scorecardresearch
Monday, 4 November, 2024
होमराजनीतिक्या आदिवासियों के बीच बाबूलाल मरांडी की पकड़ कमजोर हो रही, लोकसभा में हार के बाद राज्य चुनाव होगी चुनौती

क्या आदिवासियों के बीच बाबूलाल मरांडी की पकड़ कमजोर हो रही, लोकसभा में हार के बाद राज्य चुनाव होगी चुनौती

2019 में हार के बाद भाजपा अलग-थलग पड़े आदिवासी नेता को वापस लेकर आई और उन्हें राज्य प्रमुख बनाया. लेकिन आदिवासी सीटों पर लोकसभा के नतीजे निराशाजनक रहे, जिसमें पार्टी का खाता तक नहीं खुला.

Text Size:

रांची: पूर्वी राज्य में भाजपा के सत्ता से बाहर होने के बमुश्किल दो महीने बाद, मुस्कुराते हुए अमित शाह ने बाबूलाल मरांडी का स्वागत किया, जिन्होंने अपने झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) का विलय उस पार्टी में कर दिया, जिसे उन्होंने करीब 14 साल पहले छोड़ दिया था.

2020 के विलय को भाजपा के लिए एक मास्टरस्ट्रोक के रूप में देखा गया, क्योंकि यह न केवल झारखंड के पहले मुख्यमंत्री की ‘घर वापसी’ थी, बल्कि पार्टी को एक प्रमुख आदिवासी चेहरा और साथ ही एक अनुभवी आयोजक और रणनीतिकार भी मिला.

तब से सात विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं और एक आम चुनाव के बाद, झारखंड के राजनीतिक हलकों में इस बात को लेकर चर्चा है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) और कांग्रेस के सत्तारूढ़ गठबंधन के खिलाफ बाबूलाल मरांडी कितने प्रभावी हैं.

6 जून को, जब उन्होंने नवनिर्वाचित भाजपा सांसदों को संबोधित किया, तो माहौल बिल्कुल भी खुशनुमा नहीं था, हालांकि बाबूलाल मरांडी ने पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को प्रोत्साहित करने की पूरी कोशिश की. मुस्कान फीकी थी; कार्यक्रम में बॉडी लैंग्वेज उदास थी.

पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा, “यह एक ऐतिहासिक सफलता है. हमें अब आराम नहीं करना चाहिए. झारखंड में भी एक मजबूत सरकार बनानी है,” उन्होंने जोर देकर कहा कि जनता ने एनडीए को कुल 14 संसदीय सीटों में से 9 देकर झारखंड में सबसे बड़ा गठबंधन बनाया.

लेकिन तथ्य सामने हैं – भाजपा का वोट शेयर 2019 में लगभग 51.6 प्रतिशत से घटकर लोकसभा चुनाव में 44.60 प्रतिशत रह गया है.

2019 के बाद से सात विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं, जिनमें से दुमका, मधुपुर, डुमरी और गांडेय पर झामुमो ने जीत दर्ज की है. गांडेय में सबसे हालिया उपचुनाव जून में हुआ था, जिसमें जेल में बंद झामुमो नेता हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन ने भाजपा उम्मीदवार को 27,000 से अधिक मतों से हराया था.

बेरमो और मांडर कांग्रेस ने बरकरार रखा, जबकि भाजपा की सहयोगी आजसू पार्टी ने कांग्रेस से रामगढ़ छीन लिया. इस चर्चा में लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष करिया मुंडा द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 8 जून को लिखे गए पत्र ने भी इजाफा किया है, जिसमें उन्होंने झारखंड में लोकसभा के नतीजों पर अपनी पीड़ा व्यक्त की है.

89 वर्षीय करिया मुंडा ने लिखा, “उम्र के इस पड़ाव पर मैं झारखंड में संगठन की मौजूदा स्थिति और बिरसा मुंडा की जन्मस्थली खूंटी समेत पांच आदिवासी सीटों पर भाजपा की हार से आहत हूं. मैं अपनी यह चिंता राष्ट्रीय अध्यक्ष (जे.पी. नड्डा) तक भी पहुंचाना चाहूंगा. मेरी यह चिंता इस राज्य की आदिवासी पहचान और संस्कृति को लेकर है, जिसे आप समझ सकते हैं.”

आदिवासियों के लिए आरक्षित खूंटी से पद्म भूषण पुरस्कार विजेता करिया मुंडा खूंटी से आठ बार सांसद रहे हैं. उन्होंने भाजपा के दिग्गज नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के साथ काम किया है.

झारखंड में चुनाव से पहले भाजपा को सभी 14 लोकसभा सीटों पर जीत का भरोसा था, लेकिन जब नतीजे आए तो वह खूंटी, सिंहभूम, लोहरदग्गा, दुमका और राजमहल की पांच आदिवासी सीटें हार गई.

एक भाजपा पदाधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “काफी समय से चुनाव की तैयारी कर रही पार्टी असल लड़ाई के समय जमीनी स्तर पर अपनी कार्ययोजनाओं को लागू करने में विफल रही. चुनाव के दौरान बैठकों और मंथन का दौर चलता रहा, लेकिन जमीनी कार्यकर्ता रणनीति को समझने में उलझे रहे. कई स्टार प्रचारक भी स्थिति देखकर हैरान रह गए.”

सिंहभूम में 1.68 लाख वोटों से हारने वाली भाजपा की गीता कोड़ा ने माना कि आदिवासियों तक पहुंचने के लिए जमीनी स्तर पर अधिक प्रयास किए जाने चाहिए थे. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “हम नतीजों से दुखी और चिंतित हैं क्योंकि झामुमो-कांग्रेस आरक्षण और संविधान जैसे मुद्दों पर आदिवासियों को गुमराह करने में सफल रहे हैं.”

नवनिर्वाचित सांसदों के अभिनंदन समारोह में बाबूलाल मरांडी और प्रदेश बीजेपी के नेता । फोटोः नीरज सिन्हा

हालांकि लोहरदगा में वे 1.39 लाख वोटों के अंतर से हार गए, लेकिन भाजपा एसटी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष समीर उरांव ने हिम्मत दिखाते हुए कहा कि आठ सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “चुनावों में जीत और हार हमेशा लगी रहती है. हम लगातार संगठनात्मक काम में लगे हुए हैं. भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है. आदिवासी अब झामुमो-कांग्रेस के धोखे को समझ रहे हैं.”


यह भी पढ़ें: हेमंत की गिरफ्तारी, कल्पना की रैलियां और मोदी का जादू — राजमहल सीट पर कैसे चल रहा है चुनाव प्रचार 


‘खत्म हुआ कारतूस’?

मरांडी नवंबर 2000 से मार्च 2003 तक मुख्यमंत्री रहे. चार बार सांसद रह चुके मरांडी धीरे-धीरे भाजपा से दूर होते गए और 2006 में उन्होंने जेवीएम (पी) पार्टी की शुरुआत की. वर्तमान में वे अपने गृह जिले गिरिडीह से राजधनवार विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं.

2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने झारखंड में आदिवासी क्षेत्रों पर अपनी पकड़ और सरकार दोनों खो दी. आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों में से भाजपा को केवल दो सीटें मिलीं.

2020 में जेवीएम (पी)-भाजपा के विलय के बाद, उन्हें उसी साल फरवरी में भाजपा विधायक दल का नेता चुना गया, लेकिन उनके खिलाफ दलबदल के लंबित मामले के कारण उन्हें तीन साल तक विपक्ष के नेता का दर्जा नहीं दिया गया.

हालांकि, बाबूलाल मरांडी ने जिलों और ब्लॉकों का दौरा करना और कार्यकर्ताओं को संगठित करना शुरू कर दिया और साथ ही हेमंत सोरेन सरकार के कामकाज पर सवाल उठाए और इसकी कथित अनियमितताओं को उजागर किया. पिछले साल 4 जुलाई को उन्हें भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, जिसे लोकसभा चुनावों के मद्देनजर फ्रंटफुट पर खेलने के अवसर के रूप में देखा गया.

राजनीतिक विश्लेषक दीपक अंबष्ठ ने दिप्रिंट से कहा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि बाबूलाल मरांडी को पार्टी में संगठन संभालने का लंबा अनुभव है. वे झामुमो-कांग्रेस सरकार में शासन और कथित भ्रष्टाचार के बारे में सबसे मुखर रहे हैं. लेकिन चुनाव नतीजों से पता चलता है कि उनका राजनीतिक कद और प्रभाव फीका पड़ गया है.

साथ ही, संगठन की अग्रिम पंक्ति में जिन नेताओं को तरजीह दी गई, उनकी भूमिका की समीक्षा की जानी चाहिए. इस संबंध में करिया मुंडा के पत्र को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए.”

दूसरी ओर, भाजपा विधायक दल के नेता अमर कुमार बौरी राज्य चुनावों में पार्टी की संभावनाओं को लेकर उत्साहित हैं. बौरी ने दिप्रिंट से कहा, “प्रदेश पार्टी अध्यक्ष के साथ मिलकर हमने पूरी ताकत से चुनाव लड़ा है. एनडीए ने नौ सीटें जीती हैं और हम 50 विधानसभा क्षेत्रों में आगे हैं. हम निश्चित रूप से आगामी विधानसभा चुनाव जीतेंगे.”

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 57 विधानसभा सीटों पर बढ़त बनाई थी, लेकिन कुछ महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में यह 25 सीटों पर सिमट गई.

संथाल परगना की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले राजनीति विज्ञान के व्याख्याता सुमन कुमार कहते हैं कि दुमका बाबूलाल मरांडी की राजनीतिक कर्मभूमि रही है. 1998 में मरांडी ने यहां शिबू सोरेन को हराया था, लेकिन इस बार भाजपा हार गई.

बीजेपी के दिग्गज करिया मुंडा खूंटी के एक गांव में चुनाव प्रचार के दौरान। फोटोः नीरज सिन्हा

इससे पहले 2020 के दुमका विधानसभा उपचुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था. ऐसा लगता है कि संथालों में बाबूलाल मरांडी का प्रभाव और पकड़ कम हो गई है. चुनावों में भाजपा में गुटबाजी की भी चर्चा हुई है.

आदिवासी बहुल संथाल परगना और कोल्हान क्षेत्र में 32 विधानसभा सीटें हैं और 81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा में सत्ता हासिल करने के लिए ये सीटें महत्वपूर्ण हैं. 2019 में भाजपा ने वहां केवल 4 सीटें जीती थीं.

झारखंड में नवंबर-दिसंबर में चुनाव होने हैं और सत्तारूढ़ झामुमो-कांग्रेस गठबंधन भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभरा है.

झामुमो के वरिष्ठ नेता स्टीफन मरांडी ने कहा कि भाजपा नेताओं को दूसरों पर आरोप लगाने से पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “भाजपा और केंद्र सरकार आदिवासियों और झारखंडियों की समस्याओं और भावनाओं को समझने में विफल रही है. जहां तक ​​बाबूलाल मरांडी का सवाल है, आदिवासियों के बीच उनकी स्वीकार्यता खत्म हो चुकी है और वे भाजपा के लिए दगे हुए कारतूस साबित हो रहे हैं. विधानसभा चुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ेगा.”

“भाजपा के नारे ‘अबकी बार 400 पार’ के पीछे क्या मंशा थी? क्या झारखंड में एसपीटी-सीएनटी एक्ट से छेड़छाड़ की कोशिश नहीं की गई?”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः अर्जुन मुंडा, सीता सोरेन मैदान में – झारखंड की 5 एसटी आरक्षित सीटों पर होगी कड़ी टक्कर 


 

share & View comments