पीर गली, शोपियां: समुद्र तल से चार हज़ार मीटर ऊपर, गिरजान घाटी की सात महान ऊंची झीलों की ओर जाने वाले पहाड़ी दर्रे के एक मोड़ पर, जावेद इकबाल बकरवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘नया कश्मीर’ पर अपनी बचत दांव पर लगा दी है.
बाहर कार्डबोर्ड साइनबोर्ड पर अंग्रेज़ी में लिखा है, “रूम-नाइट”, “चाय, नून-चाय, मैगी, मक्की-की-रोटी”. सेब के टोकरे की लकड़ी और तिरपाल से बनी झोंपड़ी शायद टूरिस्ट के लिए बकैट लिस्ट वाली चीज़ें न हों, लेकिन इकबाल को उम्मीद है कि उन्हें इसका फायदा मिलेगा.
इकबाल ने कहा, “हमारे गुज्जर और बकरवाल समुदाय और मेरे परिवार के लिए यह साल आर्थिक रूप से बहुत बुरा रहा है. मैंने सोचा कि चूंकि, कुछ टूरिस्ट इस ओर आने लगे हैं, इसलिए शायद मुझे कुछ अलग करने की कोशिश करनी चाहिए.”
हालांकि, चीज़ें कारगर नहीं हुईं. कश्मीर के वन्यजीव अधिकारी इकबाल से झोंपड़ी गिराने की मांग कर रहे हैं, उनका कहना है कि उनके पास न तो ज़मीन का मालिकाना हक है और न ही चाय बनाने के लिए लकड़ी इकट्ठा करने का अधिकार और टूरिस्ट का आना-जाना बंद हो गया है.
बीते हफ्ते में दक्षिण कश्मीर का शोपियां जिला — जो लंबे समय से जिहादियों और भारत से अलग होने की मांग करने वाले इस्लामवादियों का गढ़ रहा है — प्रधानमंत्री द्वारा 2019 में अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के फैसले के बाद से, इसने पहले विधानसभा चुनाव में मतदान किया.
शोपियां में जातीय कश्मीरी, पूरे क्षेत्र के मतदाताओं की तरह, विशेष संवैधानिक स्थिति और जातीय पहचान के सवालों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, लेकिन शोपियां के दक्षिणी किनारे पर स्थित पीर पंजाल रेंज में रहने वाले गुज्जर-बकरवाल खानाबदोश मुख्य रूप से अस्तित्व के बारे में बात कर रहे हैं.
लंबी, शुष्क गर्मियों का मतलब है कि घास के मैदानों में बहुत कम घास उगी है, जिस पर खानाबदोश समुदायों के भेड़ और भैंस के झुंड निर्भर हैं. दूध और घी का प्रोडक्शन, जो गुज्जर-बकरवाल की गर्मियों की आय के लिए महत्वपूर्ण है, वो नहीं रहा है. बड़ी संख्या में पशुधन बीमार हो गए हैं. इकबाल का कहना है कि उन्होंने तीन घोड़े खो दिए, जिनमें से प्रत्येक की कीमत तकरीबन डेढ़ लाख रुपये थी — बीमारी के कारण क्योंकि एक सरकारी पशु चिकित्सक ने घोड़ों को देखने के लिए बस नाम का दौरा किया.
गिरजान घाटी की चढ़ाई पर सफेद ऊन के ढेर बिखरे पड़े हैं, जिन्हें बकरवालों ने इसलिए फेंक दिया है क्योंकि पिछले साल इसकी कीमत 100 रुपये प्रति किलो से गिरकर 20 रुपये से भी कम हो गई है. नंदन सर झील की ओर जाने वाली घाटी में रहने वाले इनायत बकरवाल ने कहा, “ऊन को बाज़ार तक ले जाने के लिए घोड़े को किराए पर लेने का खर्च भी इस कीमत से पूरा नहीं हो पाएगा. हमारे पास इस साल काटी गई ऊन को फेंकने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.”
देश के अन्य हिस्सों में किसानों द्वारा फसल को फेंकने की तस्वीरें राष्ट्रीय सुर्खियां बनी हैं. हालांकि, पीर पंजाल में कृषि संकट राजनेताओं या मीडिया का ध्यान खींचने में विफल रहा.
इकबाल शिकायत करते हैं, “पिछले पांच सालों में सरकार ने हमारे लिए कुछ भी नहीं किया है, एक भी काम नहीं किया. कम से कम वो मुझे शांति से अपनी चाय की दुकान चलाने दे सकते हैं, लेकिन वन्यजीव विभाग को इससे भी परेशानी है.”
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पहाड़ों में युद्ध
किंवदंती है कि सात झीलें ज़िंदा ऋषि या संत हैं, जिनकी दया से शोपियां को अपने प्रसिद्ध बागों को पानी मिलता है.
एक कहानी के अनुसार, सबसे बड़ी झील, नंदन सर, का क्रोध एक बार उनके पांच अनियंत्रित भाइयों पर पड़ा था, लेकिन भटके हुए भाइयों को उनकी दयालु बहन, काल दचनी की झील की मध्यस्थता से बचा लिया गया था.
गुज्जर-बकरवाल का मानना है कि गिरजन घाटी में भयंकर पहाड़ी आत्माएं रहती हैं; इनका नाम “गड़गड़ाहट” और “जिन्न” शब्दों से लिया गया है.
गुज्जर-बकरवाल घास के मैदानों पर कब्ज़ा करने का अधिकार रखते हैं, जो उनके पूर्वजों को दिया गया था और डोगरा राजशाही के तहत इसे औपचारिक रूप दिया गया था. जम्मू और कश्मीर में लगातार सरकारों ने उन अधिकारों का सम्मान किया है, लेकिन झुंडों के आकार और जलाऊ लकड़ी के लिए वन्यजीव अधिकारियों के साथ टकराव आम बात रही है.
1990 के दशक के उत्तरार्ध से ही भारतीय सुरक्षा योजनाकारों ने यह समझ लिया है कि ये पहाड़ और उनमें रहने वाले गुज्जर-बकरवाल घाटी की सुरक्षा की कुंजी हैं. झील में दर्रे दक्षिण-पश्चिम में राजौरी और पुंछ जिलों में जाते हैं, जहां गुज्जर-बकरवाल अपनी सर्दियां बिताते हैं. पीर गली से दरहाल और बफलियाज़ जैसे शहर सिर्फ एक दिन की पैदल दूरी पर हैं.
दक्षिणी कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी अक्सर भारतीय सुरक्षा बलों से बचने, नए कैडरों को ट्रेनिंग देने और हथियारों के जखीरे को जमा करने के लिए पहाड़ों में चले जाते थे.
सऊदी अरब के पूर्व व्यवसायी ताहिर फज़ल जैसे लोगों के नेतृत्व में गुज्जर आतंकवाद विरोधी मिलिशिया ने पहाड़ों में जिहादी समूहों से निपटने के लिए जम्मू और कश्मीर पुलिस के साथ सफलतापूर्वक काम किया. गुज्जर विद्रोहियों के समर्थन के कारण पीर पंजाल में सैकड़ों लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद आतंकवादियों का सफाया हो गया.
भले ही हिंसा का स्तर अपेक्षाकृत कम रहा हो, लेकिन 2021 से पीर पंजाल रिम पर कई घटनाएं हुई हैं — जिनमें शोपियां में स्थानीय राजनेताओं और प्रवासी श्रमिकों की हत्याएं और राजौरी के डेरा-की-गली में सेना को निशाना बनाकर किए गए हमले शामिल हैं — जिससे पता चलता है कि उच्च प्रशिक्षित जिहादियों की छोटी टुकड़ी यहां लौट आई है.
पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “इस क्षेत्र में अब सक्रिय आतंकवादी अत्यधिक प्रशिक्षित और अनुशासित हैं, उनके पास अफगानिस्तान में कई वर्षों का युद्ध का अनुभव है. उनके पर्वतीय अभियानों के बारे में हमारे पास जो खुफिया जानकारी है, वो काफी नहीं है.”
पीर गली निवासी इम्तियाज खान ने कहा, “15 साल पहले, आतंकवादी हमारे ढोकों (पत्थर की झोपड़ियों) में घुस आते थे, खाना मांगते थे और कई दिनों तक पनाह लेते थे. आज, वो केवल मुट्ठी भर लोगों के साथ ही काम करते हैं जिन पर उन्हें पूरा भरोसा है और पहाड़ी समुदायों के साथ किसी भी तरह के संपर्क से बचते हैं.”
सुरक्षा अधिकारियों का कहना है कि दक्षिणी कश्मीर में आतंकवाद न फैले, इसके लिए गुज्जर-बकरवाल के समर्थन की फिर से दरकार है, लेकिन समुदाय इस बात से नाराज़ है कि कई लोग इसे आतंकवाद से लड़ने में उनकी सेवा के साथ विश्वासघात मानते हैं.
ताहिर फज़ल के शब्दों में उस कड़वाहट का रंग है: “हमारी तरह, सेना भी अपने घोड़ों और खच्चरों से बहुत प्यार करती है और बच्चों की तरह उनकी देखभाल करती है. फिर, एक दिन, वो खच्चर बूढ़े हो जाते हैं और वो उनके सिर में गोली मार देते हैं. यही हमारी किस्मत भी थी.”
पिछड़ेपन की राजनीति
पीढ़ियों से गुज्जर-बकरवाल मियां अल्ताफ अहमद लारवी के परिवार के पीछे खड़े हैं — पांच बार विधायक और अब सांसद, जो शाहदरा शरीफ और कंगन के महान दरगाहों को नियंत्रित करने वाले सूफी आध्यात्मिक वंश के खलीफा या शासक भी हैं.
अपने दादा मियां निजामुद्दीन लारवी के समय से, जो 1962 में पहली बार विधायक चुने गए थे, लारवी परिवार नेशनल कॉन्फ्रेंस का समर्थन करता रहा है. इस रिश्ते ने गुज्जर-बकरवाल को राजनीतिक प्रभाव दिया और नेशनल कॉन्फ्रेंस को एक ऐसा ब्लॉक वोट मिला, जो जम्मू-कश्मीर के लगभग सभी जिलों में फैला हुआ था.
हालांकि, पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने पहाड़ी लोगों के लिए आरक्षण का कानून बनाया था. पहाड़ी भाषाई समूह में ऊंची जाति के हिंदू और मुसलमान शामिल हैं. सरकार का कहना है कि नए कोटे से गुज्जर-बकरवाल प्रभावित नहीं होंगे, लेकिन इस बहस ने लंबे समय से चली आ रही शिकायतों को और बढ़ा दिया है.
गुज्जर-बकरवाल नेताओं का आरोप है कि 2014 के बाद से जब पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी-भारतीय जनता पार्टी गठबंधन ने सत्ता संभाली, तब से समुदाय पर हमले होने लगे. नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ता इरशाद खान ने कहा, “शोपियां और राजौरी को जोड़ने वाली मुगल रोड 2012 में बनाई गई थी और बर्फीले तूफान में फंसे लोगों की सुरक्षा के लिए आश्रय स्थल भी बनाए गए थे.”
“उसके बाद गुज्जर-बकरवाल के लिए कुछ भी नहीं बनाया गया.”
गुज्जर-बकरवाल की शिकायतों में शिक्षा सबसे अहम है. गर्मियों के महीनों में कई गुज्जर-बकरवाल बच्चे अपने परिवारों के साथ पहाड़ी चरागाहों की यात्रा करते हैं. साल 2000 से जम्मू-कश्मीर सरकार ने प्राथमिक विद्यालय के बच्चों की शिक्षा को प्रभावित न होने देने के लिए समुदाय से भर्ती किए गए अंशकालिक शिक्षकों की नियुक्ति शुरू की. हालांकि, कम सैलरी और स्थायी नौकरियों की संभावनाओं की कमी के कारण कई लोगों ने अपने पद छोड़ दिए हैं. बहुत कम पदों को दोबारा भरा गया है.
नंदन सर से बहने वाली पहाड़ी धारा पर अपने ढोके से, मोहम्मद सरफराज अब स्वयंसेवक के रूप में दरहाल क्षेत्र के बच्चों के लिए एक स्कूल चलाते हैं. उनका तर्क है, “खानाबदोश समुदाय के लोगों की ज़िंदगी में कुछ खास मुश्किलें शामिल हैं. सरकार ने हमारी शिक्षा प्रणाली को खत्म करके गुज्जर-बकरवाल पिछड़ेपन को सुनिश्चित किया है.”
सरफराज का कहना है कि बुनियादी सेवाओं की कमी भी समुदाय पर बोझ डालती है. “पिछले साल, जब मेरी बुजुर्ग मां बीमार पड़ गईं, तो हम चार लोग उन्हें चारपाई पर उठाकर सड़क तक ले गए और फिर एक ट्रक चालक का इंतज़ार किया जिसने हमें शोपियां तक लिफ्ट दी.”
कई गुज्जर-बकरवाल तर्क देते हैं कि उनकी कृषि अर्थव्यवस्था के लिए राज्य समर्थन प्रणाली का अभाव, समुदाय की सबसे बड़ी समस्या है.
कश्मीर में कोई औद्योगिक मांस या डेयरी प्रसंस्करण क्षेत्र नहीं है, जिससे गुज्जर-बकरवाल अर्थव्यवस्था अनिश्चित है.
इकबाल ने पूछा, “शोपियां में सेब के बागवानों को अपने बागों को बेहतर बनाने के लिए सब्सिडी मिलती है. हमें क्यों नहीं मिलती?”
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