नई दिल्ली: द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक अतिरिक्त हलफनामे दाखिल किया है जिसमें उसने नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (सीएए) से श्रीलंका के तमिल शरणार्थियों का बहिष्कार करने का आरोप लगाते हुए, इसे ‘भेदभावपूर्ण’ और ‘मनमाना’ बताया है.
डीएमके द्वारा दायर हलफनामे में कहा गया है कि केंद्र सरकार ‘तमिल शरणार्थियों की दुर्दशा पर स्पष्ट रूप से चुप है. प्रतिवादी संख्या 1 (केंद्र) के सौतेले व्यवहार ने तमिल शरणार्थियों को निर्वासन और अनिश्चित भविष्य के निरंतर भय में रहने के लिए छोड़ दिया है.’ डीएमके ने बताया कि सीएए ‘मनमाना’ है क्योंकि यह सिर्फ तीन देशों – पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से संबंधित है और केवल छह धर्मों – हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदायों तक सीमित है और मुस्लिम धर्म को इससे बाहर करता है.
सीएए को चुनौती देने वाली अपनी याचिका में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हलफनामा दायर करते हुए डीएमके ने कहा कि धार्मिक अल्पसंख्यकों पर विचार करते हुए भी केंद्र भारतीय मूल के ऐसे तमिलों को रखा है जो उत्पीड़न के कारण श्रीलंका से भागकर वर्तमान में भारत में शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं.
अधिनियम ‘तमिल नस्ल के खिलाफ’ है और इसी तरह से तमिलनाडु में रहने वाले तमिलों को अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है.
उसमें आगे कहा गया है, ‘स्टेटलेस होने के नाते, उन्हें सरकारी सेवाओं या संगठित निजी क्षेत्रों में रोजगार लेने, संपत्ति रखने का अधिकार, वोट देने का अधिकार, नागरिकों द्वारा प्राप्त सरकारी लाभों का आनंद लेने से वंचित कर दिया गया है.’
डीएमके ने कहा कि इस तरह की अस्पष्टता के कारण, उन्हें शिविरों में रहने के लिए मजबूर किया जाता है, जहां भविष्य में सुरक्षा की कोई संभावना नहीं होने के कारण उनका अक्सर शोषण किया जाता है.
उसने आगे कहा, ‘नौकरियों की कमी, बुनियादी अधिकारों और सुविधाओं तक पहुंच ने इन शरणार्थियों को विकलांग और संकोचित कर दिया है. ये शरणार्थी जो अपने मूल देश यानी भारत में इस उम्मीद के साथ पहुंचे हैं कि भारत-श्रीलंका समझौते आगामी उत्पीड़न से उनकी रक्षा करेगा, उनका भविष्य उज्जवल और भेदभाव मुक्त वातावरण हो सकता है, उनका जीवन के बेहतर मानक अब पहले की तुलना में कहीं अधिक खराब स्थिति में हैं. इन तमिल शरणार्थियों द्वारा नागरिकता का अनुरोध, जिन्होंने शरणार्थी शिविरों में वर्षों बिताए हैं, केंद्र के बहरे कानों में गया हैं.’
डीएमके ने कहा कि उनके श्रीलंका से छोड़ कर आने के कारण नहीं बदले हैं क्योंकि बड़े पैमाने पर हिंसा और असुरक्षित परिस्थितियों की वजह से कई विस्थापित लोग अपने देश से भागे हैं और बेहतर भविष्य की उम्मीद में भारत आए हैं.
पार्टी ने यह भी कहा है कि अधिनियम धर्म के आधार पर नागरिकता देने/गैर-अनुदान के लिए पूरी तरह से नया आधार पेश करता है, जो ‘धर्मनिरपेक्षता के मूल ताने-बाने को नष्ट करता है.’
डीएमके ने कहा कि अधिनियम जानबूझकर उन मुसलमानों को बाहर रखता है जिन्होंने छह देशों में उत्पीड़न का सामना किया था और इसलिए यह अत्यधिक भेदभावपूर्ण और स्पष्ट रूप से मनमाना है. सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सीएए के खिलाफ कम से कम 220 याचिकाएं दायर की गईं हैं.
सीएए को 11 दिसंबर, 2019 को संसद द्वारा पारित किया गया था और पूरे देश में इसका विरोध किया गया था. यह 10 जनवरी 2020 को लागू हुआ था.
केरल की इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, डीएमके, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा, कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी, कांग्रेस नेता देवव्रत सैकिया एनजीओ रिहाई मंच और सिटिजन्स अगेंस्ट हेट, असम एडवोकेट्स एसोसिएशन और कानून के छात्रों सहित अन्यों ने अधिनियम को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.
2020 में केरल सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में सीएए को चुनौती देने वाला पहला राज्य बनने के लिए मुकदमा दायर किया था.
यह कानून हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को नागरिकता देने की प्रक्रिया को फास्ट ट्रैक करता है, जो अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न से भाग गए थे और 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत में शरण ली थी.
सुप्रीम कोर्ट ने पहले केंद्र को नोटिस जारी किया था और केंद्र को सुने बिना कानून पर रोक लगाने वाला अंतरिम आदेश पारित करने से इनकार कर दिया था.
यह भी पढ़ेंः घातक चिड़िया – दुश्मनों के ड्रोन पर हमला करने के लिए चील और बाज़ जैसे पक्षियों को प्रशिक्षित कर रही है भारतीय सेना