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Friday, 22 November, 2024
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हिमंत बिस्वा सरमा ने कांग्रेस में ‘दरकिनार’ होने से कैसे छुटकारा पाया और असम के CM की कुर्सी तक पहुंचे

हिमंत बिस्वा सरमा ने 2015 में जब कांग्रेस छोड़ी थी, तब मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने इसे ‘अच्छा छुटकारा' मिलना करार दिया था. उनकी टिप्पणी बाद में अच्छी साबित नहीं हुई.

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नई दिल्ली: भाजपा नेता हिमंत बिस्वा सरमा, जो असम के अगले मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने जा रहे हैं, के लिए आधी रात को बैठक बुलाने और समय-असमय सिविल सेवकों को किसी भी काम के लिए एकदम मुस्तैद रखने में कुछ भी असामान्य नहीं है. सरमा के करीबी लोगों के अनुसार, वह पूर्वोत्तर में एनडीए के प्रमुख नेता के नाते क्षेत्र के एक राज्य से दूसरे राज्य के दौरे या फिर यहां एक से दूसरे निर्वाचन क्षेत्र के बीच यात्रा के दौरान ही सो पाते थे.

और यह असमिया नेता के बहुत काम आया क्योंकि, एक बेहद कठिन चुनाव प्रक्रिया के बीच उन्हें व्यापक स्तर पर यात्रा करने के लिए जाना जाता है. इसी ने उन जैसे एक ‘बाहरी व्यक्ति’ को भाजपा के अंदर एक जरूरी योद्धा बना दिया.

सरमा को राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित किए जाने के एक सप्ताह बाद रविवार को असम में भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद के लिए चुना गया. वह सर्बानंद सोनोवाल की जगह लेंगे, जिन्होंने 2016 से 2021 तक पूर्वोत्तर में भाजपा के पहले मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया.

यह निर्णय मुख्यमंत्री मुद्दे पर आम सहमति बनाने के लिए उन्हें और सोनोवाल को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से दिल्ली बुलाए जाने के एक दिन बाद गुवाहाटी में भाजपा विधायक दल की बैठक में लिया गया.

अगस्त 2015 में जब सरमा असम में कांग्रेस नेतृत्व के साथ मतभेदों के बाद भाजपा में शामिल हुए थे तब 10 अन्य विधायक भी उनके साथ चले गए थे. उस समय मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने उनके बाहर निकलने पर दो शब्दों की प्रतिक्रिया दी थी—‘अच्छा छुटकारा’

लेकिन गोगोई की यह प्रतिक्रिया बाद में अच्छी साबित नहीं हुई, क्योंकि सरमा ने न केवल असम में बल्कि पूर्वोत्तर के पांच अन्य राज्यों—त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम और मेघालय में भाजपा की स्थिति मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई.

सरमा ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को कभी छिपाया नहीं. उन्होंने तब कांग्रेस छोड़ी थी जब तरुण गोगोई ने अपने बेटे गौरव, जो अब एक सांसद हैं, को असम के कांग्रेस नेतृत्व के चेहरे के तौर पर आगे बढ़ाया. यह तब था जबकि सरमा ने कांग्रेस के लिए 2011 के चुनाव अभियान का प्रबंधन संभाला था और 126 सदस्यीय विधानसभा में इसे अभूतपूर्व ढंग से 79 सीटें जीतने में मदद की थी.

सरमा ने 2006 के चुनाव अभियान में भी कांग्रेस के लिए बेहद मेहनत से काम किया था और इसी राजनीतिक खूबी ने उन्हें गोगोई के सबसे भरोसेमंद लेफ्टिनेंट में से एक बना दिया था.

दिप्रिंट ने इस पर प्रतिक्रिया के लिए टेक्स्ट मैसेज के जरिये 52 वर्षीय सरमा से संपर्क साधा लेकिन रिपोर्ट प्रकाशित होने तक उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं आई थी.


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पूर्वोत्तर में भाजपा की राह बनाने वाला नेता

सरमा को पूर्वोत्तर में भाजपा की ताकत बढ़ने का श्रेय दिया गया और भाजपा ने उन्हें सोनोवाल सरकार में वित्तमंत्री बनाकर पुरस्कृत भी किया.

2019 में भाजपा ने सरमा को नॉर्थ ईस्ट डेवलपमेंट अलायंस (नेडा) का संयोजक नियुक्त किया, जिसका गठन इस क्षेत्र में कांग्रेस के गढ़ों को ध्वस्त करने के लिए किया गया था.

सरमा एक जमीनी स्तर के धैर्यवान कार्यकर्ता रहे हैं, जिन्होंने अपने काम के बूते यह मुकाम हासिल किया है. उन्होंने 1979 से 1985 तक ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के नेतृत्व में परदेशियों के खिलाफ आंदोलन में हिस्सा लिया था. इस दौरान उन्होंने प्रफुल्ल कुमार महंत, जो आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे और फिर मुख्यमंत्री बने थे, और उनके सहयोगी भृगु कुमार फुकन के साथ मिलकर काम किया.

1990 में कांग्रेस में शामिल होने के बाद सरमा ने पहली बार 2001 में गुवाहाटी के जलुकबाड़ी से चुनाव लड़ा और फुकन को हराया जो महंत के असम गण परिषद के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में थे. वह तब से ही जलुकबरी सीट पर काबिज हैं.

2002 से 2014 के बीच सरमा ने राज्य की कांग्रेस सरकार में कृषि मंत्रालय के अलावा, योजना और विकास, वित्त, स्वास्थ्य, शिक्षा और असम समझौते के कार्यान्वयन संबंधी विभाग समेत कई पदों पर काम किया.

हालांकि, एक मंत्री के रूप में उनका कार्यकाल भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरा रहा और आलोचकों ने उन्हें ‘मैकीआवेलियन ऑपरेटर’ तक करार दे दिया.

बाद में गोगोई के साथ टकराव और पार्टी हाईकमान में जगह के नाम पर कथित तौर पर धोखे के बाद सरमा ने 2016 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले भाजपा का दामन थाम लिया. उस समय तक भाजपा पूर्वोत्तर में कोई पैठ नहीं बना पाई थी, जहां कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों का ही वर्चस्व कायम था.

2016 में असम में भाजपा की पहली जीत का श्रेय काफी हद तक सरमा के पार्टी में शामिल होने को दिया जाता है. और नेडा के संयोजक के तौर पर उनके कार्यकाल के दौरान एक व्यापक जनाधार वाले नेता के रूप में उनका कद और भी बढ़ गया. उन्होंने अरुणाचल प्रदेश में पार्टी की सरकार बनने में मदद की और मणिपुर में भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई.

2018 में भाजपा के त्रिपुरा प्रभारी सुनील देवधर के साथ मिलकर सरमा राज्य के शीर्ष तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस नेतृत्व को तोड़ने और उन्हें भाजपा में शामिल होने को राजी करने में सफल रहे.

संकटमोचक

इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सरमा ने खुद को मतदाताओं का मन अच्छी तरह समझने वाले एक कुशल चुनाव प्रबंधक के रूप में स्थापित किया.

यह असमिया नेता ‘बाहरी व्यक्ति’ होने के बावजूद भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति में भी फिट बैठता है. वह पार्टी के लिए एक अहम संकटमोचक बन गए, और असम में सीएए के बाद बिगड़े हालात पर काबू पाया और मणिपुर का राजनीतिक संकट सुलझाने में भी अहम भूमिका निभाई थी जहां राज्य में पार्टी की सरकार गिरने की स्थिति आ गई.

सरमा की मदद से भाजपा पूर्वोत्तर के छह राज्यों में सत्ता में आने में कामयाब रही, चाहे तो चुनाव जीतकर या फिर गठबंधन करके.

उन्हें लगातार काम करने के लिए जाना जाता है जो रात में 12 बजे भी बैठक ले सकते हैं. उनके साथ काम करने वाले सिविल सेवकों का कहना है कि सरमा उन विषयों के बारे में गहरी समझ रखते हैं जिन पर वह काम कर रहे होते हैं और बैठकों और चर्चाओं के लिए पूरी तरह तैयार होकर आते हैं.

पिछले हफ्ते चुनाव नतीजों ने असम में भाजपा के लिए थोड़ी मुश्किल स्थिति खड़ी कर दी क्योंकि उसे सोनोवाल और सरमा के बीच चुनाव करना था. हालांकि, सरमा इस मामले में अपेक्षाकृत अनुभवहीन सोनोवाल पर भारी पड़ते थे क्योंकि उन्हें कांग्रेस सरकारों में काम करने दौरान शासन और प्रशासन पर अच्छी पकड़ बनाए रखने का अनुभव होने के लिए जाना जाता है.

सरमा को जानने वालों का कहना था कि उन्हें कभी भी असम में मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़कर केंद्रीय मंत्रालय नहीं लेना चाहिए. और ऐसा लगता है उन्होंने ऐसा नहीं ही किया.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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