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Saturday, 21 December, 2024
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लोकसभा चुनाव से पहले सुशासन बाबू का भाजपा विरोधी गठबंधन, एक पराजित प्रयास जैसा है

राष्ट्रीय राजनीति में जनता न तो मोदी सरकार का विकल्प ढूंढ रही हैं और न ही विपक्ष के पास बेहतर विकल्प देने की क्षमता है.

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2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की धमाकेदार जीत के बाद पहले नेता जिसने भाजपा को अपने जातीय गठबंधन के समीकरण से बिहार विधानसभा चुनाव में मात दी थी, वो पिछले एक वर्ष से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं. पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के साथ मुलाक़ात के बाद नीतीश कुमार ने जो भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने का जो प्रारूप साझा किया वो अपने आप में एक पराजित प्रयास है.

नीतीश कुमार की विपक्षी एकता के प्रारूप के अनुसार ग़ैर-भाजपा राजनीतिक दल अधिक से अधिक लोकसभा क्षेत्रों में बिना प्रत्यक्ष गठबंधन के भी उस पार्टी के उम्मीदवार को भाजपा के प्रत्याशी के ख़िलाफ़ एकजुट होकर मदद करें जो भाजपा के उम्मीदवार को हराने में सर्वाधिक सक्षम हो. अर्थात् इस पराजित गठबंधन की सफलता का दायित्व संबंधित पार्टी या नेता से अधिक स्थानीय स्तर के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर अधिक दिखता प्रतीत हो रहा है.

हिंदुस्तान की गठबंधन की राजनीति के इतिहास में अक्सर और सर्वाधिक विद्रोह स्थानीय स्तर के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच होता रहा है. पिछले वर्ष बिहार के कुढ़नी, मोकामा आदि उपचुनाव में भी गठबंधन की राजनीति का यह पक्ष सर्वाधिक प्रखर रूप से सामने आया. मोकामा विधानसभा क्षेत्र से वर्ष 2020 में RJD उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने वाले अनंत सिंह को 35757 मतों के अंतर से जीत मिली थी, लेकिन 2022 के मध्यावधि चुनाव में उनकी पत्नी की जीत का अंतर मात्र 16752 मतों का रहा जबकि मध्यावधि चुनाव में अनंत सिंह की पत्नी सात राजनीतिक पार्टियों के महागठबंधन का प्रतिनिधित्व कर रही थी. इसी तरह कुढ़नी उपचुनाव में जिस RJD को अकेले सफलता मिलती रही थी वहीं सात पार्टियों के महागठबंधन को भाजपा हराने में आसानी से सफल रही.

इन मध्यावधि चुनावों में एक बात साफ़ उभरकर सामने आई कि बिहार के सात राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं ने सत्ता की लालच में भले ही आपसी गठबंधन कर लिया हो लेकिन इस गठबंधन को न सिर्फ़ मतदाताओं ने नकारा है बल्कि उक्त सात पार्टियों के स्थानीय नेता के साथ साथ कार्यकर्ताओं ने भी कभी नहीं स्वीकारा है. यही कारण है कि नीतीश कुमार की अपनी जाति कुर्मी का एक बड़ा हिस्सा उनके ख़िलाफ़ हो गया है वहीं दूसरी तरफ़ यादव मतदाता उन्हें किसी भी क़ीमत पर अपना नेता मानने के लिए तैयार नहीं है.

तीसरी तरफ़ बिहार के वो मतदाता जो नीतीश कुमार के सुशासन कुमार की छवि से प्रभावित थे वो पहले ही नीतीश कुमार का साथ छोड़ चुके हैं. जिस महादलित और अति-पिछड़ा समाज में नीतीश कुमार ने अपनी सर्वाधिक राजनीतिक पैठ बनाई थी, उनके बीच नीतीश कुमार लगातार अपनी ज़मीन खो रहे हैं और भाजपा इनके बीच मज़बूत हो रही है.

जिन अपराधियों को जेल तक पहुंचाने के लिए नीतीश कुमार को बिहार में NDA सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान सुशासन बाबू के रूप में पहचान मिली थी उन्हीं अपराधियों को जेल से रिहा करने के लिए हाल ही में नीतीश सरकार ने जेल नियमावली में बदलाव कर आनंद मोहन जैसे अपराधियों की रिहाई करा दी है. बता दें कि आनंद मोहन को उम्र क़ैद की सजा बिहार के गोपालगंज ज़िले के एक दलित ज़िला-अधिकारी, जी. कृष्णैया की हत्या के जुर्म में हुई थी. इस प्रकरण ने सामाजिक न्याय का ढोंग करने वाले नीतीश कुमार का असली अवसरवादी चेहरा सबके सामने ला दिया है.

जिस बिहार में वर्ष 2013 में अपराध के कुल 236353 मामले दर्ज किए गए थे, वहीं वर्ष 2021 में यह आकड़ा बढ़कर 350197 हो गया. अर्थात् आठ वर्षों के कुर्सी कुमार के कार्यकाल के दौरान बिहार में अपराध की घटनाओं में 48.17 प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिली.


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सुशासन बाबू के पास नहीं है विकल्प

नीतीश कुमार को सुशासन बाबू का ख़िताब उनके पहले कार्यकाल (2005-10) के दौरान मिला था, जब भाजपा नीतीश सरकार का अहम हिस्सा थी. पिछले कुछ वर्षों से बिहार में जिस तरह अपराध, भ्रष्टाचार और अफ़सरशाही का बोलबाला बढ़ा है उससे बिहार की आम जनता परेशान है और एक बेहतर विकल्प की तलाश में लगी हुई है.

लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में जनता न तो मोदी सरकार का विकल्प ढूंढ रही हैं और न ही विपक्ष के पास बेहतर विकल्प देने की क्षमता है. जिस विपक्षी एकता की बात नीतीश कुमार या कांग्रेस के लोग कर रहे हैं उसके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है संगठन के अंदर अनुशासन जो आज देश में किसी भी एक राजनीतिक दल के पास है तो वो है भाजपा. नीतीश कुमार या कांग्रेस के पास न तो संगठन है न संघर्ष का इतिहास और संगठन का अनुशासन और राजनीतिक नैतिकता तो इनकी राजनीति का कभी हिस्सा ही नहीं रहा.

सिर्फ दस सालो के अंदर नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) ने अपनी सत्ता बचाने के लिए जितनी बार गठबंधन बदला है, ऐसा भारत के राजनीतिक इतिहास में कभी नहीं हुआ था. वर्ष 2013 से 2023 के दौरान नीतीश कुमार पांच बार गठबंधन बदल चुके हैं.

जिस जातिगत जनगणना के मुद्दे को सामने लाकर नीतीश कुमार इस पराजित विपक्षी गठबंधन का नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं वो जातिगत जनगणना राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2011 (SECC) और कर्नाटक में 2014-15 के दौरान पहले भी हो चुकी है, और इससे कोई राजनीतिक बदलाव नहीं आया था. इसके अलावा तेलंगाना और छतीसगढ़ में भी राज्य सरकारों ने आंशिक रूप से जातिगत जनगणना करवाने का प्रयास किया था, लेकिन उसका कोई राजनीतिक प्रभाव न तो देश की राजनीति पर पड़ा और न ही राज्य की राजनीति पर. ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि देश के प्रगतिशील मतदाता लगातार इस तरह की जातिगत राजनीति से ऊब चुके है और विकास उनके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन चुका है.

संभवत यही कारण था कि संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर से लेकर पटेल और यहां तक नेहरू और मौलाना आज़ाद जैसे कांग्रेसी नेताओं ने भी आज़ादी के बाद देश में जातिगत जनगणना को देश की सामाजिक एकता के लिए ख़तरा बताते हुए बंद करवा दिया था. ऐसे में जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों के आधार पर नीतीश कुमार द्वारा विपक्षी एकता के लिए किए जा रहे प्रयास पहले ही राजनीतिक रूप से पराजित होकर अपना राजनीतिक महत्व खो चुके है.

एक ऐसा नेता जो अपने अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा हो वो अगर राष्ट्रीय राजनीति में विपक्षी एकता का चेहरा बनने का प्रयास का दिखावा करता है, तो वास्तविकता यही है कि नीतीश कुमार एक सम्मानजनक पराजय की तैयारी कर रहे हैं, ताकि इतिहास उन्हें हारे हुए योद्धा के रूप में याद किया जाए न कि कुर्सी-कुमार के रूप में जो अपनी सत्ता को बचाने के लिए राजनीति के सभी नैतिक मूल्यों का गला घोंट चुके हैं.

(लेखक आईआईटी दिल्ली से स्नातक और भाजपा दिल्ली इकाई के पूर्वांचल मोर्चा के कार्यकारिणी सदस्य हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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