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Friday, 22 November, 2024
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‘एकांतवासी, उदासीन, मनमौजी’- उद्धव ठाकरे शिवसेना विधायकों को क्यों एक साथ नहीं रख पाए?

बागी शिवसेना खेमे का दावा है कि विधायक कभी मुख्यमंत्री से मिल तक नहीं पाते थे और उन्हें ‘उद्धव के करीबी कुछ लोगों’ के जरिये उनसे संपर्क साधना पड़ता था. उन्होंने एमवीए में अपने साथ ‘सौतेले व्यवहार’ का आरोप भी लगाया है.

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मुंबई: बात वर्ष 2004 की है, जब भाजपा और शिवसेना के बीच एक मजबूत गठबंधन था. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा चुनाव फिर लड़ने और केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की वापसी सुनिश्चित करने के लिए मैदान में उतर रहे थे. शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने उन्हें अपना पूरा समर्थन दे रखा था.

हालांकि, शिवसेना पूरे जोर-शोर से आम चुनाव के प्रचार में लगी थी, लेकिन इस बीच बालासाहेब के बेटे और महाराष्ट्र में पार्टी मामलों के प्रभारी उद्धव ठाकरे पूरे सियासी परिदृश्य से कहीं गायब थे.

उस समय भाजपा के चुनाव प्रभारी रहे और गठबंधन की अहम जिम्मेदारी संभाल रहे प्रमोद महाजन को संयुक्त चुनाव अभियान पर चर्चा करने के लिए उद्धव से बात करने की जरूरत थी, लेकिन शिवसेना नेता ‘संवाद के लिए अनुपलब्ध’ बने रहे. बताया जाता है कि कुछ ताबड़तोड़ फोन कॉल के बाद महाजन यह पता लगाने में कामयाब रहे कि उद्धव किसी अफ्रीकी जंगल में वन्यजीवों की तस्वीरें खींच रहे हैं.

अगले 15 सालों में उद्धव ने एक राजनेता के तौर पर अपने कौशल को बढ़ाया, अधिक मुखर हुए और अंतत: 2019 में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में कामयाब रहे, लेकिन ‘जनता और अपनी पार्टी के लोगों के प्रति उदासीनता’ उनकी कार्यशैली का एक ट्रेडमार्क बन गई.

अब, वह एक बड़ी बगावत का सामना कर रहे हैं जिसने उनकी सरकार गिरने का खतरा उत्पन्न कर दिया है, यह 2012 में बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद से पार्टी में सबसे बड़ा विद्रोह है.

शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी विधायकों के एक समूह ने उद्धव के नेतृत्व के खिलाफ बगावत कर दी है. विद्रोही खेमा—जो 55 शिवसेना विधायकों में से 42 के समर्थन का दावा करता है—फिलहाल भाजपा शासित राज्य असम के गुवाहाटी में डेरा डाले हुए हैं.

उनकी मांग है कि शिवसेना कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के साथ महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन से अलग हो जाए और एक बार फिर भाजपा से हाथ मिला ले.

यही नहीं, बागी खेमे की तरफ से गुरुवार को जारी एक पत्र में आरोप लगाया गया है कि विधायक कभी मुख्यमंत्री से मिल तक नहीं पाते थे और उन्हें ‘उद्धव के करीबी कुछ लोगों’ के जरिये उनसे संपर्क साधना पड़ता था.

मुंबई यूनिवर्सिटी की पूर्व प्रोफेसर डॉ. उत्तरा सहस्रबुद्धे के मुताबिक, ‘शिवसेना जैसी पार्टी में शिकायतें दूर करने के लिए कोई तंत्र नहीं है. उद्धव ठाकरे ने अपने कैडर के साथ संपर्क खो दिया है, जो बीएमसी, पुलिस, राजस्व विभाग आदि में एनसीपी के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए बाध्य थे और गठबंधन में अपने साथ दोयम दर्जे के व्यवहार से असंतुष्ट थे.’

कैडर के बीच नाराजगी का एक प्रमुख कारण यह भी है, जैसा वे खुद कहते हैं कि भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस के हाथों लगातार निशाना बन रहे थे.

उनका आरोप है कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री को एमवीए सदस्यों को निशाना बनाने में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) का पूरा साथ मिल रहा है, और राज्य में गृह विभाग को संभालने वाली एनसीपी इस पर भाजपा को जवाब देने में कमजोर रही है. शिवसेना के सदस्यों के मुताबिक, गृह मंत्रालय पर पकड़ कमजोर होना उद्धव की एक बड़ी नाकामी है.

उदाहरण के तौर पर, मार्च में राज्य के गृह मंत्री दिलीप वालसे-पाटिल ने फडणवीस के इस आरोप की सीआईडी जांच का आदेश दिया कि भाजपा नेताओं को फंसाने की साजिश एमवीए नेताओं ने रची थी.

तमाम शिवसैनिकों की राय है कि वैचारिक मोर्चे पर पार्टी ने उद्धव के नेतृत्व में अपने कठोर हिंदुत्ववादी रुख को कमजोर ही किया है, जिसकी वजह से भाजपा के इस क्षेत्र में शिवसेना की जगह लेने का रास्ता खुला.

शिंदे के करीबी शिवसेना विधायक के मुताबिक, नेता की तरफ से उद्धव के समक्ष वैचारिक अलगाव का मुद्दा उठाया भी गया था लेकिन कथित तौर पर मुख्यमंत्री ने कहा कि ‘सरकार चलाने के लिए गठबंधन में समझौता करना होगा.’

शिवसेना सांसद और पार्टी प्रवक्ता संजय राउत ने गुरुवार को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि ‘जो भी (विधायकों की) मांगें हैं, उन्हें सुना जाएगा लेकिन उन्हें 24 घंटे के भीतर मुंबई आना होगा.’

उद्धव से मिल पाना मुश्किल था

शिवसेना कार्यकर्ता पार्टी नेता उद्धव ठाकरे के साथ संपर्क न हो पाने का आरोप लगाते रहे हैं.

जब कोविड की मार पड़ी तो उद्धव ने एहतियातन खुद को मुंबई स्थित ठाकरे निवास मातोश्री तक सीमित कर लिया, और राज्य का कामकाज वर्चुअली संभालते रहे. महाराष्ट्र में ऑक्सीजन आपूर्ति और बेड की उपलब्धता सुनिश्चित करने जैसे मुद्दों पर सिविल सेवकों के साथ समन्वय आदि के लिए वह टेलीविजन पर संबोधन का इस्तेमाल कर रहे थे.

हालांकि, विधायकों और पार्टी के लोगों के साथ उनका संपर्क कथित तौर पर काफी कम हो गया.

माना जाता है कि रहा-बचा संपर्क पिछले साल उनकी रीढ़ की हड्डी की सर्जरी के बाद और घट गया—उन्होंने नवंबर 2021 और अप्रैल 2022 के बीच राज्य सचिवालय का दौरा तक नहीं किया.

शिवसेना के एक नेता ने दिप्रिंट को बताया कि पार्टी का कोई भी सदस्य उनके निजी सहायक मिलिंद नार्वेकर और शिवसेना नेताओं अनिल परब और संजय राउत के माध्यम से ही सीएम तक पहुंच पाता था.

एनसीपी नेता शरद पवार ने इस महीने के शुरू में भाजपा के महाराष्ट्र में तीन राज्यसभा सीटें जीतने पर जब यह कहते हुए फडणवीस की प्रशंसा की कि यह प्रदर्शन काफी हद तक विपक्षी नेता की लोगों को आकृष्ट करने की क्षमता का नतीजा है, इसे उद्धव के लोगों के विलगाव पर एक कटाक्ष के तौर पर देखा गया.

माना जाता है कि एमवीए सरकार का समर्थन करने वाले राज्य के अन्य छोटे दलों को भी ऐसा ही लगता है.

शिवसेना सूत्रों ने कहा कि मुख्यमंत्री ने आउटरीच बढ़ाने का काम एनसीपी नेता पवार को ‘आउटसोर्स’ कर दिया है. बहुजन विकास अघाड़ी अध्यक्ष हितेंद्र ठाकुर ने उद्धव से मिलना मुश्किल होने पर सार्वजनिक तौर पर अपनी चिंता जाहिर की तो शिवसेना ने उनसे मिलने के लिए सुनील राउत और राजन विचारे को नियुक्त कर दिया.

सूत्रों के मुताबिक, इस बीच, फडणवीस ने सीधे ठाकुर को फोन किया और उनसे समर्थन मांगा. बाद में, राज्यसभा चुनाव के दौरान ठाकुर ने कथित तौर पर शिवसेना उम्मीदवार को वोट नहीं दिया.

एनसीपी के एक पदाधिकारी ने कहा, ‘अपने कद और वरिष्ठता के बावजूद शरद पवार अभी भी व्यक्तिगत तौर पर नेताओं को बुलाते हैं, जबकि उद्धव ने यह काम नार्वेकर और राउत पर छोड़ रखा. राजनीति में इस तरह काम नहीं चलता है.’

इस बीच, शिवसेना के एक सदस्य ने बताया कि बाल ठाकरे कैसे लोगों से जुड़े रहने की कोशिश करते थे.

उक्त नेता ने कहा, ‘बालासाहेब के पास कई स्तर के नेता थे, जिनके माध्यम से उन्हें पार्टी में जो कुछ हो रहा था, उस पर पल-पल की जानकारी मिलती रहती थी. हालांकि, उद्धव पार्टी के भीतर से कई बार बगावत देखने के बाद अपने सबसे करीबियों को छोड़कर ज्यादातर लोगों पर भरोसा नहीं करते हैं. उन्होंने जननेता बनने के लिए विधायकों या जनता के साथ संवाद को मजबूत नहीं किया है.’

शिवसेना में बगावत का इतिहास

एकनाथ शिंदे की बगावत बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद से पार्टी के लिए ऐसी पहली बड़ी घटना सकती है, लेकिन शिवसेना अतीत में कई बगावतों का सामना कर चुकी है.

1991 में, शिवसेना के ओबीसी चेहरे छगन भुजबल ने 18 विधायकों के साथ पार्टी छोड़ दी. हालांकि, 12 उसी दिन पार्टी में लौट आए, भुजबल ने कांग्रेस को अपने समर्थन का वादा किया और बाद में एनसीपी में शामिल हो गए.

करीब 14 साल बाद नारायण राणे पार्टी से बाहर हो गए. वह 2005 में 11 विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हुए. राणे ने 2003 में उद्धव को पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में नामित करने के शिवसेना के फैसले को चुनौती दी थी. बाद में वह भाजपा में शामिल हुए और अभी केंद्रीय मंत्री हैं.

अगला बागी ठाकरे परिवार के भीतर से ही निकला. 2006 में उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे ने अपनी पार्टी—महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे)—बनाने के लिए शिवसेना छोड़ दी.

शिवसेना के एक सदस्य ने कहा, ‘यदि शिंदे 35 से अधिक विधायकों का समर्थन पाने में सफल हो जाते हैं, तो वह वो काम कर पाएंगे जो 1991 में छगन भुजबल नहीं कर सके. यहां तक कि राणे भी केवल 11 विधायकों का ही इंतजाम कर पाए थे.’

उन्होंने कहा, ‘अगर शिंदे 35 विधायकों के साथ शिवसेना छोड़ते हैं तो यह पार्टी के इतिहास में सबसे बड़ा विघटन होगा. यह दिखाएगा कि कैसे उद्धव हिंदुत्ववादी की राजनीति पर पकड़ खोते रहे हैं और भाजपा शिवसेना को खत्म करने के लिए बाघ पर सवार हो रही है, खासकर अगर उसने शिवसेना के गढ़ मुंबई-ठाणे क्षेत्र में जड़ें जमा लीं.

आदित्य का उदय

शिवसेना के एक पदाधिकारी के मुताबिक, ‘पार्टी के भीतर आदित्य ठाकरे के उदय ने एकनाथ खडसे जैसे कुछ एमवीए नेताओं में असुरक्षा की भावना को बढ़ाया ही है.’

सूत्रों ने कहा कि कई नेता आदित्य के अधिक मुखर होने से नाखुश हैं और उनके लिए जगह बनाने को तैयार नहीं हैं.

नेताओं ने बताया है कि कैसे एनसीपी नेता सचिन अहीर के शिवसेना में जाने से 2019 में वर्ली से आदित्य की आसान जीत सुनिश्चित हुई थी. जून में महाराष्ट्र विधान परिषद के चुनाव में उतारने के लिए शिवसेना ने अपने पुराने नेताओं के बजाये अहीर को तरजीह दी.

अब अगर सरकार बच जाती है तो फिर से नामित न किए जाने के कारण उद्योग मंत्री सुभाष देसाई जैसे शिवसेना के दिग्गज नेता को अपना मंत्रालय गंवाना पड़ सकता है.


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शिवसेना विधायकों की बगावत की कई वजहें

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राज्य का मौजूदा सियासी संकट शिवसेना के आंतरिक मतभेदों या उद्धव ठाकरे के अनुपलब्ध रहने से कहीं ज्यादा केंद्र की रणनीतियों का नतीजा है.

मुंबई यूनिवर्सिटी के एक राजनीतिक शोधकर्ता संजय पाटिल कहते हैं, ‘यह सिर्फ शिंदे की महत्वाकांक्षा नहीं है, बल्कि ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसियों का दबाव भी है जिसने शिवसेना के कई विधायकों को बगावत पर उतारू कर दिया है. प्रताप सरनाइक और यामिनी जाधव जैसे कई नेता, जो इस समय ईडी की नजर में हैं, शिंदे खेमे में शामिल हैं, जो उद्धव से भाजपा के साथ हाथ मिलाने का अनुरोध कर रहा है.’

ईडी ने शिवसेना सांसद भावना गवली को भी तलब किया है.

प्रशासनिक मोर्चे पर उद्धव की एनसीपी पर निर्भरता भी नाराजगी की एक बड़ी वजह है. मार्च में शिवसेना विधायक तानाजी सावंत—जो अब शिंदे के खेमे में हैं—ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि कैसे शिवसेना के मंत्रियों के नेतृत्व वाले विभागों को ‘राज्य के बजट आवंटन में मात्र 16 फीसदी धन प्रतिशत मिला, जबकि एनसीपी को 57 प्रतिशत और कांग्रेस को लगभग 30 प्रतिशत मिला.’

बजट एनसीपी नेता के अजीत पवार ने पेश किया था, जो वित्त विभाग संभालते हैं.

लगभग 20 विधायकों ने इस बारे में उद्धव को लिखा भी था लेकिन कथित तौर पर कोई जवाब नहीं दिया गया.

शिवसेना विधायक और शिंदे समर्थक गुलाबराव पाटिल ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि ‘एनसीपी प्रशासन पर नियंत्रण कर रही थी और हमारे साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा था.

उन्होंने कहा, ‘कैडर का मनोबल गिरा है. हम शक्तिहीन हैं. फंड एनसीपी के पास है, पुलिस उनके अधीन है. यह कैडर को अलग-थलग करता जा रहा है लेकिन उद्धव साहब को इसकी भनक तक नहीं लगी.’

हालांकि, शिंदे के बारे में सूत्रों का कहना है कि फडणवीस ने कुछ हद तक उनकी मदद की. वैसे भाजपा नेता की शुरुआती योजना तो एनसीपी को निशाना बनाने की थी, लेकिन अनुभवी नेता पवार ने उनके प्रयासों को 2019 में नाकाम कर दिया था.

पार्टी के एक पदाधिकारी ने कहा, ‘शिंदे अब ‘मूल शिवसेना’ के नेतृत्व की बात करके एक शातिर चाल चल रहे हैं, ताकि ये दर्शाया जा सके कि वो हिंदुत्व की राजनीति से पीछे नहीं हटी है, जबकि उद्धव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर ऐसा कर दिया था. शिंदे संकेत दे रहे हैं कि वह हिंदुत्व को बचाने के लिए भाजपा के साथ गठबंधन के लिए तैयार हैं. वह निश्चित तौर पर बीएमसी चुनाव जीतने की रणनीति बना रहे हैं. बीएमसी में शिवसेना का हिंदुत्व आधार छीन लेना और महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना की पकड़ को कमजोर करना भाजपा के मुफीद साबित होगा.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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