विपक्ष की जीत ने भाजपा की हिंदुत्व राजनीति के परखच्चे उड़ा दिए हैं जिसके बलबूते पर वह 2014 का चुनाव जीती थी । इस जीत ने योगी के नेतृत्व और करिश्मे के ऊपर भी सवाल उठा दिए हैं ।
नई दिल्ली: कैराना लोक सभा उपचुनाव में भाजपा को मिली हार से संकेत मिलते हैं कि पार्टी का हिंदुत्व एजेंडा जिसके भरोसे भाजपा को उत्तर प्रदेश में शानदार जीत मिली थी, अब बिगड़ता हुआ नज़र आ रहा है ।
राष्ट्रीय लोक दल(आरएलडी) की तबस्सुम हसन ने अपनी प्रतिद्वंदी भाजपा की मृगांका सिंह को लगभग 55,000 वोटों से हराया । हसन को कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का समर्थन प्राप्त था ।
उनकी जीत विपक्ष की उत्तर प्रदेश में मिलजुल कर भाजपा के खिलाफ लड़ाई के लिए एक और जीत साबित हुई है। मार्च में ही सत्तारूढ़ भाजपा को गोरखपुर और फूलपुर में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था, जबकि ये सीटें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके डिप्टी केशव प्रसाद मौर्या की थीं । वहां भी विपक्ष ने भाजपा को धूल चटाई थी ।
गुरूवार को मिली हार ने अवश्य ही भाजपा का मूड खराब कर दिया है जो अभी तक 26 मई को बीते मोदी सरकार के चार साल की उपलब्धियां गिनाने में मशगूल थी । और तो और ये हुआ भी उस चुनाव क्षेत्र में है जहां भाजपा ने 2014 में अपनी हिंदुत्व वाली रणनीति को लॉन्च किया था । विपक्ष के महागठबंधन के साथ साथ जातीय समीकरण युद्ध ने भी भाजपा की मुसीबतें बढ़ा दी हैं ।
समाजवादी पार्टी के लीडर सुधीर पंवार कहते हैं, “भाजपा ने 2014 में अपनी हिन्दू ध्रुवीकरण की रणनीति पहली बार कैराना और पश्चिम उत्तर प्रदेश में चलाई थी जहाँ उसको रिकॉर्ड जीत हासिल हुई थी।।
विपक्ष का मुस्लिम उम्मीदवार खड़ाने का फैसला एक साहसी कदम था । भाजपा ने साम दाम दंड भेद लगा कर इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश तो की पर वह इसमें विफल हुई । इस जीत से साबित हो गया है की यह चाल अब काम नहीं आएगी ।”
2014 में जाट और दलित समुदाय के लोग जो उस समय 2013 के घटित दंगों से उबर ही रहे थे, ने भारी मात्रा में भाजपा को कैराना में जिताया था जिसने पार्टी के हिन्दू वोटों का अंकगणित चमकाया था । परन्तु यदि हाल ही के नतीजे अगर कोई संकेत देते हैं तो वे यही हैं कि भाजपा के पास अब सिर्फ उसका पारम्परिक ऊंची जाति के हिन्दू वोट बैंक ही बच गया है।
नीतियों से खफा
जातियों के गड़बड़ाए अंकगणित के साथ साथ नतीजों ने वोटरों के अंदर भरा गुस्सा भी दर्शाया है जो सरकार की नीतियों की वजह से उबला है ।
आरएलडी के नेता जयंत चौधरी ने कहा “उन्होंने जिन्ना को मुद्दा बनाया और गन्ने के मुद्दे को नज़रअंदाज़ कर गए जो वाकई में मुद्दा था । जिन्ना हारे गन्ना जीता। यह कोई समुदायों की बात नहीं है। लोगों में सरकार की नीतियों को लेकर भारी रोष है ।
चुनाव में दुर्बल प्रदर्शन
गोरखपुर और फूलपुर में मिली हार के बाद पार्टी ने कैराना के लिए सारे पुख्ता इंतजाम किये थे। यहाँ तक की एक उपचुनाव के कैम्पेन तक के लिए भी प्रधानमन्त्री मोदी का अप्रत्यक्ष रूप से सहारा लिया गया था।
चुनाव से एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने बागपत में एक रैली करी थी जहाँ वे ईस्टर्न पेरीफेरल एक्सप्रेसवे, जो कैराना से मात्र 50 किलोमीटर की दूरी पर है का उदघाटन किया था। भाजपा को उम्मीद थी की कैराना से सटे इस इलाके में कैम्पेन करके वह वोटरों को लुभा पाएगी । खैर इससे वहां के वोटरों के ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ा ।
मोदी के अलावा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी तीन बड़ी रैलियां की थी पर एक बार फिर वे वोटरों को लुभाने में विफल हुए । 2017 में जबसे योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला है तबसे अब तक लगातार 3 चुनावों में भाजपा को मुँह की खानी पड़ी है।
भाजपा अब भी यह मानने को तैयार नहीं है की यह हार उसको उसकी गलत नीतियों और सांप्रदायिकता के खिलाफ मिली है ।
भाजपा के पश्चिम उत्तर प्रदेश के प्रभारी विजय बहादुर पाठक ने कहा, “आज एक फतवा विकास पर भारी पड़ गया है । इस फतवे को देवबंद जैसे अल्पसंख्यक संस्थानों ने जारी किया था, नतीजे हम देख ही रहे हैं । अब बस हम बैठ कर विचार कर रहे हैं की कैसे आगे इससे लड़ा जाए ”
Read in English: Kairana loss a reminder that BJP needs to find new narrative in Uttar Pradesh before 2019