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Friday, 20 December, 2024
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मदन लाल खुराना: जिस दिल्ली के शिविर में शरणार्थी रहे, एक दिन उसके मुख्यमंत्री बने

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बंटवारे के बाद मदन लाल खुराना 12 वर्ष की उम्र में पाकिस्तान से दिल्ली के शिविर में पहुंचे तो ऐसे जमे कि एक दिन दिल्ली की गद्दी पर भी बैठे.

नई दिल्ली: दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पूर्व नेता मदन लाल खुराना का शनिवार को देर रात निधन हो गया. वे 83 वर्ष के थे. दिल्ली सरकार ने रविवार को दो दिवसीय राजकीय शोक की घोषणा की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत तमाम बड़े नेताओं ने उनकी मौत पर दुख जताया है.

पिछले दस दिनों में ऐसे दो बड़े नेताओं का निधन हो गया, जिनका ताल्लुक पूर्व का आॅक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्याल से था. इलाहाबाद विश्वविद्यालय किसी समय सिर्फ उच्च शिक्षा के लिए नहीं जाना जाता था, ​बल्कि वह राजनीति की नर्सरी भी था. वीपी सिंह, चंद्रशेखर, अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी और मदन लाल खुराना जैसे नेता इलाहाबाद के छात्रसंघ से निकले नेता थे,​ जिन्होंने राजनीति में लंबा और सम्मानजनक मकाम तय किया.

लेकिन बाकी की तुलना में खुराना का सफर जरा ज्यादा लंबा रहा. वे पाकिस्तान से चलकर दिल्ली पहुंचे, दिल्ली से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सियासत का ककहरा सीखा और पार्टी खड़ी करने जैसे लंबे संघर्ष के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री बन पाए.

पाकिस्तान के लायलपुर में जन्म

खुराना का जन्म 1936 में पाकिस्तान के लायलपुर में हुआ था. बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान से दिल्ली आ गया. तब खुराना महज 12 साल के थे.

खुराना का परिवार दिल्ली आया तो यहां आकर कीर्ति नगर के एक शरणार्थी शिविर में पनाह मिली. लेकिन खुराना के नसीब को यह नहीं मंजूर था. जिस दिल्ली में 12 साल की उम्र में खुराना को शिविर में शरण लेनी पड़ी थी, आगे चलकर वे उसी दिल्ली के वे मुख्यमंत्री बने.

खुराना ने दिल्ली विश्वविद्याल के किरोड़ी मल कॉलेज से ग्रेजुएशन किया था. बाद में वे पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए इलाहाबाद चले गए और वहां पर वे छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए. 1959 में उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ का महासचिव चुना गया. 1960 में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी के महासचिव चुने गए.

दिल्ली में जनसंघ को स्थापित किया

विश्वविद्यालय से उन्होंने जो राजनीति में एंट्री ली तो लंबी पारी खेली. हालांकि, सक्रिय सियासत में आने से पहले मदन लाल खुराना दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कॉलेज में अध्यापन भी कर चुके थे.

1993 से 1996 तक दिल्‍ली के मुख्यमंत्री रह चुके खुराना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा दोनों से जुड़े थे. वे 1965 से लेकर 1967 तक जनसंघ के महासचिव रहे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब जनसंघ की स्थापना की तो दिल्ली में उनको खुराना का साथ मिला.

खुराना ने अपने कॉलेज सहयोगी विजय कुमार मलहोत्रा और कुछ अन्य सहयोगियों के साथ दिल्ली में जनसंघ की जड़ें जमाई थीं. वही जनसंघ आगे चलकर भाजपा में तब्दील हो गया.

‘दिल्ली का शेर’

अपने राजनीतिक उभार के दौर यानी 1990 के दशक में ‘दिल्ली का शेर’ कहे जाने वाले खुराना ने उस समय भाजपा का नेतृत्व था जब दिल्ली में इंदिरा गांधी जैसी नेता थीं.

1984 में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा जिसके बाद मदन लाल खुराना कड़ी मेहनत करके भाजपा को फिर से दिल्ली में स्थापित किया.

अटल बिहारी वाजपेयी के घनिष्ट माने जाने वाले मदन लाल खुराना राजस्‍थान के राज्‍यपाल भी रहे. इसके अलावा वे वाजपेयी सरकार में पर्यटन मंत्री और संसदीय कार्य मंत्री का पदभार संभाल चुके थे.

दिल्ली मेट्रो का श्रेय

दिल्ली में मेट्रो सेवा का श्रेय मदन लाल खुराना को है. दिल्ली मेट्रो रेल निगम के अध्यक्ष रहते हुए खुराना ने दिल्ली निगम और सरकार के बीच बेहतर समन्वय और तालमेल को सुनिश्चित किया और एक ऐसी सेवा की शुरुआत हुई जो आज नजीर है. प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने जब दिल्ली मेट्रो का उद्घाटन किया, उस समय खुराना ही दिल्ली मेट्रो रेल निगम के अध्यक्ष थे.

1991 में मशहूर हवाला कांड में लालकृष्ण आडवाणी, वीसी शुक्ला, शरद यादव, पी शिवशंकर, बलराम जाखड़ के साथ मदन लाल खुराना का भी नाम आया था. हालांकि, इस केस में सबूतों के अभाव में सभी आरोपी छूट गए जिसके बाद सीबीआई की बहुत आलोचना हुई. इसी मामले से जुड़े विनीत नारायण बनाम भारत मामले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी जिसकी हाल में सीबीआई विवाद में काफी चर्चा हुई.

दिल्ली को राज्य का दर्जा मिलने केे बाद पहले मुख्यमंत्री खुराना ही थे, लेकिन इस हवाला कांड के चलते उनको इस्तीफा देना पड़ा.

भाजपा से निकाला गया

2004 में जब वे राजस्थान के राज्यपाल थे, उन्होंने सक्रिय राजनीति के लिए राज्यपाल पद से इस्तीफा देते हुए सक्रिय राजनीति में वापसी की.

खुराना अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते थे, इसलिए अटल और आडवाणी जैसे पार्टी नेताओं के भी आलोचक थे. खास तौर से आडवाणी से उनके गहरे मतभेद थे. वे भाजपा के उग्र हिंदुत्व के भी आलोचक थे. आडवाणी के खिलाफ असहमतियों को जाहिर करने और सार्वजनिक आलोचना करने के लिए अगस्त 2005 उन्हें पार्टी से निकाल ​दिया गया था.

हालांकि, अपनी आलोचना के लिए माफी मांगने के बाद सितंबर में उन्हें फिर से पार्टी में वापस ले लिया गया, लेकिन 2006 में पार्टी में बगावत के आरोप में उन्हें हमेशा के लिए पार्टी से निकाल दिया गया.

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