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Sunday, 24 November, 2024
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बिहार में जमीनी स्तर पर मौजूदगी और ‘स्वाभाविक’ गठबंधन की बदौलत वामदलों ने अपना प्रदर्शन सुधारा

छह और चार सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाकपा और माकपा ने दोनों ने दो-दो सीटें जीती हैं लेकिन भाकपा (माले) का 19 में से 12 सीटों पर सफल रहना चौंकाता है, जिसका 63 फीसदी का स्ट्राइक रेट भाजपा के 67 फीसदी के बाद दूसरे नंबर पर है.

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नई दिल्ली: बिहार में चुनावी हाशिये पर रहे वामपंथी दलों ने महागठबंधन की छत्रछाया में 29 में से 16 सीटों पर जीत हासिल कर लंबे समय बाद वापसी की है. हालांकि, महागठबंधन सत्तारूढ़ एनडीए को सत्ता से हटाने में नाकाम रहा लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भाकपा-मार्क्सवादी (माकपा) और भाकपा (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा फायदे में रहने वाली पार्टियों के तौर पर उभरी हैं.

क्रमश: छह और चार सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाकपा और माकपा ने दोनों ने ही दो-दो सीटें जीती हैं लेकिन भाकपा (माले) का 19 में से 12 सीटों पर सफल रहना चौंकाता है जिसका 63 फीसदी का स्ट्राइक रेट भाजपा के 67 फीसदी के बाद दूसरे नंबर पर है.

इस नतीजे के कारणों को लेकर कुछ मतभिन्नता है— कुछ विश्लेषकों और पर्यवेक्षकों ने इसे राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का साथ मिलने का नतीजा बताया है जबकि अन्य का तर्क है कि वामपंथ चुनावी विफलताओं के बाद भी लगातार जारी रहने वाला एक वैचारिक आंदोलन है जिसकी अथक मेहनत रंग लाई है.

लेकिन ऐसे समय जब वामपंथी केवल केरल में सत्ता में हैं और पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे अपने पुराने गढ़ों में भी अपनी ताकत गंवा चुके हैं, दिप्रिंट ने बिहार के विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने को गहराई से समझने की कोशिश की जिसने इस परिणाम को संभव बनाया है.


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बिहार में नई ताकत नहीं

विश्लेषकों का तर्क है कि बिहार चुनावों में वामपंथियों के प्रदर्शन का मूल आधार विभिन्न इलाकों में एक लंबे समय से उसकी वैचारिक मौजूदगी है.

प्रयागराज स्थित जी.बी. पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक बद्री नारायण ने कहा कि ये चुनाव नतीजे वामपंथी दलों के लिए बहुत ज्यादा मायने रखते हैं क्योंकि इसने घड़ी की सुइयों को अविभाजित बिहार के उस समय की ओर घुमा दिया है जब विधानसभा में इनके करीब दो दर्जन विधायक हुआ करते थे. वास्तव में 1995 तक भी बिहार विधानसभा में वाम दलों के 25-35 विधायक थे. भाकपा हर चुनाव में 20-25 सीटें हासिल करती थी.

इसके बाद भाकपा और माकपा का जनाधार तो सिकुड़ गया लेकिन 1973 में भाकपा (माले) के विभाजन के बाद गठित भाकपा (माले) लिबरेशन हर चुनाव में पांच-छह सीटें जीतता रहा. इसने इस बार राजद और कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने से पहले कभी किसी मुख्यधारा की पार्टी के साथ गठबंधन नहीं किया था.

विशेषज्ञों का मानना है कि राज्य पर ‘मंडल’ राजनीति का प्रभाव ही यह वोट बेस घटने की वजह बना.

टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में प्रोफेसर अश्विनी कुमार का तर्क है, ‘बिहार की राजनीति के मंडलीकरण ने वामपंथ को चोट पहुंचाई. लालू प्रसाद यादव के रूप में एक कद्दावर नेता के उदय ने यहां जातीय समीकरण को राजनीति पर हावी कर दिया. पर पिछले कुछ सालों में नक्सल आंदोलन ने बिहार में अपनी जड़ें मजबूत की है और यह एक अर्ध-दलित आंदोलन बन गया है.’

भाजपा नेता और शिक्षाविद डॉ. संजय पासवान कहते हैं, ‘1960 के दशक तक केंद्र और बिहार दोनों में वामपंथी अहम विपक्षी दल की भूमिका में थे. लेकिन गैर-कांग्रेसवाद और समाजवाद के उभार के साथ वे कमजोर होने लगे और उन्हें दूसरों के साथ हाथ मिलाने की जरूरत पड़ने लगी.’

उन्होंने कहा, ‘जब लोहिया ने यह परिभाषा दी कि भारत में जाति ही वर्ग है तो इसने सीधे तौर पर वाम दलों को चोट पहुंचाई. और वामपंथियों के एकदम हाशिये पर पहुंचाने वाला आखिरी झटका निश्चित तौर पर लालू प्रसाद यादव का कद बढ़ने से लगा, जिन्होंने बिहार में जाति की पहचान को ही राजनीति का केंद्र बना दिया. लेकिन राजनीति का खेल देखिए कि जहां लालू की मंडल राजनीति वामपंथियों के पतन का कारण बनी वहीं, उनका पुत्र ही वामपंथियों के फिर से उभरने में मददगार बना.’


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वर्ग संघर्ष का इतिहास

कई विश्लेषकों का कहना है कि वामपंथी पार्टियों खासकर भाकपा (माले) लिबरेशन की जीत को सिर्फ इसलिए तवज्जो न देना कि वह महागठबंधन का एक हिस्सा थी, चुनाव में शानदार प्रदर्शन न करने के बावजूद राज्य में पार्टियों की लगातार मौजूदगी को आधे-अधूरे ढंग से समझना ही होगा.

लालू के जीवन पर आधारित किताब गोपालगंज से रायसीना तक के सह-लेखक और वरिष्ठ पत्रकार नलिन वर्मा कहते हैं कि वामपंथी दलों, विशेष रूप से लिबरेशन (जिसकी जड़ें 1960 के दशक के नक्सलबाड़ी आंदोलन से जुड़ी हैं), ने जिन सीटों पर सफलता हासिल की है, उनके त्वरित विश्लेषण से पता चलता है कि इन सभी क्षेत्रों में खेतिहर मजदूरों और नक्सल आंदोलनों का इतिहास रहा है.

वर्मा ने कहा, ‘यदि आप इन क्षेत्रों को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि वहां हमेशा वामपंथियों की उपस्थिति रही है क्योंकि यहां वर्ग संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है. मंडल-मंदिर की राजनीति से भले ही राजनीतिक रूप से उनकी मौजूदगी को ग्रहण लग गया हो लेकिन वैचारिक रूप से उनकी उपस्थिति लगातार बरकरार रही है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘वामपंथी खेतिहर मजदूरों, किसानों, मजदूर वर्गों के मुद्दों पर राजनीति करते हैं…ये आंदोलन आधारित दल हैं इसलिए जब चुनावी प्रदर्शन नहीं करते हैं तो भी उनकी जगह बनी रहती है क्योंकि उनके कैडर समाज में काम करते हैं जहां सामंतवाद चलता रहता है.’

विश्लेषकों का कहना है कि यह बात खासकर भाकपा (माले) लिबरेशन के संदर्भ में एकदम सच है, जो बिहार में मजदूर तबके और वर्ग के आधार पर शोषण के मुद्दों को उठाता रहा है.

अपना नाम न बताने की शर्त पर पटना स्थित जगजीवन राम इंस्टीट्यूट ऑफ पार्लियामेंट्री स्टडीज के एक जाने-माने प्रोफेसर ने कहा, ‘अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और दलितों के बीच उनका एक समर्पित जनाधार है, खासकर उन इलाकों में जहां वर्ग हिंसा होती है.’

उक्त प्रोफेसर ने कहा, ‘निश्चित तौर पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि वामपंथी पूरे दलित वर्ग और ईबीसी का प्रतिनिधित्व करते हैं. लेकिन इन समुदायों के बीच एक ऐसा वर्ग है जो हिंसा और शोषण को अपना दुर्भाग्य मानकर बर्दाश्त नहीं करता है और वही तबका इन्हें वोट देता है.’

प्रोफेसर ने तर्कों के साथ समझाया कि वामपंथियों ने पश्चिमी जिलों सीवान, भोजपुर, बक्सर, रोहतास, जहानाबाद और यहां तक कि पटना में भी, जिसे संयुक्त रूप से भोजपुर क्षेत्र के तौर पर जाना जाता है, क्यों बेहतरीन प्रदर्शन किया.

प्रोफेसर ने आगे बताया, ‘चारु मजूमदार (कम्युनिस्ट नेता) के समय से ही भोजपुर क्षेत्र वर्ग संघर्ष का गढ़ रहा है. इसलिए यह ‘कोई और क्षेत्र’ नहीं है जहां वामपंथियों ने अच्छा प्रदर्शन किया है… 1960 के दशक में यह क्षेत्र खूनखराबे और हिंसा से प्रभावित रहा था.’

तथ्य बताते हैं कि भारत के पहले भाकपा माले सांसद रामेश्वर प्रसाद ने 1989 में भोजपुर से ही चुनाव जीता था. भाकपा माले ने उस समय 1982 में स्थापित इंडियन पीपुल्स फ्रंट के तहत चुनाव लड़ा था.

प्रोफेसर ने कहा, ‘भाकपा माले के पास यहां एक मजबूत कैडर है, भले ही छोटा ही सही. वे समर्पित कैडर हैं. यही वजह है कि आप भाकपा माले के उम्मीदवारों की जीत में एक बड़ा अंतर देख पा रहे हैं.’

दिप्रिंट के एक विश्लेषण के अनुसार, वास्तव में कांटे के इस मुकाबले में भाकपा (माले) लिबरेशन की जीत का औसत अंतर लगभग 23,000 वोट रहा है, जिसमें बलरामपुर विधानसभा क्षेत्र में महबूब आलम की 53,078 वोट की सबसे अधिक अंतर वाली जीत शामिल है.


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‘राजद के साथ स्वाभाविक गठबंधन’

प्रोफेसर ने स्पष्ट किया कि हालांकि, इन क्षेत्रों में उनका मजबूत वैचारिक आधार है फिर भी महागठबंधन का हिस्सा बनने से वामपंथी दलों को राजनीतिक ऊर्जा मिली.

जैसा ऊपर उल्लेख किया जा चुका है भाकपा (माले) लिबरेशन नक्सल आंदोलन के साथ निकटता से जुड़ा रहा है और वामपंथी दलों में सबसे कट्टर है. 1989 में मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने से पहले कई वर्षों तक भूमिगत रहा और कभी भी किसी मुख्यधारा की पार्टी के साथ गठबंधन का हिस्सा नहीं बना.

उदाहरण स्वरूप, 1970 के दशक में लाल सेना कही जाने वाली पार्टी की सशस्त्र शाखा ने भोजपुर, गया, छपरा, सिवान, पटना और औरंगाबाद जिलों— जिसमें अधिकांश में उसने इस बार सीटें जीती हैं, में जमींदारों के खिलाफ हिंसक संघर्ष का सहारा लिया. यही कारण है कि भूमिहारों की तरफ से मुकाबले के लिए रणवीर सेना जैसे संगठनों का गठन किया गया.

प्रो. अश्विनी कुमार ने बताया कि भाकपा (माले) ने लंबे समय तक ‘यादव शासन’ के खिलाफ जंग लड़ी थी, जो कथित तौर पर राजद की देन थी.

लेकिन नारायण कहते हैं कि यह एक नया वामपंथ है जो इस विधानसभा चुनाव में उभरा है. उन्होंने कहा, ‘यह ऐसा वामपंथ है जो समझता है कि लोकतंत्र में लचीलापन कितना जरूरी है. यही वजह है कि भाकपा (माले) लिबरेशन आगे बढ़ गया और उसने यहां तक कि कांग्रेस के साथ भी गठबंधन किया है, जिसके बारे में पिछले 20 सालों में उसने सोचा भी नहीं होगा…. चुनावी राजनीति आपको यही सब सिखा देती है. एक तरह से यह वामपंथियों के लिए खुद को फिर से खड़ा करने का उपयुक्त अवसर है.’

नारायण ने कहा कि राजद की अपनी बदलती राजनीति भी इस गठबंधन का आधार बनी. उन्होंने कहा, ‘जाति को रोजगार जैसे बड़े आर्थिक मुद्दों के साथ जोड़कर बात करने की कोशिश ने राजद को वामपंथियों के लिए एक स्वाभाविक सहयोगी बना दिया.’

नलिन वर्मा ने इससे सहमति जताई, ‘इतिहास बताता है कि वामपंथियों ने 1990 के दशक तक लालू के साथ गठबंधन किया, जिसके बाद वह भी पहचान की राजनीति में शामिल हो गए. लेकिन अब जब कुछ खालीपन नज़र आया और पहचान को दरकिनार कर भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने की आवश्यकता पड़ी तो दोनों फिर से एक साथ आ गए.

उन्होंने कहा, ‘राजद जब कमाई, पढ़ाई, दवाई और सिंचाई की बात करता है, तो यह निश्चित तौर पर वे मुद्दे उठा रहा है जो वामपंथी उठाते रहे हैं. इसलिए गठबंधन कारगर रहा. यह एक बैनर के तले आने जैसा है.’


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‘ज्यादा अर्थ न निकालें’

हालांकि, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो राहुल वर्मा ने नतीजों का निहितार्थ वामदलों के ‘पुनरुत्थान’ के रूप में निकाले जाने को लेकर आगाह किया.

उन्होंने कहा, ‘उन्होंने सभी सीटों पर राजद की वजह से जीत हासिल की है. यहां तक कि पिछली बार जब उसके साथ गठजोड़ा किया, तो उन्होंने 20 सीटों पर जीत हासिल की थी. परिणाम का यह निहितार्थ निकालना गलत होगा कि यह वामपंथियों का पुनरुत्थान है, क्योंकि वामपंथियों के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई है, पुनरुत्थान की नहीं. वामदल अगर कल पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लें तो जीत जाएंगे लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह बंगाल की राजनीति में फिर से एक प्रमुख ताकत बन जाएंगे.’

यह पूछे जाने पर कि वामपंथी दलों को इतनी सीटें क्यों दी गई होंगी जब उनकी तरफ से राजद को कुछ मिलना नहीं था, राहुल वर्मा ने कहा कि राजद अपना मतदाता आधार बढ़ाने की कोशिश कर रहा था और ‘मुस्लिम-यादव पार्टी’ का टैग हटाना चाहता था तो उसे वामदलों की तरफ से कुछ दलित और ईबीसी वोटबैंक का साथ मिलने की उम्मीद थी.

नारायण ने भी कुछ इसी तरह की राय जताई. उन्होंने कहा, ‘यह मानना गलत होगा कि राजद के बिना भी वाम दलों को इतने वोट मिलते. उनके पास बेहद सीमित जनाधार है. लेकिन कांग्रेस के विपरीत इसमें गठबंधन से लाभ उठाने की क्षमता है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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