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Thursday, 25 April, 2024
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अकाली-BSP पर कांग्रेस MP के पंथिक सीट वाले ताने ने कैसे पंजाब के सिखों के बीच का जातिगत विभेद उजागर किया

लुधियाना से कांग्रेस पार्टी के सांसद ने 2022 के पंजाब चुनावों के दौरान अकालियों द्वारा आनंदपुर साहिब और चमकौर साहिब जैसे 'पंथिक' सीटों को बसपा के लिए छोड़ने के फैसले पर सवाल उठाया था.

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नई दिल्ली: पंजाब की प्रमुख अकाली पार्टी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) उसके गठबंधन सहयोगी बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जो मुख्य रूप से एक दलित राजनीतिक संगठन मानी जाती है- के लिए पंजाब की ‘पंथिक’ या ‘पवित्र’ सीटों के आवंटन के फैसले ने राज्य में एक राजनीतिक बहस शुरू कर दी है और इस सब ने जातिविहीन कहे जाने वाले सिख समाज में मौजूद विभाजन रेखाओं को फिर से उजागर कर दिया है.

यह सारा मुद्दा लुधियाना के कांग्रेस सांसद रवणीत सिंह बिट्टू द्वारा शिअद पर तंज कसने और यह सवाल करने के साथ शुरू हुआ कि उसने आनंदपुर साहिब और चमकौर साहिब जैसी सीटों को बसपा के लिए क्यों छोड़ दिया? आनंदपुर साहिब सबसे पवित्र सिख स्थलों में से एक है और यह वह स्थान भी है जहां अंतिम दो सिख संत, गुरु तेग बहादुर और गुरु गोबिंद सिंह रहा करते थे. वहीं चमकौर साहिब वह स्थान है जहां गुरु गोबिंद सिंह ने मुगलों से लड़ाई लड़ी थी और वहां इस महान सिख संत को श्रद्धांजलि देते हुए कई गुरुद्वारे हैं.

पिछले 14 जून को शिअद और बसपा ने बिट्टू को यह ‘जातिवादी’ टिप्पणी करने और दलितों- जो पंजाब की आबादी का 32 प्रतिशत हिस्सा हैं- का अपमान करने के लिए लताड़ा.

इसके बाद 15 जून को शिअद के नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने पंजाब राज्य अनुसूचित जाति आयोग से भी इसकी शिकायत की. सोमवार (28 जून) को बिट्टू ने आयोग से ‘बिना शर्त माफी’ मांगते हुए इस सारे विवाद पर पर्दा डालने की मांग की लेकिन इस विवाद ने सिख समाज में जातिवाद के आमतौर पर कम उभरने वाले मुद्दे को सबके सामने ला दिया है.

दलित सामाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता डॉ एस.एल. विर्दी ने दिप्रिंट को बताया, ‘वर्ण व्यवस्था यह स्पष्ट रूप से कहती है कि कौन पवित्र है और कौन पवित्र नहीं है. रवणीत बिट्टू की टिप्पणियों को दलित राजनीति- जिसे कभी भी मुख्यमंत्री कार्यालय और कैबिनेट सचिवालय में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता है जबकि यह समुदाय काफी बड़ी संख्या में है- के उभार के कारण जाट सिखों की बढ़ती परेशानी के रूप में देखा जाना चाहिए.’

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चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी के राजनीतिक टीकाकार प्रोफेसर आशुतोष सिंह ने कहा कि बिट्टू की टिप्पणी को अलग-थलग करके नहीं देखा जाना चाहिए.

आशुतोष कहते हैं, ‘सिंघू और टिकरी बॉर्डर पर, वे सभी किसान कहे जाते हैं लेकिन अपने-अपने गांवों में वे जाति के आधार पर विभाजित हैं. जाट सिख जमींदार हैं. राजनीतिक रूप से कई गुटों में विभाजित होने के बावजूद वे राज्य के धार्मिक और राजनीतिक मामलों पर हावी रहते हैं.’

‘बिट्टू की यह टिप्पणी कोई एकाकी बयान नहीं है. यह उस समुदाय की मनोभावना को दर्शाता है जिसका वह प्रतिनिधित्व करते हैं. ऐसा कहकर वह जाट सिखों के समुदाय के नए नेता के रूप में उभरने की कोशिश कर रहे हैं.’

बिट्टू की यह टिप्पणी पंजाब में राजनीतिक दलों द्वारा दलितों को तेजी के साथ लुभाने की पृष्ठभूमि में आई है. भाजपा ने तो दलितों के लिए मुख्यमंत्री पद का वादा किया है, जबकि अकालियों ने इस समुदाय के लिए डिप्टी सीएम पद का वादा किया है. इसके अलावा अकालियों ने अगले साल होने वाले चुनाव के लिए बसपा के साथ गठबंधन भी किया है.


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जाट और दलित सिखों के बीच नहीं है रोटी-बेटी का रिश्ता 

दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में समाजशास्त्र पढ़ाने वाले प्रोफेसर सुरिंदर सिंह जोधका ने यह भी बताया कि पंजाब में जहां दलित भूमिहीन मजदूर हैं, वहीं जाट सिख जमींदार हैं और पंजाब की राजनीति पर हावी रहते हैं.

उन्होंने कहा, ‘पंजाब में दलित सिखों और जाट सिखों के अपने अलग-अलग गुरुद्वारे हैं. हो सकता है कि यह भेदभाव यूपी, बिहार या हरियाणा में उतना दिखाई न दे, जहां के गुरुद्वारे जाट दलितों को भी प्रवेश की अनुमति दे सकते हैं लेकिन वे भी उन्हें प्रसाद बनाने की अनुमति नहीं देंगे.’

आंबेडकरवादी और पंजाब विश्वविद्यालय के शोध छात्र (रिसर्च स्कॉलर) गुरदीप ने कहा कि यह सब सिख धर्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है.

वे कहते हैं, ‘अगर हम सिख धर्म के मूल सिद्धांत की बात करें तो यहां जाति के लिए कोई जगह हीं नहीं है, परंतु एक बहुत छोटी सी आबादी ही है जो सिख धर्म की सच्ची अनुयायी हैं और किसी तरह का भेदभाव नहीं करती हैं लेकिन एक बड़ी आबादी जातिवाद के हिंदुत्व मॉडल का ही अनुपालन करती है.’

प्रोफेसर जोधका ने भी उनका समर्थन करते हुए कहा कि हो सकता है कि दिखावे के लिए किसी दलित सिख को प्रमुख ग्रंथी के रूप में नियुक्त कर दिया जाता है लेकिन यह काफी हद तक प्रतीकात्मक रहता है. उनके बीच कोई रोटी-बेटी का रिश्ता (एक साथ खाना या शादी के जरिए संबंध बनाना) नहीं होता है.


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सभी दलित भी एक जैसे नहीं

2011 की जनगणना के अनुसार, पंजाब की आबादी में दलितों का अनुपात देश भर में सबसे अधिक है- वे राज्य की कुल आबादी का 32 प्रतिशत हैं.

हालांकि, वे भी पूरी तरह से एक माने जाने वाले समूह नहीं हैं. पंजाब में 39 समुदायों को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है और ये सभी राजनीतिक रूप से एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं.

उदाहरण के लिए, रामदासियां, जो सिख धर्म में परिवर्तित हो गए हैं, हिंदू जाति व्यवस्था में शामिल तथाकथित निचली जातियां थीं. रामदासियों में अभी भी एक वर्ग ऐसा है जो हिंदू धर्म के अनुयायी हैं.

लेकिन इस समुदाय का एक बड़ा वर्ग अब सिख परंपरा का हिस्सा है. बसपा के संस्थापक कांशीराम भी रामदासियां सिख थे. बसपा का गढ़ कहे जाने वाले दोआबा क्षेत्र में इस समुदाय का दबदबा है.

एक अन्य प्रभावशाली उप-जाति अ-धर्मियों की है जिन्हें रविदासिया के नाम से जाना जाता है. वे सिख धर्म की मुख्यधारा से अलग हो गए और अब रविदास पंथ का पालन करते हैं. वे गुरु ग्रंथ साहिब, आंबेडकर और संत रविदास की एक साथ पूजा करते हैं.

इसके आलावा मालवा क्षेत्र में मजहबी सिखों का दबदबा है.

राज्य सरकार द्वारा हिंदू समझे जाने वाले वाल्मीकि पंजाब में अनुसूचित जाति की आबादी का 11.2 प्रतिशत हैं. वे राज्य के शहरी इलाकों में बस गए हैं.

प्रोफेसर आशुतोष बताते हैं, ‘अगर हम वोटिंग पैटर्न (मतदान के तरीके) को देखें, तो हम देख सकते हैं कि मजहबी, रामदासिया और राय सिख जैसे दलित सिख ज्यादातर कांग्रेस, अकालियों और कम्युनिस्टों को वोट देते हैं. शहरी इलाकों में, जहां वाल्मीकि अच्छी संख्या में हैं, वे कांग्रेस या अकालियों में से एक को चुनते हैं. जब तक दलितों और सवर्णों के बीच घनघोर संघर्ष नहीं होगा, वे पंजाब में मायावती के पाले में नहीं जाएंगे.’


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जाट सिखों का रहा है वर्चस्व

2011 की जनगणना के अनुसार, जाट सिख- राज्य की सबसे बड़ी जाति है और उनका पंजाब की आबादी में लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा है.

पंजाब में 1977 के बाद से हमेशा कोई जाट सिख ही मुख्यमंत्री रहा है, भले ही सत्ता में कोई भी पार्टी आयी हो.

पंजाब विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री डॉ. पी.एस. जज ने कहा, ‘जाटों का सभी पार्टियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व है, चाहे वह कांग्रेस हो, शिअद हो या फिर भाजपा हो. दलित जाति, राजनीतिक और धार्मिक आधार पर बंटे हुए हैं. वाल्मीकि हैं तो मजहबी हैं. जाट राजनीतिक रूप से विभाजित हो सकते हैं लेकिन वे समान रूप से विभाजित नहीं हैं.’

जज कहते हैं कि किसान आंदोलन ने राजनीतिक समीकरण काफी हद तक बदल दिए हैं.

उनका कहना है, ‘किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में पंजाब की राजनीति में उपजी एक कथित शून्यता के कारण, अकालियों और कांग्रेस की राजनैतिक वैधता काफी कम हो गई है. इसलिए, सारा ध्यान जाट सिख बनाम गैर-जाट सिख लड़ाई पर केंद्रित हो गया है.’

दो दशकों से भी अधिक समय से राज्य की राजनीति पर करीबी नज़र रखने वाले प्रोफेसर आशुतोष ने भी इस नज़रिये से सहमति व्यक्त की.

वे कहते हैं, ‘हाल-फिलहाल में जाति एक राजनीतिक श्रेणी बन गई है. सवाल यह है कि आपके पास कितने आदमी हैं? यदि आपके पास संख्या है, तो ही आपको प्रतिनिधित्व दिया जाएगा. बिट्टू की टिप्पणी को कैप्टन (मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह) के साथ उनकी व्यक्तिगत प्रतिद्वंदिता के एक हिस्से के रूप में भी देखा जा सकता है. ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि किसान सिख हर पार्टी से नाराज हैं.‘

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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