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Friday, 19 April, 2024
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क्या 2024 की चुनावी लहर पर सवार होकर भारत का नया Twitter पाएगा Koo ? क्या है राजनीतिक दलों का नजरिया

कुछ को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है, जबकि कुछ लोगों का कहना है कि यह ‘भारत के लिए अच्छा बैकअप’ है. सीईओ अप्रमेय राधाकृष्ण के मुताबिक, पार्टियां अपनी मूल भाषा में व्यापक जनाधार के बीच पैठ बढ़ाने के लिए इसका इस्तेमाल कर सकती हैं.

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नई दिल्ली: ‘लेकिन आप कू के बारे में क्यों लिख रही हैं.’ सोशल मीडिया हैंडल करने वाले कांग्रेस के एक सदस्य ने इस माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म पर प्रतिक्रिया मांगने मांगने पर यह सवाल उठाया.

फिलहाल, भाजपा आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय जैसे कुछ लोगों ही ट्विटर जैसे इस ऐप को गंभीरता से ले रहे हैं. लेकिन चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों का एक प्रमुख संचार माध्यम बनकर अपेक्षाकृत नए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म कू को उभरने का मौका मिल सकता है. भारत में ट्विटर का एक विकल्प माने जाने वाले इस ऐप को लेकर उम्मीद जताई जा रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान के यह कुछ उसी तरह हिट हो सकता है जैसे 2014 में ट्विटर हुआ था.

2014 के चुनावों से पहले ट्विटर के बारे में भारत में बहुत कम ही लोग जानते थे. उसके बाद से परिदृश्य एकदम बदल गया.

2014 का एक ट्विटर ब्लॉग का कहता है, ‘2009 के चुनावों में 6,000 ट्विटर फॉलोअर्स के साथ सिर्फ एक सक्रिय राजनेता था. इस लोकसभा चुनाव (2014) में ट्विटर लोगों के बीच पैठ बनाने और राजनीतिक कंटेंट को उन तक पहुंचाने का एक पसंदीदा माध्यम बन गया. कोई भी घटना ले लीजिए…यह ट्विटर पर छाई रही.’

ट्विटर ने सबसे ज्यादा ध्यान तब आकृष्ट किया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता के साथ संवाद के लिए इसे अपने एक प्रमुख मंच के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया. इसके बाद, अन्य मंत्रियों और सरकारी विभागों ने भी सूचनाओं और प्रतिक्रियाओं के लिए अमेरिकी माइक्रोब्लॉगिंग साइट का तेजी से उपयोग करना शुरू कर दिया.

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अब, जबकि 2024 के आम चुनाव का मौसम शुरू होने वाला है, तो क्या कू के लिए भी कोई ट्विटर मोमेंट आ सकता है?

इस बारे में कंपनी के सह-संस्थापक और सीईओ अप्रमेय राधाकृष्ण ने दिप्रिंट से कहा, ‘जहां तक राजनीति में प्रतिनिधित्व की बात है तो कू पर 20 से अधिक राजनीतिक दल और विभिन्न दलों के हजारों सदस्य सक्रिय हैं. 90 फीसदी भारतीय अंग्रेजी के बजाय अपनी मूल भाषा में संवाद करना पसंद करते हैं, कू राजनीतिक दलों के लिए अपनी पसंद की भाषा में व्यापक जनाधार के साथ जुड़ने का एक पसंदीदा मंच बन सकता है.’

कैसे हुई कू की शुरुआत

2020 में लॉन्च किया गया कू ऐप फरवरी 2021 में उस समय सुर्खियों में आया जब कंटेंट के मुद्दे को लेकर मोदी सरकार और ट्विटर के बीच तनातनी चल रही थी.

उस समय कू को केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल और नीति आयोग जैसी सरकारी एजेंसियों ने प्रोत्साहित किया. लग रहा था कि सरकार की अवज्ञा कर रहे अमेरिकी ऐप ट्विटर को ‘आत्मनिर्भर’ भारत का जवाब मिल गया था.

हालांकि, उपयोग के मामले में ट्विटर अभी कू से काफी आगे है. दिल्ली स्थित बिजनेस इंटेलिजेंस प्रोवाइडर कालागेटो के अप्रैल 2021 के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय यूजर्स प्रति सेशन औसतन लगभग 14 मिनट ट्विटर पर और सिर्फ 7 मिनट कू पर खर्च करते थे.

2021 के बाद कू ने कुछ और जोर पकड़ा. उदाहरण के तौर पर इसने कांग्रेस की उत्तर प्रदेश और बिहार इकाइयों के बीच जगह बनाने में सफलता हासिल की. वहीं, भाजपा की गुजरात, मध्य प्रदेश इकाइयों और आप की कर्नाटक, झारखंड इकाइयों ने कू पर अपने अकाउंट बनाए.

‘भारत के लिए एक अच्छा बैकअप’

सियासी रणनीतिकार अमिताभ तिवारी ने दिप्रिंट को बताया कि नए आने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म राजनीतिक दलों और चुनाव रणनीतिकारों से संपर्क करते हैं, उन्हें अपने मंच को आजमाने और जनता से जुड़ने के लिए इसका इस्तेमाल करने के लिए कहते हैं.

उन्होंने कहा, ‘फेसबुक, ट्विटर, टिकटॉक, शेयरचैट और कू जैसे प्लेटफॉर्म यह सब बिजनेस डेवलपमेंट और पॉलिसी एडवोकेसी के हिस्से के तौर पर करते हैं.’

हालांकि, तिवारी 2024 के आम चुनाव को एक ऐसा मौका मानते हैं जिसका उपयोग कू नए यूजर्स हासिल करने और मौजूदा यूजर्स की सक्रियता बढ़ाने के लिए कर सकता है.

उन्होंने कहा, ‘मैं संचार के संबंध में राजनीतिक दलों और नेताओं को परामर्श देता हूं. मैं कू का इस्तेमाल करने की भी सिफारिश करूंगा, सिर्फ इसलिए नहीं कि किसी पार्टी के पास इसका अकाउंट मेंटेन करने के लिए पर्याप्त धन और लोगों की टीम है, बल्कि इसलिए भी कि उन्हें ट्विटर यूजर्स से अलग एक ऑडियंस के बीच पैठ बनाने में मदद मिलेगी (खासकर यह देखते हुए कि कू ज्यादातर गैर-अंग्रेजी बोलने वालों को टारगेट करता है). इसलिए कू पर होने का कोई नुकसान नहीं है, अगर कुछ है तो सिर्फ फायदा.’

उन्होंने कहा कि कू भारत के लिए एक अच्छा बैक-अप है, खासकर अगर कभी ऐसी स्थिति आए जिसमें ट्विटर या किसी अन्य देश से संचालित होने वाला कोई अन्य प्लेटफॉर्म भारत में मुद्दों को दबाने की कोशिश करे या फिर सुरक्षा कारणों से भारत को राष्ट्रीय स्तर पर किसी अन्य देश के प्लेटफॉर्म को बंद करना पड़े.


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भाजपा अपना रही, दूसरों को खास रुचि नहीं

दिप्रिंट ने जिन सियासी नेताओं से संपर्क साधा, उनमें ज्यादातर भाजपा सदस्य थे जो कू की संभावनाओं के प्रति आशान्वित थे.

यह पूछे जाने पर कि क्या भाजपा 2024 के अभियान में कू का उपयोग करेगी और क्या यह ऐप भी देश में ट्विटर की तरह लोकप्रिय हो सकती है, अमित मालवीय ने कहा, ‘हम हर मंच का उपयोग करेंगे जहां हम लोगों से जुड़ सकते हैं और संवाद कर सकते हैं. कू निश्चित तौर पर उनमें से एक है और हमारे लिए एक महत्वपूर्ण मंच होगा. हम सोशल मीडिया ऐप्स की लोकप्रियता को लेकर किसी तरह की राय नहीं बनाते. उनमें से हर एक की कुछ अलग खासियत और अहमियत है और ये हमारी योजना का हिस्सा हैं.’

भाजपा दिल्ली के प्रवक्ता खेमचंद शर्मा का कहना है कि यह तथ्य कि कू भारत में बना है और निष्पक्ष माना जाता है, इसके पक्ष में काम करने वाला एक और फैक्टर है.

उन्होंने कहा, ‘कू एक स्वदेशी मंच है इसलिए सरकार और सभी राष्ट्रवादियों की प्राथमिकता में शुमार है…इसमें ट्रेंड और कंटेंट को लेकर अनुमान लगाने के लिए एक स्पष्ट और निष्पक्ष एल्गोरिदम भी है, इसलिए इस मंच का भविष्य बेहतर होगा.’

कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रमुख सुप्रिया श्रीनेत ने इस संबंध में टिप्पणी के लिए भेजे गए व्हाट्सएप मैसेज पर कोई जवाब नहीं दिया. हालांकि, कांग्रेस के एक करीबी सूत्र ने दिप्रिंट को बताया, ‘कोई कू से खास तवज्जो नहीं दे रहा है.’

आप के सोशल मीडिया ई-मेल एड्रेस पर भेजे गए ईमेल का कोई जवाब नहीं मिला. इस बीच, आप समर्थक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर गौरव राय का कहना है कि उन्हें कू के बारे में कोई खास जानकारी नहीं है.

आप के पूर्व आईटी प्रमुख और अब एक सियासी रणनीतिकार बन चुके अंकित लाल का कहना है कि ‘अगर चीजें अभी की तरह ही जारी रहीं’ तो कू को राजनीतिक दलों के बीच तरजीह मिलने की खास संभावना नजर नहीं आती है.

लाल इसके तीन कारण गिनाते हैं, ‘एक, इस प्लेटफॉर्म मंच पर तटस्थ इंफ्लूएंशर्स और नॉन-स्टेट एक्टर्स की अनुपस्थिति. दो, ओरिजनल कंटेंट का अभाव. यहां तक कि जो पार्टियों इस मंच पर सक्रिय भी है, उनका ज्यादातर कंटेंट शब्दश: वही होता है जो ट्विटर पर इस्तेमाल किया गया होता है. फिर, शेयरचैट जैसे अन्य देसी प्लेटफॉर्म से प्रतिस्पर्धा भी एक बड़ी वजह है.

उन्होंने आगे कहा कि आम चुनाव पूरे देश को प्रभावित करने वाली एक घटना होती है और यह किसी भी कंपनी के विकास के लिए अच्छा मौका होता है. किसी प्रोडक्ट को ‘राष्ट्रीय चुनाव से पहले बड़े पैमाने पर लॉन्च करने के लिए उसे ठीक से रोल आउट करने और यूजर्स को उसकी आदत डालने की जरूरत है.’

एक उदाहरण के साथ समझाते हुए, लाल ने कहा, ‘जब फेसबुक ने ‘लाइव’ फीचर लॉन्च किया, तो इसका पहली बार 2017 में यूपी और पंजाब चुनावों में और फिर उसके बाद हुए चुनावों में इस्तेमाल किया गया. इसके बाद जाकर ही विभिन्न दलों और नेताओं ने 2019 के आम चुनाव में इसका उपयोग करना शुरू किया.’

उन्होंने आगे कहा कि उन्हें अब तक कू की तरफ से इस तरह की प्रोडक्ट-स्तर की गतिविधि में शामिल होने की कोई योजना नहीं दिखाई दे रही है, जो कि किसी भी प्रोडक्ट के तेजी से विस्तार के लिए आवश्यक होता है.

हालांकि, कू ने 2021 के बाद से कुछ और प्रगति की है. उदाहरण के तौर पर ऐप कई दलों और उनके नेताओं को बतौर सत्यापन एक ‘प्रतिष्ठित’ पीला बैज देकर उन्हें आकर्षित करने में कामयाब रहा है.

ममता, योगी, वाईएसआर और गहलोत कू पर सक्रिय

अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस का कू अकाउंट अगस्त 2021 में शुरू हुआ था और इसके 124 हजार के करीब फॉलोअर्स हैं. पार्टी नेता और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का अकाउंट नवंबर 2022 में खुला और फॉलोअर्स का आंकड़ा 136 हजार है.

वाईएसआर कांग्रेस पार्टी का कू अकाउंट जून 2021 में शुरू हुआ और इसके लगभग 51 हजार फॉलोअर्स हैं. इसके नेता और आंध्र प्रदेश के सीएम वाईएस जगन मोहन रेड्डी के जून 2021 में शुरू किए गए अकाउंट के फॉलोअर्स 187 हजार के करीब हैं.

भाजपा, कांग्रेस और आप का कोई मेन कू अकाउंट नहीं है. हालांकि, राज्य-इकाइयों के अकाउंट जरूर बने हुए हैं. उदाहरण के तौर पर, भाजपा की गुजरात इकाई के फरवरी 2021 में बनाए गए अकाउंट में लगभग 177 हजार फॉलोअर्स हैं, इस साल जनवरी में बने कांग्रेस की बिहार इकाई के अकाउंट की फॉलोअर्स संख्या 223 हजार है और नवंबर 2021 में शुरू हुए आप की मध्यप्रदेश इकाई के अकाउंट में 33 हजार फॉलोअर्स हैं.

इन पार्टियों के जाने-माने नेता जैसे पीएम मोदी, कांग्रेस नेता राहुल गांधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कू पर नहीं हैं. इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मौजूद कुछ लोकप्रिय नेताओं में 6.3 मिलियन फॉलोअर्स के साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, लगभग 56.1 हजरा फॉलोअर्स के साथ राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और लगभग 61 हजार फॉलोअर्स के साथ आप के राघव चड्ढा शामिल हैं.

(अनुवादः रावी द्विवेदी | संपादनः ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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