लखनऊ: जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने की चर्चा हर ओर है. कोई पीएम मोदी को इसका श्रेय दे रहा है तो कोई अमित शाह की तारीफ में कसीदे पढ़ रहा है लेकिन इन सब के बीच एक शख्स और काफी चर्चा में है जिसकी भूमिका इस पूरी प्रकिया में अहम रही और आगे भी रहने वाली है. वह शख्स हैं जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक.
अनुच्छेद 370 हटाने का प्रस्ताव अमित शाह ने सदन में 5 अगस्त को रखा लेकिन सोशल मीडिया पर चर्चाएं काफी दिनों से थीं. इस बीच राज्यपाल सत्यपाल मलिक अंत तक चुप्पी साधे रहे. यहां तक की एक दिन पहले उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा-‘ दिल्ली में सबसे बात की है और किसी ने मुझे कोई संकेत नहीं दिया है कि कुछ होने वाला है. कुछ लोग कह रहे हैं कि तीन राज्य बना दिए जाएंगे, कुछ लोग कह रहे हैं कि अनुच्छेद 35ए और 370 को खत्म कर दिया जाएगा, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने भी मुझसे ऐसी कोई चर्चा नहीं की है.’
जब अनुच्छेद 370 हटाई गई तो मलिक बोले – 370 और 35-ए को हटाना हर किसी के लिए ज़रूरी था. इसमें कोई सांप्रदायिक एंगल नहीं है. लेह, करगिल, जम्मू, राजौरी-पुंछ बल्कि कश्मीर में भी, कोई सांप्रदायिक एंगल नहीं है. लेकिन कश्मीर और लद्दाख अब केंद्र शासित प्रदेश है.
यूपी के रहने वाले हैं मलिक
मूलत: यूपी के रहने वाले सत्यपाल मलिक 23 अगस्त 2018 से जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल हैं. उनके राज्यपाल बनने के बाद ही जम्मू-कश्मीर के हालात बदलने की कोशिशें भी तेज हो गईं.
सत्यपाल इससे पहले बिहार के राज्यपाल थे. राज्यपाल बनने से पहले वह भाजपा के उपाध्यक्ष भी रहे. सत्यपाल मलिक ने भले ही कई साल भाजपा में बिताए हों लेकिन उनको जानने वाले आज भी उन्हें ‘सोशलिस्ट’ मानते हैं. छात्र जीवन में समाजवादी आंदोलन का हिस्सा रहे सत्यपाल मलिक ने कांग्रेस, जनता दल, सपा, बीजेपी समेत तमाम दलों की राजनीति की. एक बेहतरीन वक्ता के तौर पर मशहूर सत्यपाल राजनीति में हवा का रुख समझने में भी माहिर माने जाते हैं. साथ ही जम्मू कश्मीर के राज्यपाल रहते हुए उनके ‘राजनीतिक’ बयानों को भी लगातार चर्चा में रहे.
जम्मू कश्मीर के राज्यपाल के तौर सत्यपाल मलिक ने 23 अगस्त 2018 को राज्यपाल के पद की शपथ ली थी. करीब 50 वर्षों में यह पहला मौका था कि किसी राजनेता को जम्मू कश्मीर का राज्यपाल चुना गया था. इसके पहले एन.एन.वोहरा ने राज्य में राज्यपाल के तौर पर एक दशक का अपना कार्यकाल पूरा किया था.
मलिक के राज्यपाल बनने के कुछ दिनों बाद भारतीय जनता पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष रविंदर रैना ने सत्यपाल मलिक के बारे में कहा था कि अब जो गवर्नर आया है, वह हमारा बंदा है. सब काम हो जाएगा. उन्होंने यह भी कहा था कि पूर्व राज्यपाल एनएन वोहरा को इसलिए हटा दिया गया,क्योंकि वह अपने विचारों पर जोर देते थे. भाजपा नेताओं की नहीं सुनते थे.
इन बयानों के कारण विवादों में रहे हैं
सत्यपाल मलिक हमेशा कुछ न कुछ बोल कर सुर्खियां बटोरते रहे. अक्टूबर 2018 में कश्मीर घाटी में आतंकी घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था, ‘जो आतंकी गोली चलाने के लिए बाहर आते है उन्हें इसके बदले में गुलदस्ते की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.’
वहीं नवंबर माह में राज्यपाल मलिक ने राज्य विधानसभा को भंग कर दिया था, जिसके बाद राज्य में सियासी हंगामा होने लगा. इस मसले पर राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने सफाई देते हुए कहा था, ‘उन्हें राज्य में खरीद फरोख्त और विधायकों की धमकाने की शिकायते मिल रही थी.’ उन्होंने कहा, ‘गर्वनर बना हूं तब से कहता आ रहा हूं कि राज्य में किसी ऐसी सरकार का पक्ष नहीं लूंगा जिसमें बड़े पैमाने पर खरीद फरोख्त हुई है. मैं कश्मीर में अपवित्र गठबंधन नहीं होने दूंगा.’
‘यहां तक की अपनी सफाई में उस समय ये भी कहा था कि अगर दिल्ली की तरफ देखता तो राज्य में सज्जाद लोन की सरकार बनानी पड़ती. मैं इतिहास में एक बेईमान आदमी के तौर पर जाना जाता. इसलिए मैंने उस मामले को ही खत्म कर दिया है.’
‘आज मुझे लोग गाली देते है तो देते रहे. लेकिन मुझे लगता है कि मैंने सही काम किया है.’ केंद्र पर निशाना साधते हुए उन्होंने यह भी कहा था, ‘उन्हें नहीं पता कि अब कब तक राज्यपाल बने रहेंगे. गौरतलब है कि जम्मू कश्मीर में नवंबर माह में नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस के बीच गठबंधन सरकार बनाने की कवायद चल रही थी.’
मीडिया पर भी वे तल्ख टिप्पणी करते कहे हैं, साथ ही आईएएस अधिकारी शाह फैसल के राजनीति में आने के बारे में उन्होंने कहा था जो अपनी इस (आईएएस) ड्यूटी को पूरा नहीं कर रहा है, वह आगे जाकर क्या करेगा.उन्होंने एक बार कह दिया था कि आंतकियों को पुलिसवालों की जगह भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाह की हत्या करना चाहिए. मलिक के इस बयान के विपक्षी दलों ने निंदा की थी.
पर पिछले कुछ समय से उनकी चुप्पी इतनी थी कि यूं लगा मानो वे जम्मू कश्मीर के राज्यपाल ही न हो. आर्टिकल 370 और 35ए हटाएं जाने के मामले में भी ऐसा प्रतीत हुआ कि वो इस महत्वपूर्ण निर्णय के भागीदार नहीं थे. राज्य के सबसे महत्वपूर्ण निर्णय में राज्यपाल मलिक की चुप्पी बहुत कुछ कहती है.
मेरठ काॅलेज में छात्र राजनीति के जरिए बनाई पहचान
24 जुलाई 1946 को बागपत के हिसावदा गांव के किसान परिवार में जन्में सत्यपाल मलिक ने डाॅ. राममनोहर लोहिया से प्रेरित होकर मेरठ यूनिवर्सिटी में एक छात्र नेता के तौर पर अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था. उन्होंने मेरठ काॅलेज से दो बार छात्र संघ का चुनाव भी जीता. काॅलेज में उनके भाषणों की अक्सर चर्चा रहती थी.
इस दौरान उनकी मुलाकात उस दौर के चर्चित सोशलिस्ट नेता राज नारायण से हुई जिनके साथ वह सोशलिस्ट मूवमेंट से जुड़ गए. मलिक को काॅलेज के दौर से जानने वाले एक शख्स (नाम न छापने की शर्त पर) बताते हैं कि पश्चिम यूपी में एक बेहतरीन वक्ता के तौर पर मशहूर मलिक की मुलाकात चौधरी चरण सिंह से हुई जिन्होंने उनको अपने साथ जोड़ लिया. उस दौरान चौधरी चरण सिंह ने अपने राजनीतिक दल भारतीय क्रांति दल (बीकेडी) का गठन किया था. 1974 में सत्यपाल मलिक बीकेडी के टिकट पर बागपत से विधायक बने. इमरजेंसी के वक्त जेल भी गए. इस दौरान उनकी मुलायम सिंह समेत तमाम समाजवादी नेताओं से मुलाकात हुई. 1977 में चौधरी चरण सिंह ने बीकेडी का जनता पार्टी में विलय कर दिया.
चौधरी चरण सिंह ने भेजा राज्यसभा
सत्यपाल को करीब से जानने वाले सूत्रों ने बताया कि इमरजेंसी के बाद चौधरी चरण सिंह व सत्यपाल के रिश्ते पहले जैसे नहीं रहे. उन्हें पार्टी में साइडलाइन किया जाने लगा. पार्टी के कई नेताओं का कहना था कि सत्यपाल मलिक का झुकाव कांग्रेस की ओर है जिससे चौधरी चरण सिंह खफा हो गए. हालांकि बाद में वह चौधरी चरण सिंह को मनाने में कामयाब रहे. 1980 में चरण सिंह ने लोकदल का गठन किया इसके बाद सत्यपाल को राज्यसभा भेजा गया.
थामा कांग्रेस का हाथ
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. पब्लिक के मूड को ध्यान में रखते हुए सत्यपाल ने कांग्रेस का दामन थाम लिया. 1986 में राजीव गांधी ने सत्यपाल को दोबारा राज्यसभा भेज दिया. राजीव गांधी की सरकार के दौरान सत्यपाल तत्कालीन वित्तमंत्री वीपी सिंह और गांधी परिवार के रिश्तेदार व तत्कालीन मंत्री अरुण नेहरू के करीबी हो गए. उस दौर में लोग उन्हें अरुण नेहरू का दांया हाथ भी कहने लगे. 1987 में उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया और वीपी सिंह, अरुण नेहरू के साथ जनता दल का दामन थाम लिया.
अरुण नेहरू के हो गए बेहद करीबी
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री सत्यदेव त्रिपाठी ने बताया, ‘सत्यपाल मलिक को गांधी परिवार के रिश्तेदार व पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण नेहरू का करीबी माना जाता था.’
‘अरुण नेहरू के कारण ही वह कांग्रेस से जुड़े, अलीगढ़ से सांसद भी बने और जब अरुण नेहरू ने कांग्रेस छोड़ी तो सत्यपाल मलिक ने भी छोड़ दी.’
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अरुण नेहरू, आरिफ मोहम्मद खान और सत्यपाल मलिक का गुट हुआ करता था. राजीव गांधी की सरकार में बोफोर्स घोटाले की चर्चा के बाद तीनों ने ही कांग्रेस छोड़ दी.जनता दल के टिकट पर ही वह 1989 में अलीगढ़ लोकसभा चुनाव लड़कर सांसद बने. 1990 में वह केंद्र सरकार में पर्यटन एवं संसदीय कार्य मंत्री बने.
फिर चले गए ‘समाजवाद’ की राह पर
राजीव गांधी की निधन के बाद केंद्र में कांग्रेस की वापसी के बीच इधर यूपी में मुलायम सिंह यादव भी मजबूत हो रहे थे. 1996 में सत्यपाल, मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में चले गए. उनका कहना था कि भले ही वह कांग्रेस चले गए थे लेकिन विचारधारा से समाजवादी ही हैं. उन्हें सपा में राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी सौंप दी गई. सपा के टिकट पर ही उन्होंने अलीगढ़ से 1996 में चुनाव लड़ा लेकिन हार गए. इस चुनाव में वह चौथे नंबर पर रहे.
2004 में बीजेपी में शामिल हो गए
समाजवादी पार्टी से चुनाव हारने के बाद सत्यपाल के करियर का एक कठिन दौर आया. वह राज्यसभा भेजे जाने की उम्मीद कर रहे थे लेकिन उन्हें नहीं भेजा गया. 2004 में उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया और बागपत से चुनाव लड़े लेकिन हार गए. 2005 में उन्हें बीजेपी का उत्तर प्रदेश का उपाध्यक्ष बनाया गया. 2009 में भाजपा का किसान मोर्चा का प्रभारी बनाया गया. वहीं 2012 में वह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने.
मोदी सरकार आने के बाद बदली भूमिका
मलिक 2014 में मुजफ्फरनगर से टिकट के लिए भी प्रयासरत थे लेकिन नहीं मिला. हालांकि मोदी सरकार बनने के बाद सत्यपाल के संगठन में योगदान को देखते हुए 2017 में उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया. वहीं 2018 में उन्हें जम्मू- कश्मीर भेज दिया गया. उनके जानने वाले जम्मू-कश्मीर की जिम्मेदारी सौंपे जाने के पीछे उनकी सेकुलर छवि भी मानते हैं. मलिक के ही पड़ोसी गांव के रहने वाले एक शख्स ने (नाम न छापने की शर्त पर) बताया कि मुस्लिमों के बीच भी सत्यपाल की छवि अच्छी मानी जाती है.
सोशलिस्ट विचारों का रहा असर
सत्यपाल के जानने वालों का कहना है कि उन पर अभी भी सोशलिस्ट विचारों का असर दिखता है. समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री रविदास मेहरोत्रा के मुताबिक, ‘सत्यपाल समाजवादी आंदोलन की देन हैं. रविदास की मानें तो सत्यपाल पर अभी भी सोशलिस्ट विचारों का असर हैं. बीजेपी में रहने के बावजूद कट्टर हिंदुवादी छवि के नहीं हुए.’
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रविदास ने बताया कि जब सत्यपाल यूपी की राजनीति में एक्टिव थे तो उनसे अक्सर मुलाकात होती थी.
उत्तर-प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री सत्यदेव त्रिपाठी का भी कहना है, ‘कांग्रेस, बीजेपी समेत तमाम दलों में रहने के बावजूद सत्यपाल पर सोशलिस्ट विचारधारा का प्रभाव आज भी दिखता है. वह अपनी राय थोपने वाले व्यक्ति नहीं है लेकिन राजनीति में हवा का रुख की समझ रखने में भी माहिर हैं.’