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Monday, 4 November, 2024
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मध्य प्रदेश में क्यों है कांग्रेस को आदिवासी चेहरे की तलाश

विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को आदिवासी इलाकों में सफलता मिली, वहीं लोकसभा चुनाव में उसे इस वर्ग की एक भी सीट हासिल नहीं हो पाई. कांग्रेस को 29 सीटों में से सिर्फ एक सीट ही मिली है.

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भोपाल: मध्य प्रदेश में कांग्रेस डेढ़ दशक बाद सत्ता में लौटी है, और कांग्रेस की इस सफलता में आदिवासी वर्ग की बड़ी भूमिका रही है, मगर पार्टी के पास एक भी ऐसा आदिवासी चेहरा नहीं है, जिसकी पहचान पूरे प्रदेश में हो और उसके सहारे वह अपनी राजनीतिक जमीन को तैयार कर सके. लिहाजा पार्टी ने आदिवासी नेता की तलाश शुरू कर दी है.

आदिवासी नेता की तलाश में क्यों है कांग्रेस

कांग्रेस सूत्रों के अनुसार, पार्टी लोकसभा चुनाव में हार के बाद आदिवासी मतदाताओं को अपने साथ जोड़े रखने के लिए किसी सर्वमान्य आदिवासी नेता की तलाश कर रही है.

कांग्रेस के भीतर से आदिवासियों को महत्व देने की मांग उठी है. राज्य के मंत्री सज्जन सिंह वर्मा ने तो गृहमंत्री बाला बच्चन को प्रदेशाध्यक्ष बनाने की परोक्ष रूप से मांग कर डाली है. वह बच्चन को एक अनुभवी नेता बताते हैं.

दअसल, राज्य में आदिवासी वर्ग की लगभग 22 प्रतिशत आबादी है. विधानसभा के 47 क्षेत्र इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं. वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने इन 47 में से 30 स्थानों पर जीत दर्ज की थी. आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित क्षेत्रों में 60 प्रतिशत से ज्यादा स्थानों पर कांग्रेस को सफलता मिली थी. इसी तरह कांग्रेस के 114 विधायकों में 25 प्रतिशत से ज्यादा इस वर्ग के हैं.

विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को आदिवासी इलाकों में सफलता मिली, वहीं लोकसभा चुनाव में उसे इस वर्ग की एक भी सीट हासिल नहीं हो पाई. कांग्रेस को 29 सीटों में से सिर्फ एक सीट ही मिली है. वह भी छिंदवाड़ा की है, जहां से कमलनाथ के पुत्र नकुलनाथ चुनाव जीते हैं. इस कारण से कांग्रेस आदिवासियों को अपने पाले में बनाए रखने की जुगत में जुट गई है.

राज्य में कांग्रेस के पास किसी दौर में दलवीर सिंह, भंवर सिंह पोर्ते, जमुना देवी जैसे आदिवासी नेता रहे हैं, जो सत्ता में रहे तो उनकी हनक रही और विपक्ष में रहने के दौरान उन्होंने सत्ता पक्ष को हमेशा मुश्किल में डाले रखा. मगर जमुना देवी के निधन के बाद कांग्रेस में इस वर्ग का एक भी नेता उभरकर सामने नहीं आ पाया है. जो बड़े नाम वाले नेता हैं, उनकी खुद राजनीतिक जमीन कमजोर हो चली है. दूसरी ओर जनाधार वालों के पास गॉडफादर का अभाव है.

राज्य की कांग्रेस राजनीति में आदिवासी नेताओं पर गौर करें तो सरकार में मंत्री उमंग सिंगार, ओंमकार सिंह मरकाम, विधायक फुंदेलाल सिंह माकरे के चेहरे सामने आते हैं. ये सभी नई पीढ़ी के नेता हैं. पार्टी इन्हीं में से उस चेहरे पर दांव लगा सकती है, जो आदिवासियों के बीच सक्रिय है.

आदिवासियों के बीच कांग्रेस की रही है गहरी पैठ

राजनीतिक विश्लेषक सॉजी थामस का कहना है, ‘आदिवासियों के बीच किसी दौर में कांग्रेस की गहरी पैठ रही है, उसका वोट बैंक है, उसी के चलते विधानसभा चुनाव में सफलता मिली, मगर वर्तमान दौर में कांग्रेस के भीतर इस वर्ग के नेताओं को महत्व नहीं मिल पाया है, उसके लिए इस वर्ग के नेता भी कम दोषी नहीं हैं, क्योंकि इन नेताओं ने आदिवासी संस्कृति से काफी दूरी बना ली है.’

एक आदिवासी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘वर्तमान में इस वर्ग से कांग्रेस के विधायक व मंत्री हैं, उनका रहन-सहन आदिवासियों जैसा नहीं रहा. वे अंग्रेजी बोलने लगे हैं, बफे स्टाइल में भोजन करते हैं, लिहाजा आदिवासी उन्हें अपने से दूर पाने लगा है. समय रहते ये नेता नही चेते तो अगला चुनाव उनके लिए आसान नहीं होगा. लोकसभा चुनाव में मंत्री ओमकार सिंह और विधायक फुंदेलाल सिंह माकरे के विधानसभा क्षेत्र में ही पार्टी को जीत मिली है.’

कांग्रेस सूत्रों के अनुसार, पार्टी आदिवासियों के बीच से ऐसे नेता को निकालना चाह रही है, जो पार्टी के भीतर और बाहर आदिवासियों का प्रतिनिधि नजर आए. उसका अंदाज, रहन-सहन से लेकर बोलचाल भी आदिवासियों जैसा हो. कांग्रेस के नेता मानते हैं कि यह काम आसान नहीं है, मगर इस वर्ग में पकड़ रखने के लिए जरूरी है कि खांटी आदिवासी नेता खड़ा किया जाए.

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