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Thursday, 4 September, 2025
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परिवार में झगड़े, अधिकार की लड़ाई: इतिहास से क्या सबक ले सकती हैं के. कविता

इतिहास बताता है कि परिवार के मुखिया को चुनौती देने के बाद राजनीति में बहुत कम लोग टिक पाए हैं. कविता का राजनीतिक भविष्य भी इसी कारण अनिश्चित दिख रहा है.

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नई दिल्ली: भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) से के. कविता ने बुधवार को इस्तीफा दे दिया. यह कदम उन्होंने उस समय उठाया जब एक दिन पहले ही उनके पिता और पार्टी अध्यक्ष के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने उन्हें एंटी-पार्टी गतिविधियों के लिए निलंबित कर दिया था.

रुखसती के वक्त कविता ने अपने चचेरे भाइयों और पार्टी नेताओं हरीश राव और संतोष जोगिनापल्ली पर और जोरदार हमला बोला. उन्होंने उन पर आरोप लगाया कि उन्होंने कलेश्वरम लिफ्ट सिंचाई परियोजना में गड़बड़ियों के जरिए केसीआर पर भ्रष्टाचार का दाग लगाया.

ऊपरी तौर पर यह एक पारिवारिक विवाद दिखता है, जहां एक बहन अपने चचेरे भाइयों के खिलाफ खड़ी थी, जो पिता के करीब थे.

पार्टी अनुशासन बनाए रखने के लिए पिता को बेटी को जाने देना पड़ा, क्योंकि उसने भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर पार्टी नेतृत्व को ही कठघरे में खड़ा कर दिया था. हालांकि, कविता ने अपने पिता या भाई के.टी. रामाराव (केटीआर) को दोष नहीं दिया.

इस पूरे विवाद की शुरुआत मई में ‘लीक’ हुए लेटर बम से हुई थी, जिसमें कविता ने अपने पिता पर भाजपा के प्रति नरमी बरतने का आरोप लगाया था. तभी से केसीआर और केटीआर चुप्पी साधे हुए हैं.

जब कविता ने खुलकर बयान दिए और कहा कि उनके खिलाफ साज़िश हो रही है, तब भी पिता या भाई ने उनसे बातचीत कर मामले को शांत करने की कोशिश नहीं की. पिछले महीने उन्होंने इस रिपोर्टर से कहा था कि वह अपने भाई की कलाई पर राखी बांधने का सोच रही थीं, लेकिन उसी दिन केटीआर शहर से बाहर चले गए.

कविता प्रकरण में कई सवाल अब भी अनुत्तरित हैं. अगर बेटी को चचेरे भाइयों से दिक्कत थी और वह खुद को साजिश का शिकार मान रही थी, तो केसीआर ने उनसे बात क्यों नहीं की?

वह चिट्ठी उनकी मां के हाथों पिता तक पहुंची थी, लेकिन लीक किसने की? केटीआर ने अपनी छोटी बहन से संवाद क्यों तोड़ लिया? हरीश राव लंबे समय से केसीआर की राजनीतिक विरासत के मजबूत दावेदार माने जाते रहे हैं. ऐसे में केटीआर को अपनी बहन का साथ देना चाहिए था, जब वह हरीश पर निशाना साध रही थीं.

दिलचस्प है कि पिछले साल मई में हरीश ने खुद कहा था कि वह केटीआर को पार्टी प्रमुख बनाए जाने का स्वागत करेंगे. यानी उन्होंने विरासत की दावेदारी छोड़ने का संकेत दिया था.

तो फिर क्या वजह थी कि तीनों भाई एक साथ हो गए? क्या कविता ने विरासत की लड़ाई शुरू कर दी थी? 2014 लोकसभा चुनाव में जब केसीआर ने उन्हें चुनाव लड़ने को कहा था, तब उन्होंने साफ कर दिया था कि केटीआर ही उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी होंगे. उस वक्त कविता को इस पर कोई आपत्ति नहीं थी.

क्या अचानक कुछ बदल गया? इन सवालों के साफ जवाब अभी तक सामने नहीं आए हैं.

अनिश्चित राजनीतिक भविष्य

बीआरएस से बाहर आने के बाद कविता का राजनीतिक भविष्य अनिश्चित हो गया है. अगर राजनीतिक दलों के पहले परिवारों में हुए झगड़ों के इतिहास को देखें, तो हालात उनके खिलाफ नज़र आते हैं. परिवार के मुखिया को चुनौती देने के बाद राजनीति में टिक पाना और आगे बढ़ पाना बहुत कम लोगों के लिए संभव हुआ है.

हालांकि, इसके अपवाद भी हैं, जैसे समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, जिन्होंने अपने पिता, दिवंगत मुलायम सिंह यादव, के खिलाफ बगावत करके पार्टी पर कब्ज़ा किया था. उस समय मुलायम ने अपने भाई शिवपाल यादव का साथ दिया था, न कि बेटे का.

लेकिन इस मामले की दिलचस्प बात यह थी कि चुनाव आयोग में सपा सिंबल के लिए हुई लड़ाई में मुलायम ने लगभग अपने बेटे को वॉकओवर दे दिया. उन्होंने आयोग में ऐसा कोई हलफनामा ही दाखिल नहीं किया, जिसमें यह साबित हो कि सपा विधायक दल या संगठन उनके साथ है.

सपा संस्थापक अपने दावे के समर्थन में एक भी सांसद, विधायक या पार्टी पदाधिकारी नहीं जुटा पाए. इसने राजनीतिक हलकों में अटकलों को मज़बूत किया कि चालाक नेता मुलायम ने अपने बेटे की नेतृत्वकारी स्थिति को भविष्य में किसी भी पारिवारिक चुनौती, यहां तक कि शिवपाल से भी—बचाने का रास्ता निकाल लिया था.

आखिरकार, मुलायम ही थे जिन्होंने 2012 में अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाकर उन्हें लगभग अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, लेकिन यह हमेशा अटकलों के दायरे में ही रहेगा क्योंकि मुलायम सिंह अब इस बात की पुष्टि या खंडन करने के लिए मौजूद नहीं हैं.

एक और उदाहरण अजित पवार का है, जिन्होंने शरद पवार से मूल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) छीन ली. शरद पवार ने अपनी राजनीतिक विरासत बेटी सुप्रिया सुले को देने की कोशिश की, लेकिन यह हमेशा विवादित रहेगी. वजह यह है कि महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार को मूल पार्टी का चुनाव चिह्न मिला है और आज उनकी एनसीपी अपनी चचेरी बहन की पार्टी से कहीं ज़्यादा मज़बूत है.

उत्तराधिकार की जंग

कुछ अपवाद ज़रूर हैं, लेकिन परिवार के मुखिया—पिता या मां को चुनौती देने के बाद राजनीति में बहुत कम नेता ही टिक पाए हैं या आगे बढ़े हैं.

शुरुआत करते हैं 28 मार्च 1982 से, जब मेनका गांधी इंदिरा गांधी के सफदरजंग रोड स्थित घर से बाहर निकलीं. इंदिरा गांधी ने अपनी महत्वाकांक्षी बहू के बजाय बेटे राजीव गांधी को चुना. अगले ही साल मेनका ने राष्ट्रीय संजय मंच बनाया, लेकिन पांच साल बाद उसे जनता दल में मिला दिया. 2004 में उन्होंने बीजेपी जॉइन कर ली.

नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस से बाहर आने के बावजूद मेनका का राजनीतिक सफर बुरा नहीं रहा. वे कई बार सांसद बनीं और अटल बिहारी वाजपेयी व नरेंद्र मोदी सरकारों में मंत्री भी रहीं. उनके बेटे वरुण गांधी भी सांसद बने.

लेकिन परिवार की दूसरी धारा, यानी सोनिया गांधी के नेतृत्व वाला हिस्सा, कांग्रेस पर नियंत्रण के रूप में राजनीतिक विरासत का वारिस बना. अक्सर यह अटकलें लगती रही हैं कि सोनिया वाली धारा में भाई-बहन की प्रतिस्पर्धा हो सकती है, क्योंकि प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी सहयोगियों और जनता के बीच बेहतर छवि वाली नेता माना जाता है, लेकिन यह अब भी सिर्फ अनुमान ही है.

परिवार का मुखिया ही जीतता है

परिवार-आधारित पार्टियों में दो तरह की लड़ाइयां होती हैं. पहली भाई-बहनों के बीच की जंग, चाहे वह सगे भाई-बहन हों या सौतेले. दूसरी—परिवार के भीतर की लड़ाई, जो खून के रिश्तों से आगे जाती है, जैसे बहुएं, चचेरे-फुफेरे भाई और चाचा.

ये भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था को दर्शाती हैं. पहला, परिवार या पार्टी के मुखिया (चाहे पिता हों या मां) का चुनाव हमेशा अंतिम होता है, भले ही कोई भाई या बहन बेहतर क्यों न हो. मुखिया ने जिसे चुन लिया, वही वारिस है. दूसरा, अगर मुकाबला भाई और बहन के बीच है, तो जीत हमेशा भाई की होती है. उदाहरण के लिए अगर आपको लगता हो कि प्रियंका गांधी वाड्रा में ज़्यादा क्षमता है, तो भी उन्हें भाई राहुल के पीछे ही रहना होगा, क्योंकि मां सोनिया यही चाहती हैं.

इसी तरह, भले ही कोई मान ले कि कविता केटीआर से बेहतर हैं, हालांकि, ज़्यादातर लोग ऐसा नहीं मानते, तो भी केसीआर बेटे केटीआर का ही समर्थन करेंगे और जनता को इसे स्वीकार करना होगा, लेकिन अगर मुकाबला भाई/बहन और चचेरे भाई या चाचा के बीच हो, तो भाई/बहन ही आगे रहते हैं.

जहां तक बहुओं का सवाल है, भाजपा सांसद किरण चौधरी सही मायनों में पूर्व हरियाणा मुख्यमंत्री बंसीलाल की विरासत की हकदार कहलाईं. बंसीलाल ने अपने दूसरे बेटे रणबीर सिंह महेंद्र के बजाय पति सुरेंद्र सिंह को उत्तराधिकारी चुना था.

परिवार की दोनों शाखाएं चुनावी मैदान में आमने-सामने भी हुईं. 1998 के लोकसभा चुनाव में रणबीर सिंह (कांग्रेस प्रत्याशी) ने अपने भाई सुरेंद्र सिंह (हरियाणा विकास पार्टी प्रत्याशी) को भिवानी सीट से चुनौती दी और रणबीर हार गए.

प्रतिस्पर्धा आगे बढ़ी और 2024 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में रणबीर सिंह के बेटे अनिरुद्ध ने कांग्रेस टिकट पर सुरेंद्र सिंह की बेटी श्रुति (भाजपा प्रत्याशी) के खिलाफ तोशाम सीट से चुनाव लड़ा. इस बार भी रणबीर का बेटा हार गया.

एक और बहू, जो विरासत की लड़ाई में हार गईं, वह हैं सीता सोरेन, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) प्रमुख शिबू सोरेन के बड़े बेटे दुर्गा की पत्नी. दुर्गा को उत्तराधिकारी माना जा रहा था, लेकिन 2009 में उनकी मौत हो गई. इसके बाद पिता ने जिम्मेदारी छोटे बेटे हेमंत को सौंप दी.

कई सालों तक भीतर ही भीतर नाराज़गी और संघर्ष के बाद, सीता सोरेन ने झामुमो छोड़ दिया और 2024 लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गईं, लेकिन वह लोकसभा और उसके बाद विधानसभा चुनाव, दोनों हार गईं. इस तरह देवर हेमंत से शिबू सोरेन की विरासत को लेकर चली उनकी लड़ाई खत्म हो गई.

भाइयों या बेटों के बीच की प्रतिद्वंद्विता की बात करें तो, हरियाणा के एक और ‘लाल’ वंश में 1989 में देवी लाल ने राजनीति में अपने बेटे ओम प्रकाश चौटाला को अपने दूसरे बेटे रंजीत सिंह पर तरजीह दी. इस वंश में उत्तराधिकार की लड़ाई आगे भी जारी रही, जब ओम प्रकाश चौटाला ने अपने छोटे बेटे अभय का समर्थन किया.

दूसरे बेटे अजय चौटाला को 2018 में इंडियन नेशनल लोक दल से निकाल दिया गया. उनके बेटे दुश्यंत और दिग्विजय को भी इनेलो से बाहर कर दिया गया. इसके बाद उन्होंने जननायक जनता पार्टी बनाई. दुश्यंत हरियाणा में भाजपा-नेतृत्व वाली सरकार में उपमुख्यमंत्री बने, लेकिन पिछला हरियाणा विधानसभा चुनाव अभय चौटाला की इनेलो के खाते में 2 सीटें और जेजेपी के खाते में शून्य सीटें लाया. नतीजतन, आज देवी लाल की राजनीतिक विरासत बिखरी हुई नज़र आती है.

बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान ने अपनी राजनीतिक विरासत बेटे चिराग पासवान को सौंपी. चिराग ने अपने चाचा पशुपति कुमार पारस को चुनौती दी और उसे दबाने में सफल रहे.

बिहार की राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) में लालू यादव ने तेजस्वी को अपने भाई तेज प्रताप पर तरजीह दी. मई में पार्टी से निष्कासित किए गए तेज प्रताप अब कुछ छोटे दलों को मिलाकर आने वाले चुनाव में उतरने की कोशिश कर रहे हैं. यह उनकी प्रासंगिकता बनाए रखने की एक हताश कोशिश लगती है.

कई और राजनीतिक वंशों में परिवार के बुजुर्ग नेता ने यह सुनिश्चित किया कि उनके चुने गए उत्तराधिकारी को आगे चलकर कोई समस्या न हो.

मुलायम सिंह यादव को इस संदर्भ में शामिल न करें. द्रमुक प्रमुख करुणानिधि ने एम.के. स्टालिन को एम.के. अलागिरी पर तरजीह दी; जनता दल (सेक्युलर) के एच.डी. देवेगौड़ा ने एच.डी. कुमारस्वामी को अपने भाई एच.डी. रेवन्ना पर चुना और शिवसेना के बाल ठाकरे ने अपने भतीजे राज ठाकरे के बजाय बेटे उद्धव ठाकरे को उत्तराधिकारी बनाया.

जहां परिवार के मुखिया ने औपचारिक रूप से या सार्वजनिक रूप से उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया, वहां उत्तराधिकार की लड़ाई खराब रही. उदाहरण लें केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल का, जो अपने पिता और अपना दल के संस्थापक सोने लाल पटेल की सड़क दुर्घटना में मौत के बाद नेता के रूप में उभरीं. उनका परिवार तभी से बंटा हुआ है. उनकी मां कृष्णा और बहन पल्लवी ने अलग होकर अपना दल (कमेरावादी) बना लिया.

अब अगर के. कविता के मामले पर लौटें तो यह कुछ वैसा ही दिखता है जैसा 2009 में आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद उनके परिवार में हुआ. उन्होंने अपने बेटे जगन मोहन को लोकसभा भेजकर लगभग अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था.

उनकी बेटी शर्मिला शुरू में बड़े भाई का साथ देती नज़र आईं, जब उन्हें जेल भेजा गया, लेकिन जैसे ही वह मुख्यमंत्री बने, उन्होंने खुद को उपेक्षित महसूस किया. अंततः उन्होंने अपने भाई की पार्टी (YSRCP) और परिवार दोनों को छोड़ दिया. आज वह आंध्र प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष हैं.

इन पारिवारिक झगड़ों से जुड़े अनुभव के. कविता के लिए उत्साहजनक नहीं हैं. उन्होंने अपने भाई या पिता के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा है और बल्कि यह जताया है कि परिवार को तोड़ने और बीआरएस पर कब्ज़ा करने की कोशिश करने वाले साज़िशकर्ताओं से सतर्क रहना चाहिए.

लेकिन यह मान लेना भोला होगा कि उनके चचेरे भाइयों ने ही उन्हें बीआरएस से बाहर करने पर मजबूर किया और उनके पिता (बीआरएस प्रमुख) और भाई (पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष) बेबस होकर देखते रहे. इतिहास में उनके लिए कई सबक छिपे हैं.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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