पूर्णिया, बिहार: बुधवार सुबह के सात बज रहे थे, लोकसभा चुनाव से पहले प्रचार का आखिरी दिन और लगभग 100 समर्थक बिहार के पूर्णिया शहर के केंद्र में अर्जुन भवन में एकत्र हुए थे. वे यहां कांग्रेस नेता राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव को निर्दलीय चुनाव लड़ते देखने आए थे.
पिछले महीने पप्पू ने अपनी जन अधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया, लेकिन उन्हें पूर्णिया से पार्टी का टिकट नहीं मिला क्योंकि पार्टियों की सीट-बंटवारे की व्यवस्था के तहत यह सीट राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के पास चली गई. इसके बावजूद, यादव ने अपना नामांकन पत्र दाखिल किया और अब अपने प्रतिद्वंद्वियों — राजद की बीमा यादव और जनता दल (यूनाइटेड) के मौजूदा सांसद संतोष कुशवाहा — को कड़ी चुनौती दे रहे हैं.
उनके सामने ऐसी चुनौती है कि राजद के तेजस्वी यादव ने लोगों को आगाह किया है कि राजद उम्मीदवार बीमा भारती के खिलाफ कोई भी वोट राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए होगा.
राजद पदाधिकारियों ने कहा कि तेजस्वी पप्पू यादव को ऐसे व्यक्ति की तरह दर्शा कर राजद-कांग्रेस मतदाताओं को एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे जो वोटों को विभाजित करके एनडीए को जीतने में मदद करेंगे.
कहा जाता है कि जदयू के दो बार के सांसद संतोष कुशवाहा के खिलाफ कथित सत्ता विरोधी लहर को देखते हुए राजद पूर्णिया सीट को लेकर आश्वस्त है.
तो, गैंगस्टर से नेता बने पप्पू यादव का दबदबा क्या बताता है, जिन्होंने 2013 में बरी होने तक एक हत्या के मामले में 12 साल जेल में बिताए थे?
उनके चुनावी हलफनामे से पता चलता है कि पप्पू यादव के खिलाफ 41 आपराधिक मामले हैं और 15 मामलों में वे ज़मानत पर बाहर हैं. उनके खिलाफ सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और दंगा करने से लेकर शस्त्र अधिनियम, 1959 तक के आरोप हैं.
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, यह बाहुबल और परोपकार का मिश्रण ही है जिससे कि पिछले पांच साल से एक भी चुनाव नहीं जीतने के बावजूद उनका प्रभाव इस क्षेत्र में बरकरार है. दरअसल, यह क्षेत्र पप्पू यादव की उदारता और ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने की इच्छा की कहानियों से भरा हुआ है.
राजनीतिक नतीज़ों के कारण नाम नहीं बताने की शर्त पर विश्लेषक ने दिप्रिंट को बताया, “वे दोनों पार्टियों को अपने पैसे के लिए मौका दे रहे हैं और यह सब पूर्णिया में उनके ज़मीन पर किए गए काम के कारण है.”
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2019 से पहले — पप्पू यादव का उत्थान और पतन
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, पप्पू यादव की ज़िंदगी को दो चरणों में समझाया जा सकता है — 2019 के आम चुनावों से पहले और बाद में.
मधेपुरा के खुर्दा गांव में जन्मे नेता, जो अपनी ज़िंदगी के विभिन्न बिंदुओं पर राजद, सपा और कांग्रेस के साथ रहे, 80 के दशक के अंत में स्थानीय गैंगस्टर अर्जून यादव के करीबी सहयोगी थे और उन्होंने कथित पुलिस मुठभेड़ में यादव के मारे जाने के बाद गिरोह की बागडोर संभाली.
1990 में अपनी चुनावी शुरुआत की जब उन्हें सिंहेश्वर से स्वतंत्र विधायक के तौर पर बिहार विधानसभा में चुना गया. एक साल बाद, उन्होंने पूर्णिया से 1991 का लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार, क्षेत्र में उनके पहले से मौजूद प्रभाव के साथ-साथ उनके मजबूत स्थानीय संपर्क ने उन्हें तेज़ी से समर्थन मजबूत करने में मदद की.
पूर्णिया के एक अन्य विश्लेषक ने कहा, “यह पप्पू ही थे जिन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान हथियारबंद लोगों को अपने साथ ले जाने का चलन शुरू किया था. कोई भी — यहां तक कि प्रशासन भी — 40-50 वाहनों के उनके काफिले को नहीं रोक सका.
हालांकि, यह 1998 में पप्पू यादव के प्रतिद्वंद्वी, दिवंगत कम्युनिटी पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के पूर्णिया विधायक अजीत सरकार की हत्या थी, जिसने पूर्व सांसद की ज़िंदगी में महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया.
14 जून 1998 को अजीत सरकार, उनके ड्राइवर हरेंद्र शर्मा और पार्टी कार्यकर्ता अशफाकुर रहमान की शहर के सुभाष नगर इलाके में दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.
मामले की जांच कर रही केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने उस समय समाजवादी पार्टी में शामिल रहे पप्पू यादव को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन इस गिरफ्तारी और सलाखों के पीछे बिताए समय ने भी नेता को अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के जय कृष्ण मंडल को 2.52 लाख से अधिक वोटों के अंतर से हराकर 13वीं लोकसभा में पहुंचने से नहीं रोका.
एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक ने दिप्रिंट को बताया, “1999 के चुनाव से पता चला कि अजीत सरकार की हत्या उनकी छवि पर असर नहीं डालती और हत्या के आरोप में जेल में होने के बावजूद उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई.”
2004 में पूर्णिया के कद्दावर नेता ने राजद के टिकट पर मधेपुर लोकसभा क्षेत्र को जीता था.
फरवरी 2008 में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने उन्हें अजीत सरकार हत्याकांड में आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई. सज़ा का मतलब यह था कि उन्हें संसद से अयोग्य घोषित कर दिया गया और वे 2009 का आम चुनाव नहीं लड़ सकते थे.
2013 में पटना हाई कोर्ट द्वारा उन्हें बरी करने से पहले यादव ने हत्या के मामले में 12 साल जेल में बिताए. इस बीच, 2009 में, उनकी मां, शांति प्रिया, स्वतंत्र उम्मीदवार, पूर्णिया में भाजपा के मौजूदा सांसद उदय सिंह से हार गईं.
2014 में देश में चल रही नरेंद्र मोदी लहर के बावजूद वे आम चुनाव जीतने के लिए मधेपुरा लौट आए. ठीक एक साल बाद, उन्हें 2015 में राजद से निष्कासित कर दिया गया और उन्होंने जन अधिकार पार्टी का गठन किया, जिसका उन्होंने पिछले महीने की शुरुआत में कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया.
2019 के आम चुनाव में पप्पू यादव और उनकी पत्नी रंजीता रंजन दोनों को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा, जिससे कोसी-सीमांचल क्षेत्र में खोई हुई ज़मीन को दोबारा हासिल करने के लिए यादव को मैदान में उतरना पड़ा.
पूर्णिया में राजनीतिक विश्लेषकों ने दिप्रिंट को बताया कि 2019 की हार के बाद पप्पू यादव का दूसरा चरण शुरू हुआ. 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में वे मधेपुरा में राजद के चंद्र शेखर यादव से हार गए — यह इस नेता के लिए एक और बड़ा झटका था.
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2019 के बाद — ‘मसीहा’ चरण
विभिन्न पार्टियों के अनुमान के मुताबिक, पूर्णिया निर्वाचन क्षेत्र के 22 लाख मतदाताओं में सबसे बड़ा हिस्सा 30 प्रतिशत मुस्लिम हैं. 11.36 प्रतिशत के साथ, ओबीसी जाति यादव अगले स्थान पर आती है जबकि अनुसूचित जनजाति 9.09 प्रतिशत है.
मुख्य पूर्णिया शहर से लगभग 20 किमी पश्चिम में भवानीपुर गांव के बाहर, विनोद कुमार यादव चिलचिलाती धूप में मक्का सुखाने में व्यस्त हैं.
लेकिन उनसे पूछें कि यहां लोकसभा चुनाव कौन जीतेगा और तुरंत प्रतिक्रिया मिलती है — “पप्पू यादव इस गांव के साथ-साथ आसपास के गांवों में भी जीतने जा रहे हैं.”
भवानीपुर के लगभग 1,400 मतदाता यादव और कुशवाह जैसी प्रमुख जातियों के मुसलमानों और हिंदुओं का मिश्रण हैं.
गांव में बरगद के पेड़ के नीचे जुटी भीड़ पप्पू यादव की उदारता के किस्से सुनाती है. उदाहरण के लिए विनोद कुमार यादव बताते हैं कि कैसे इस ताकतवर व्यक्ति ने एक परिचित को उसके पूर्व बिजनेस पार्टनर से 19 लाख रुपये वापस दिलाने में मदद की, जो इसे छोड़ने को तैयार नहीं था.
उन्होंने कहा, “उन्होंने (यादव) कोई धमकी नहीं दी. उन्होंने उनसे सिर्फ इस मुद्दे को शांतिपूर्वक और ईमानदारी से निपटने के लिए कहा और उनके शब्दों में इतना वजन था कि मामला बिना किसी हंगामे के सुलझ गया.”
पूर्णिया में ऐसी बहुत कहानियां हैं — कैसे पूर्व सांसद ने मेडिकल बिलों को कम करने के लिए हस्तक्षेप किया, कैसे उन्होंने 2010 की शुरुआत में कोसी-सीमांचल क्षेत्र में भारी शुल्क लेने वाले निजी डॉक्टरों के खिलाफ “छापेमारी” की. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) जैसे डॉक्टर संघों और भाजपा जैसे प्रतिद्वंद्वी दलों ने छापे की निंदा करते हुए इसे “सतर्कता” का काम बताया.
मनमानी के ऐसे आरोपों के बावजूद, पप्पू यादव को पूर्णिया में समर्थन मिलता रहा है. एक ग्रामीण शंभू गोस्वामी ने ऐसे उदाहरणों का हवाला देते हुए पूछा, “मुझे उनका साथ क्यों नहीं देना चाहिए”.
एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक के अनुसार, बिहार में कई लोगों के लिए पप्पू यादव सिर्फ एक फोन कॉल की दूरी पर हैं और इसी ने उन्हें 2019 का आम चुनाव हारने के बावजूद अपना दबदबा बनाए रखने में मदद की.
उन्होंने कहा, “2019 का चुनाव हारने के बाद उन्होंने पूरे बिहार में यात्राएं कीं और राज्य भर के लोगों के लिए बोलना शुरू किया. वे (2019) बाढ़ के दौरान पटना में थे और छठ पूजा के दौरान महाराष्ट्र में थे.”
इस विश्लेषक ने कहा कि इन घटनाओं ने पप्पू यादव को राजनीतिक लाभ दिया और अब वे जहां भी जाते हैं, लोग उनके पीछे खड़े हो जाते हैं.
‘अनियंत्रित तत्व’
पप्पू यादव के कई समर्थकों के लिए गैंगस्टर से नेता बने पप्पू यादव की पहुंच निर्वाचन क्षेत्र के मौजूदा सांसद, जद (यू) के संतोष कुमार कुशवाह से बिल्कुल अलग है.
पूर्णिया के अब्दुल्ला नगर में कैलाश दास ने बताया कि कैसे उन्होंने अपने साथी दर्जी शंभु दास, जिनकी कुछ महीने पहले स्वास्थ्य समस्याओं के कारण मृत्यु हो गई थी, के परिवार की मदद करने के लिए कुशवाहा से बार-बार की गई अपील अनसुनी कर दी. उन्होंने कहा, “इसके उलट पप्पू यादव ने तुरंत प्रतिक्रिया दी और परिवार को कुछ पैसे दिए.”
हालांकि, हर कोई पप्पू यादव की ‘मसीहा’ वाली छवि को स्वीकार करने को तैयार नहीं है. भवानीपुर से कुछ किलोमीटर पहले एक कुशवाहा मतदाता ने कहा कि पूर्णिया के ताकतवर नेता का चुनाव उनके समर्थकों के बीच कुछ और “फ्रिंज तत्वों” की वापसी का प्रतीक हो सकता है.
नतीजों के डर से नाम न बताने की शर्त पर एक मतदाता ने दिप्रिंट को बताया, “मैं मोदी को वोट दे रहा हूं और (संतोष) कुशवाहा जब भी हमने उनसे हमारे साथ आने के लिए कहा है, वे हमेशा हमारे गांव आए हैं. इसलिए, हम अपनी वफादारी पप्पू के प्रति नहीं बदलेंगे.”
उक्त राजनीतिक विश्लेषक के अनुसार, गैंगस्टर से नेता बने इस व्यक्ति के लिए ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई है, यह देखते हुए कि यह चुनाव 20 साल के अंतराल के बाद पूर्णिया में उनकी वापसी का प्रतीक है.
उन्होंने कहा, “एक समय था जब पप्पू बिहार के अपराधियों और राजनेताओं के बीच नापाक गठजोड़ का पोस्टर बॉय हुआ करते थे, लेकिन अब, सत्ता से बाहर कुछ समय बिताने के बाद और मौजूदा उम्मीदवार इतने अलोकप्रिय हो गए हैं, लोग चाहते हैं कि पप्पू वापस आ जाएं.”
अपनी ओर से राजद के प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने निर्वाचन क्षेत्र में तेजस्वी यादव के आक्रामक रुख को यह कहकर कम करने की कोशिश की कि पार्टी नेता “सभी उम्मीदवारों के पीछे अपना वजन डाल रहे हैं, चाहे वह राजद से हो या कांग्रेस से”.
तिवारी ने दिप्रिंट को बताया, “पूर्णिया को अनावश्यक रूप से प्रचारित किया जा रहा है. तेजस्वी जी भागलपुर और कटिहार में भी कड़ी मेहनत कर रहे हैं, जहां कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन उन्होंने राजद नेता के उस बयान को भी दोहराया कि राजद पूर्णिया के खिलाफ कोई भी वोट एनडीए के लिए वोट होगा.”
लेकिन पप्पू यादव के समर्थक ऐसे बयानों से बेपरवाह हैं. अर्जून भवन में एक समर्थक ने इसे संक्षेप में कहा, “पप्पू ही जीतेगा. वे हमेशा सुलभ हैं, ज़रूरत के समय हमेशा हमारे लिए उपलब्ध हैं.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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