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Thursday, 27 June, 2024
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BJP-जाट संबंधों में दरारें, चुनावी समर्थन में कमी, मोदी 3.0 में सिर्फ 2 जूनियर मंत्री

वाजपेयी सरकार द्वारा उन्हें ओबीसी सूची में शामिल किए जाने के बाद जाटों ने बीजेपी का साथ दिया. 25 साल बाद, 2024 में समुदाय के मतदान के रुझान से जाटों और बीजेपी के बीच विश्वास में कमी दिख रही है.

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गुरुग्राम: अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार द्वारा जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूची में शामिल करके उनका समर्थन हासिल करने के 25 साल बाद, अगर लोकसभा चुनावों के नतीजों को संकेत माना जाए तो पार्टी और समुदाय के बीच दूरियां बढ गईं हैं.

जाटों ने राजस्थान, हरियाणा और कुछ हद तक उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ वोट दिया है, जिससे पार्टी के समीकरण गड़बड़ा गए. भाजपा भी अपने शब्दों और कार्यों से उन्हें खुश करने के लिए इच्छुक नहीं दिखी.

तीसरे नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल में जाटों को दिए गए प्रतिनिधित्व पर नज़र डालें तो समुदाय से केवल दो नेताओं को शामिल किया गया है, दोनों ही राज्य मंत्री हैं — भाजपा के अजमेर सांसद भागीरथ चौधरी और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के जयंत चौधरी.

2019 में दूसरे मोदी मंत्रिमंडल में भी यही हुआ, जिसमें दो राज्य मंत्री जाट समुदाय से थे — बालियान और कैलाश चौधरी (राजस्थान से).

2014 के पहले मोदी मंत्रिमंडल में चौधरी बीरेंद्र सिंह (हरियाणा से) कैबिनेट मंत्री थे और सांवर लाल जाट (राजस्थान से) और संजीव बालियान (यूपी से) राज्य मंत्री थे.

इसके अलावा, 1999 से 2004 तक वाजपेयी के मंत्रिमंडल में आरएलडी के अजित सिंह और भाजपा के साहिब सिंह वर्मा मंत्री थे और वसुंधरा राजे सिंधिया (जाट परिवार में विवाहित) राज्य मंत्री थीं. आरएलडी नेता सोमपाल सिंह शास्त्री भी 1998 में मंत्रिपरिषद का हिस्सा थे.

अक्टूबर 1999 में वाजपेयी सरकार ने भी केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण के लिए जाटों को ओबीसी की सूची में शामिल किया था.

राजनीतिक विश्लेषकों और जाट नेताओं ने जाटों के गुस्से के पीछे मोदी सरकार द्वारा समुदाय और विशेष रूप से किसानों और पहलवानों के प्रति कथित रूप से उदासीन व्यवहार को कारण बताया है.

हालांकि, नाम न बताने की शर्त पर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि पार्टी जाटों या किसी भी जाति के खिलाफ है.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “एक जाट नेता (जगदीप धनखड़) भारत के उपराष्ट्रपति हैं और पहले राज्यपाल रह चुके हैं. एक अन्य जाट नेता सत्यपाल मलिक राज्यपाल रह चुके हैं. आचार्य देवव्रत समुदाय से एक और राज्यपाल हैं.”
उन्होंने बुधवार को कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाली मां-बेटी की जोड़ी का ज़िक्र करते हुए कहा, “अगर भाजपा समुदाय के प्रति उदासीन होती, तो किरण चौधरी और श्रुति चौधरी जैसे जाट नेता पार्टी में शामिल नहीं होते.”


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जाटों ने भाजपा को कैसे हराया

जाट बहुल संसदीय क्षेत्रों में भाजपा के प्रदर्शन की जांच करने पर मिश्रित परिणाम सामने आते हैं.

राजस्थान और हरियाणा में पार्टी ने इन सीटों पर खराब प्रदर्शन किया. हालांकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां भाजपा का आरएलडी के साथ गठबंधन था, उसका प्रदर्शन थोड़ा बेहतर रहा.

2019 में राजस्थान और हरियाणा में क्लीन स्वीप के बाद, भाजपा ने राजस्थान में 25 में से 11 सीटें और हरियाणा में 10 में से पांच सीटें खो दीं.

राजस्थान में भाजपा शेखावाटी क्षेत्र की सभी चार सीटें हार गई — झुंझुनू, चूरू, सीकर और नागौर — जहां जाट वोट निर्णायक हैं.

इन सभी सीटों पर, इंडिया ब्लॉक के जाट नेता विजेता बनकर उभरे — झुंझुनू से कांग्रेस के बृजेंद्र सिंह ओला, चूरू से कांग्रेस के राहुल कस्वां, सीकर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अमरा राम और नागौर से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के हनुमान बेनीवाल.

अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में जहां जाट मतदाता बड़ी संख्या में मौजूद हैं, बाड़मेर ने उम्मेद राम बेनीवाल को चुना, गंगानगर (एससी) ने कुलदीप इंदौरा को चुना, भरतपुर (एससी) ने संजना जाटव को चुना और करौली-धौलपुर (एससी) ने भजनलाल जाटव को चुना. चारों विजेता कांग्रेस के हैं.

राजस्थान में चुनाव हारने वाले जाट समुदाय के प्रमुख भाजपा नेताओं में चूरू से पैरालिंपियन और पद्मश्री पुरस्कार विजेता देवेंद्र झाझरिया, झुंझुनू से शुभकरण चौधरी, नागौर से ज्योति मिर्धा और सीकर से सुमेधानंद सरस्वती शामिल हैं.

हरियाणा में कांग्रेस ने पांच सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों को हराया, जिनमें से चार — रोहतक, सोनीपत, हिसार और सिरसा — या तो जाटों के गढ़ में आते हैं या कम से कम आधे विधानसभा क्षेत्रों में जाट बहुसंख्यक हैं.

राजस्थान और हरियाणा दोनों में अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय भी जाटों के साथ मिल गया है.

हरियाणा में भाजपा ने दो आरक्षित अनुसूचित जाति सीटें खो दीं, जबकि राजस्थान में चार आरक्षित अनुसूचित जाति निर्वाचन क्षेत्रों (गंगानगर, भरतपुर और करौली-धौलपुर) में से तीन कांग्रेस के खाते में गईं और एक (बीकानेर) भाजपा के खाते में गई.

राजस्थान में अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए आरक्षित तीन निर्वाचन क्षेत्रों में से केवल उदयपुर भाजपा के खाते में गया, जबकि कांग्रेस ने दौसा और भारत आदिवासी पार्टी ने बांसवाड़ा को जीता.

उत्तर प्रदेश में जहां भाजपा की सीटें 2019 में 62 से घटकर 33 रह गई हैं, पार्टी ने कैराना, मुजफ्फरनगर और बिजनौर खो दिए, जहां जाटों की अच्छी खासी आबादी है.

राजनीतिक विश्लेषक, लेखक और राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष दुलाराम सहारण ने दिप्रिंट को बताया कि जाटों या अधिक उचित रूप से किसानों के भाजपा के प्रति गुस्से का कारण मोदी सरकार के तहत उनके साथ हो रहा व्यवहार है.

उन्होंने कहा, “जब 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी एनडीए सरकार के मुखिया थे, तो वे सीकर आए थे और जाटों के लिए ओबीसी कोटा की घोषणा की थी. तब से, समुदाय ने हमेशा भाजपा को वोट दिया है. हालांकि, यह चुनाव अलग था. जाटों ने मोदी सरकार की उनके प्रति उदासीनता के कारण अपने वोटों के माध्यम से भाजपा के खिलाफ अपना गुस्सा व्यक्त किया.”

उन्होंने कहा, “2023 में राजस्थान विधानसभा चुनाव के बाद, भाजपा ने सरकारी जाट कर्मचारियों को दूर-दराज के स्थानों पर स्थानांतरित करके समुदाय को निशाना बनाया है.”

इस साल फरवरी में चूरू संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत सादुलपुर से ओलंपियन और पूर्व कांग्रेस विधायक कृष्णा पूनिया ने तारानगर से स्थानांतरित किए गए जाट अधिकारियों की एक सूची एक्स पर पोस्ट की.

सहारन ने कहा: “यह नवंबर 2023 में हुए चुनावों में तारानगर विधानसभा सीट से जाट कांग्रेस नेता नरेंद्र बुडानिया द्वारा भाजपा के राजेंद्र राठौर, जो पूर्व विपक्ष के नेता थे, को हराने के कुछ दिनों बाद हुआ.”

‘बदतमीज़ी, विभाजनकारी राजनीति’

राजस्थान में जाटों के साथ भेदभाव आम बात हो जाने का आरोप लगाते हुए सहारन ने कहा कि जब से मोदी सरकार तीन विवादास्पद कृषि कानून लेकर आई है, जिन्हें किसानों के विरोध के चलते निरस्त करना पड़ा, तब से भाजपा को “कृषक समुदाय” से नफरत है, जिनमें से ज़्यादातर जाट सिख और जाट पृष्ठभूमि से हैं.

सहारन ने कहा, “यह भाजपा वाजपेयी युग की भाजपा से अलग है. वाजपेयी एक ज़मीनी नेता थे. वे ज़मीनी स्तर पर लोगों से मिलते-जुलते थे. जब कोई व्यक्ति ऊपर से भेजा जाता है और उसे लगातार सफलताएं मिलने लगती हैं, तो उसे कोई असहमति पसंद नहीं आती. यही जाटों के साथ, या ज़्यादा सटीक तौर पर हमारे देश के किसानों के साथ हो रहा है.”

उन्होंने कहा कि अगर जाट अब भाजपा के खिलाफ चले गए हैं, तो पार्टी भी उन पर भरोसा नहीं करती और समुदाय को खुश करने की कोशिश भी नहीं कर रही है.

संसदीय चुनावों से पहले, भाजपा ने राजस्थान और हरियाणा में अपने जाट पार्टी प्रमुखों — सतीश पूनिया और ओपी धनखड़ — को गैर-जाटों के साथ बदल दिया. साथ ही, राजे, जो जाट राजघराने में शादी करने के कारण जाटों के बीच प्रभाव रखती थीं, को उनके मजबूत दावे के बावजूद राजस्थान का सीएम नहीं बनाया गया.

अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के प्रमुख पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट नेता यशपाल मलिक ने दिप्रिंट को बताया कि राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाटों के मोदी सरकार से नाखुश होने का मुख्य कारण 2020-21 में आंदोलनकारी किसानों के साथ किया गया “खराब व्यवहार” और फिर भाजपा सांसद द्वारा कथित यौन उत्पीड़न के लिए न्याय की मांग करने वाली महिला पहलवानों के विरोध के प्रति सरकार की उदासीनता थी.

उन्होंने कहा कि सशस्त्र बलों में भर्ती के लिए मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई अग्निपथ योजना ने भी जाटों को नाराज़ कर दिया है.

मलिक ने कहा, “राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी यूपी से बड़ी संख्या में जाट युवा सशस्त्र बलों में शामिल होते थे. अग्निपथ योजना ने जाट युवाओं के लिए रोज़गार के एक बड़े अवसर को छीन लिया है.”

मलिक के अनुसार, हरियाणा में जाटों के प्रति भाजपा सरकार की नीति अन्य राज्यों की नीति से अलग है.

उन्होंने आरोप लगाया कि “देश के अन्य हिस्सों में भाजपा ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक आधार पर जिस तरह की विभाजनकारी राजनीति की, पार्टी हरियाणा में जाटों और गैर-जाटों के बीच जाति के आधार पर कर रही है.”

मलिक ने कहा, “हरियाणा में मुसलमान एक छोटे से हिस्से में केंद्रित हैं और वे 90 विधानसभा सीटों में से केवल तीन पर भाजपा को प्रभावित करते हैं. अगर पार्टी यहां हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेलती है, तो यह अधिकांश सीटों पर उसकी मदद नहीं करेगा. जाट-गैर-जाट कार्ड खेलकर, भाजपा जाट समुदाय को अलग-थलग करना चाहती है और अन्य जातियों के वोटों को अपने पक्ष में करना चाहती है.”

उन्होंने कहा, “इसने 2019 के विधानसभा और संसदीय चुनावों में पार्टी के लिए अच्छा काम किया, लेकिन जब दलित, विशेषकर रविदासिया, संविधान में बदलाव की धमकियों के कारण भाजपा के खिलाफ हो गए, तो पार्टी की गणना विफल हो गई.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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