कोलकाता: दिप्रिंट को मिली जानकारी के मुताबिक ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और प्रद्योत किशोर देबबर्मा के तिप्राहा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन (टीआईपीआरए) के बीच त्रिपुरा में एक गठबंधन के लिए पूरी सक्रियता से बातचीत चल रही है, जहां 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं.
दोनों दल वाम-कांग्रेस शासन के पतन के बाद और भाजपा शासित राज्य में बढ़ती सत्ता-विरोधी लहर से उपजी राजनीतिक रिक्तता को भरने की कोशिश कर रहे हैं.
ममता बनर्जी के भतीजे और तृणमूल के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी पिछले हफ्ते त्रिपुरा में थे, जबकि शाही वंशज देबबर्मा ने अपने राज्य में उभरते राजनीतिक समीकरण पर चर्चा के लिए जुलाई के शुरू में कोलकाता में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री से मुलाकात की थी.
देबबर्मा, जिन्हें प्रद्योत माणिक्य के नाम से भी जाना जाता है, ने दिप्रिंट के साथ खास बातचीत में कहा कि अपने राज्य में आदिवासी समुदाय को ‘संवैधानिक अधिकार’ दिलाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं.
एक ‘मूल त्रिपुरी’ के तौर पर पहचान रखने वाले देबबर्मा ने कहा कि इसके मायने ‘सिर्फ स्वायत्त परिषद’ से कहीं ज्यादा होंगे.
उन्होंने कहा, ‘मैं अपने आदिवासी समुदाय के लोगों के लिए संवैधानिक गारंटी का लिखित आश्वासन चाहता हूं. कोई भी राजनीतिक दल जो इस पर सहमत हो और लिखित करार देने के लिए प्रतिबद्ध हो, उसे मेरा समर्थन मिलेगा. मैंने कोलकाता में ममता बनर्जी और अभिषेक से मुलाकात की है और इन पर विस्तार से चर्चा की है.’
टीआईपीआरए प्रमुख ने कहा कि ममता उन मुद्दों को समझती हैं जो वह उठा रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘मैं ममता दीदी का बहुत सम्मान करता हूं क्योंकि उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़ा, जैसा मैंने भी किया था, और अकेले ही वामपंथ को बाहर कर दिया. वह संसद में पहले मेरी मां और फिर मेरे पिता के साथ थीं. मेरा मानना है कि इस बार त्रिपुरा में उनकी स्थिति मजबूत है. दीदी ने मेरे उठाए मुद्दे को समझा है. मैं चाहता हूं कि वह इसे संसद में भी उठाएं.’
टीआईपीआरए के एक अन्य वरिष्ठ सदस्य ने तृणमूल कांग्रेस के साथ संभावित गठबंधन की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘अगर हम साथ आते हैं, तो 60 में से 58 सीटें तक जीत सकते हैं. जमीनी स्तर पर भाजपा के प्रति गंभीर आक्रोश है. वे खत्म हो जाएंगे.’
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त्रिपुरा की राजनीति
इस साल पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में अपनी शानदार जीत से उत्साहित तृणमूल कांग्रेस ने पड़ोसी राज्य त्रिपुरा में अपनी राजनीतिक गतिविधियां तेज कर दी हैं.
टीएमसी 1998 में अपने गठन के बाद से ही त्रिपुरा में मौजूद रही है. हालांकि, पार्टी 2016 में एक बार छोड़कर, कभी भी महत्वपूर्ण राजनीतिक स्थिति में नहीं रही. उस समय कांग्रेस के छह विधायक पार्टी में चले गए.
इन विधायकों ने बाद में 2017 में भाजपा के समर्थन में अपनी निष्ठा बदल ली.
2018 के विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने 60 में से 24 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन कोई जीत नहीं पाई और केवल 0.3 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया.
36 सीटों और 43.59 प्रतिशत वोट शेयर के साथ चुनाव जीतने वाली भाजपा ने सरकार बनाई, जबकि लगभग 25 वर्षों तक राज्य पर शासन करने वाली माकपा को 16 सीटें और लगभग 42 प्रतिशत वोट मिले. स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन (आईपीएफटी), जो अब भाजपा के साथ गठबंधन कर चुकी है, ने आठ सीटें जीती थीं.
हालांकि, भाजपा का जनाधार खिसक रहा है.
त्रिपुरा में 60 विधानसभा सीटों के अलावा एक स्वायत्त जिला परिषद भी है जो आदिवासी बहुल क्षेत्रों का नियंत्रण संभालती है. 1982 में त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद का गठन किया गया था.
इस साल अप्रैल में सत्तारूढ़ दल स्वायत्त जिला परिषद चुनाव में टीआईपीआरए से हार गया, जिसने परिषद की 28 सीटों में से 18 सीटें जीतीं. भाजपा को नौ सीटें मिली थीं.
त्रिपुरा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष देबबर्मा ने 2019 में ही टीआईपीआरए को लॉन्च किया था.
तृणमूल के एक शीर्ष नेता, जो त्रिपुरा में अभिषेक बनर्जी की कोर टीम में शामिल हैं, ने कहा, ‘हम बुनियादी तैयारियों के बिना बंगाल से बाहर नहीं निकले हैं. हमारी एजेंसियों ने त्रिपुरा में बहुत शोध किया और पाया कि त्रिपुरा में कम से कम 31 प्रतिशत भागीदारी वाली आदिवासी आबादी के बीच जबर्दस्त सत्ता विरोधी लहर है. हम टीआईपीआरए के साथ बातचीत कर रहे हैं, अगर गठबंधन होता है तो हमें पूरा भरोसा है कि 2023 के चुनावों में राज्य में भाजपा खत्म हो जाएगी.’
पश्चिम बंगाल के एक वरिष्ठ मंत्री और त्रिपुरा में टीएमसी की राजनीतिक गतिविधियों पर गहन नजर रखने वाले प्रमुख नेता मलॉय घटक ने भी दिप्रिंट से बात करते कहा कि आदिवासी राज्य में मुख्य आधार हैं.
उन्होंने कहा, ‘पहले आंकड़े देखिए. त्रिपुरा में आदिवासी आबादी लगभग 30 से 31 प्रतिशत है और लगभग 7 से 8 प्रतिशत अल्पसंख्यक हैं. 60 सीटों में से कम से कम 20 में आदिवासियों का दबदबा है, जबकि कम से कम पांच पर अल्पसंख्यक निर्णायक फैक्टर हैं.’
उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा, स्थानीय लोगों के बीच हमने बिप्लब देब के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के खिलाफ नाराजगी महसूस की है. लोग नौकरियां और विकास चाहते हैं. हम दीदी की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को सामने रख रहे हैं. इसके अलावा, हमें स्थानीय मूल पार्टियों का भी समर्थन हासिल है. एक पूर्व मंत्री और एक पूर्व विधायक सहित कम से कम आधा दर्जन कांग्रेस नेता पहले ही हमारे साथ जुड़ चुके हैं.’
घटक पिछले हफ्ते अभिषेक बनर्जी के साथ त्रिपुरा में ही थे. वह 10 अगस्त को फिर त्रिपुरा यात्रा पर पहुंचेंगे क्योंकि अभिषेक 12 अगस्त को अगरतला पहुंचने वाले हैं.
घटक ने कहा, ‘लगातार राजनीतिक कार्यक्रम होंगे. हम इस बार पीछे नहीं हटेंगे.’
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‘यह सिर्फ टीएमसी का दिवास्वप्न’
सत्तारूढ़ भाजपा और माकपा दोनों ने त्रिपुरा में टीएमसी के पैर जमा लेने की संभावनाओं को खारिज कर दिया.
राज्य भाजपा महासचिव टिंकू रॉय ने कहा, ‘त्रिपुरा के लोगों ने बंगाल में राजनीतिक हिंसा और तुष्टीकरण की राजनीति को देखा है. कोई रोजगार सृजन भी नहीं हुआ है.’
रॉय ने कहा, ‘ममता बनर्जी अब राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जगह बनाने का दिवास्वप्न देख रही हैं, जिसके लिए उन्हें अपने क्षेत्रीय पार्टी के टैग को हटाने की जरूरत है. उन्हें त्रिपुरा एक आसान लक्ष्य नजर आता है क्योंकि यह अन्य राज्यों की तुलना में बंगाल के करीब है, लेकिन उन्हें यहां पर करारा झटका लगेगा.’
उन्होंने कहा, ‘तृणमूल कांग्रेस त्रिपुरा की राजनीति में नई नहीं है. वो दशकों से यहां है लेकिन कोई छाप नहीं छोड़ पाई. उसके सभी नेता 2017 में भाजपा में शामिल हो गए थे.’
स्वायत्त परिषद के हालिया चुनावों में भाजपा की हार के बारे में रॉय ने कहा, ‘किसी को भी नतीजों का विश्लेषण आंकड़ों के आधार पर ही करना चाहिए. हमने 11 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें से नौ पर जीत हासिल की. हमारा स्ट्राइक रेट 85 फीसदी है. लेकिन हमारा गठबंधन सहयोगी (आईपीएफटी) सभी सीटें हार गया और इसलिए हमें जीत हासिल नहीं हो सकी.
माकपा के राज्य महासचिव गौतम दास ने कहा कि टीएमसी उनकी पार्टी को कम करके आंक रही है.
उन्होंने कहा, ‘भाजपा और तृणमूल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. त्रिपुरा के लोग वामपंथी दलों पर भरोसा करते हैं और इसलिए हमारा वोट शेयर (2018 विधानसभा चुनाव में) लगभग 42 प्रतिशत रहा था. हम जीत केवल इसलिए नहीं पाए क्योंकि कुछ संगठनात्मक कमजोरियां थी. उन सभी समस्याओं को हल कर लिया गया है.’
दास ने कहा, जहां तक टीआईपीआरए की बात है तो आदिवासियों के बीच देवबर्मा की पैठ है. लेकिन उन्होंने ‘उन्हें झूठे सपने बेचे हैं.’
दास ने आगे कहा, ‘उन्होंने चुनाव से पहले जनजातियों के लिए संवैधानिक गारंटी की मांग की. लेकिन जीतने के बाद, वह बिप्लब देब के साथ अमित शाह से मिलने दिल्ली गए. ऐसा लगता है कि उन्होंने भाजपा के साथ हाथ मिला लिए हैं.’
हालांकि, देबबर्मा का कहना है कि उनके सभी वरिष्ठ राजनेताओं के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध हैं.
उन्होंने कहा, ‘मेरे सभी वरिष्ठ राजनेताओं के साथ अच्छे संबंध रहे हैं. मैंने दिल्ली में सोनिया जी और प्रियंका गांधी से मुलाकात की और अमित शाह से भी मिला. इसमें कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के क्षेत्रीय दलों के विपरीत मैं पैसों या किसी और चीज के लिए अपने लोगों के हितों को कभी ताक पर नहीं रखूंगा. मैं लोगों के लिए लड़ूंगा.’
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