि, उसके तत्कालीन सहयोगी दल भाजपा को जिले के तीन निर्वाचन क्षेत्रों में से एक पर सफलता मिली.

राणे के कांग्रेस में आने के साथ पार्टी और उसकी सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने सिंधुदुर्ग की अन्य दो सीटों—राणे के निर्वाचन क्षेत्र कुडाल और सावंतवाड़ी पर कब्जा कर लिया. उसी वर्ष कांग्रेस ने 1991 के बाद पहली बार रत्नागिरी-सिंधुदुर्ग लोकसभा सीट भी जीती, जहां से राणे के बेटे नीलेश ने जीत हासिल की. 1996 के बाद से इस सीट पर शिवसेना का कब्जा रहा है.

हालांकि, केवल पांच वर्षों में शिवसेना जिले में अपने नुकसान से उबर आई थी. 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने रत्नागिरी-सिंधुदुर्ग संसदीय क्षेत्र को भी फिर से अपने खाते में कर लिया, जिसे वह 2019 के चुनावों में भी बचाने में सक्षम रही. उसी वर्ष यानी 2014 के विधानसभा चुनाव में दोनों जिलों में शिवसेना का प्रदर्शन आठ में से पांच सीटों पर पहुंचा और 2019 में यह और सुधरकर आठ में से छह सीटों पर पहुंच गया.

भाजपा जहां राणे के समर्थन से कोंकण के जिलों में अपनी स्थिति मजबूत होने की उम्मीद कर रही है, 2019 के विधानसभा चुनावों में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री के साथ पार्टी के गठजोड़ ने उसे केवल एक विधायक दिया था—राणे के पुत्र नितेश यहां कंकावली निर्वाचन क्षेत्र से जीते थे.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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