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Friday, 24 October, 2025
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बिहार चुनाव और जातीय समीकरण: कैसे दल अपना आजमाया हुआ फॉर्मूला दोहरा रहे हैं

अगले महीने होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में फिर से वही पुराना राजनीतिक माहौल दिख रहा है. टिकटों के बंटवारे से साफ है कि दलों ने अपने पारंपरिक वोटबैंक से दूरी नहीं बनाई है.

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नई दिल्ली/लखनऊ: बिहार में अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में एक बार फिर वही पुराना राजनीतिक माहौल नज़र आ रहा है. जातीय समीकरण और सोशल इंजीनियरिंग की अहम भूमिका के बीच, ज्यादातर दल—भाजपा और जदयू से लेकर राजद तक—वही आजमाया हुआ फॉर्मूला दोहरा रहे हैं जिसने दशकों से बिहार की राजनीति को आकार दिया है.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) इस बार भी पिछड़ा वर्ग (बीसी) और अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के सहारे सत्ता में वापसी की कोशिश कर रही है. चुनाव दो चरणों में 6 और 11 नवंबर को होने हैं.

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अब भी अपने सवर्ण वोटबैंक पर दांव लगा रही है, जबकि तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव समीकरण पर भरोसा बनाए हुए है.

टिकटों के बंटवारे से साफ झलकता है कि दलों ने अपने पारंपरिक समर्थन आधार से कोई विचलन नहीं किया है.

भाजपा ने करीब 48.5 प्रतिशत टिकट सवर्ण उम्मीदवारों को दिए हैं, जबकि राजद ने अपने मुस्लिम-यादव वोटबैंक को ध्यान में रखते हुए लगभग 49 प्रतिशत टिकट इन्हीं वर्गों को दिए हैं.

243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में भाजपा 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. इनमें से 49 टिकट सवर्णों को मिले हैं—21 राजपूतों को, 16 भूमिहारों को, 11 ब्राह्मणों को और एक कायस्थ को. वहीं, राजद 143 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और उसने 51 टिकट मुसलमानों को तथा 19 यादवों को दिए हैं.

2020 के चुनाव में भाजपा ने सवर्णों को 52 टिकट दिए थे, जबकि राजद ने मुसलमानों और यादवों को मिलाकर 76 टिकट दिए थे.

हालांकि, सांसद राहुल गांधी ने राज्य में अपनी वोटर अधिकार यात्रा के दौरान जातीय जनगणना की बात की, लेकिन महागठबंधन की सहयोगी कांग्रेस टिकट वितरण में ज्यादा भरोसा सवर्ण वर्ग पर करती दिखी. पार्टी ने 21 टिकट सामान्य वर्ग को और 19 टिकट पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को दिए हैं, जिनमें से छह अति पिछड़े वर्ग के उम्मीदवार हैं.

गुरुवार को जब महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया, तब अति पिछड़ा वर्ग के नेता और विकासशील इंसान पार्टी के प्रमुख मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाया गया.

इन्फोग्राफिक: मनाली घोष/दिप्रिंट
इन्फोग्राफिक: मनाली घोष/दिप्रिंट

‘बिहार में प्रयोग कम ही सफल होते हैं’

बिहार के राजनीतिक जानकारों का कहना है कि राज्य में दल आमतौर पर टिकट वितरण में बड़े प्रयोग करने से बचते हैं.

पटना यूनिवर्सिटी के पूर्व प्राध्यापक एन.के. चौधरी ने दिप्रिंट से कहा, “बिहार में वही पुराना आजमाया हुआ फॉर्मूला काम करता है. लालू जानते हैं कि मुसलमान और यादव उनके साथ जुड़ाव महसूस करते हैं, इसलिए वे इन्हीं पर भरोसा करते हैं, जबकि भाजपा का झुकाव सवर्णों की ओर साफ नज़र आता है.”

उन्होंने आगे कहा कि उत्तर प्रदेश के मुकाबले बिहार का जातीय समीकरण अलग है, जहां नए प्रयोग अक्सर सफल नहीं होते. इसलिए दल टिकट वितरण में अपनी पारंपरिक सामाजिक इंजीनियरिंग पर ही टिके रहते हैं.

उन्होंने बताया कि “करीब दो दशक पहले नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों पर ज्यादा भरोसा करके एक प्रयोग किया था, लेकिन अब वे भी सावधानी से वही पुराना आधार मजबूत करने में लगे हैं.”

पिछले चुनावों की तरह इस बार भी जदयू ने पिछड़े वर्ग और अति पिछड़े वर्ग को सशक्त बनाने के अपने पारंपरिक वादे को दोहराया है और इन वर्गों के उम्मीदवारों को सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया है.

पार्टी के 101 उम्मीदवारों में से 37 पिछड़े वर्ग से हैं और 22 अति पिछड़े वर्ग से. कुल मिलाकर जदयू ने 59 टिकट ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) उम्मीदवारों को दिए हैं. 2020 के चुनाव में भी ओबीसी और ईबीसी उम्मीदवारों की संख्या 59 थी, हालांकि, उस समय ईबीसी का अनुपात करीब 6 प्रतिशत ज्यादा था.

इस बार जदयू ने कुशवाहा समुदाय के 13 और कुर्मी समुदाय के 12 उम्मीदवार उतारे हैं. साथ ही, पार्टी ने आठ यादव उम्मीदवारों को टिकट दिया है.

कभी “लव-कुश पार्टी” के नाम से जानी जाने वाली जदयू—जहां “लव” कुर्मी और “कुश” कुशवाहा समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं—अब भी अपने उम्मीदवार चयन में उसी पहचान को दर्शाती है.

हालांकि, यादव उम्मीदवारों का प्रतिनिधित्व पहले की तुलना में घटा है. 2020 में जदयू ने 18 यादव उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से सात जीते थे. इस बार केवल आठ यादव उम्मीदवारों को टिकट मिला है.

ईबीसी वर्ग में पार्टी ने धनुक समुदाय को सात टिकट, मल्हा को तीन, तेली, कुलाहिया मुस्लिम, कमात और गंगोता को दो-दो टिकट और कानू, हलवाई तथा गड़रिया समुदाय को एक-एक टिकट दिया है.

भाजपा ने जहां अपना ध्यान सवर्ण वोटबैंक पर केंद्रित रखा है, वहीं उसने पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों को भी प्रतिनिधित्व दिया है. भाजपा की सूची में 24 पिछड़े वर्ग और 16 अति पिछड़े वर्ग के उम्मीदवार शामिल हैं. पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों में छह यादव हैं. 2020 में भाजपा ने 16 यादवों को टिकट दिया था. अन्य ओबीसी उम्मीदवारों में पांच कुशवाहा, दो कुर्मी, चार वैश्य, तीन कालवार, तीन सुधी, एक मारवाड़ी और एक चनऊ समुदाय से हैं.

ईबीसी वर्ग में भाजपा ने तेली समुदाय से पांच उम्मीदवार उतारे हैं; निषाद, केवट, बिंद और धनुक से एक-एक उम्मीदवार; कानू से तीन उम्मीदवार; और नोिनया, चंद्रवंशी, डांगी और चौरसिया समुदाय से एक-एक उम्मीदवार को टिकट दिया है.

राजद की उम्मीदवार सूची में मुसलमानों के अलावा पार्टी पिछड़े वर्गों में कुशवाहा समुदाय पर भरोसा जता रही है और इस समुदाय से 13 उम्मीदवार उतारे हैं. सवर्ण वर्ग से राजद ने इस बार 14 उम्मीदवार उतारे हैं, जबकि पिछली बार यह संख्या 23 थी.

पटना कॉलेज ऑफ कॉमर्स, आर्ट्स एंड साइंस के राजनीति विज्ञान विभाग के प्राध्यापक ज्ञानेंद्र यादव ने कहा, “ईबीसी कोटे में कुछ मामूली बदलावों को छोड़ दें, तो ज्यादातर दलों ने इस बार भी टिकट वितरण में वही पुराना पैटर्न अपनाया है. इसका कारण उनकी पारंपरिक जातीय समीकरणों पर निर्भरता है.”

उन्होंने आगे कहा, “ऐसा अनुमान था कि राजद समाजवादी पार्टी की तरह सोशल इंजीनियरिंग अपनाकर गैर-यादव ओबीसी को लुभाने की कोशिश कर सकती है, लेकिन पार्टी ने आखिरकार अपना पुराना फॉर्मूला ही कायम रखा. इससे संकेत मिलता है कि तेजस्वी यादव पारंपरिक समीकरण को बनाए रखना चाहते हैं, साथ ही कुशवाहा और सवर्ण वर्ग को भी—सिर्फ टिकट देकर नहीं, बल्कि पार्टी में ज्यादा पद देकर—संतुलित प्रतिनिधित्व देना चाहते हैं.”

इन्फोग्राफिक: मनाली घोष/दिप्रिंट
इन्फोग्राफिक: मनाली घोष/दिप्रिंट

कुशवाहा वोटबैंक को साधने की कोशिश

बिहार के प्रभावशाली ओबीसी समुदायों में से एक, कुशवाहा समुदाय, इस बार के चुनाव में सबसे ज्यादा पसंद किए जाने वाले जातीय समूहों में उभरकर सामने आया है. विभिन्न दलों ने मिलाकर इस समुदाय के उम्मीदवारों को तीन दर्जन से ज्यादा टिकट दिए हैं.

राजद और जदयू दोनों ने ही इस समुदाय के 13-13 उम्मीदवारों को टिकट दिया है. यहां तक कि वाम दल—भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने भी कुशवाहा समुदाय से 5 उम्मीदवार उतारे हैं.

एन.के. चौधरी के अनुसार, “कुर्मी, कुशवाहा, मौर्य और कोइरी समुदायों को ओबीसी वर्ग के भीतर आपस में करीब माना जाता है. यादवों के अलावा ज़्यादातर दल इन्हीं समुदायों पर भरोसा करते हैं. ये परंपरागत रूप से खेती-किसानी से जुड़े रहे हैं, लेकिन अब बिहार में यादवों के बाद सबसे प्रभावशाली समूहों में गिने जाते हैं.”

उन्होंने आगे कहा, “पिछले दो दशकों में कुशवाहाओं का झुकाव जदयू की ओर रहा है, लेकिन इस बार विपक्षी दल भी उन्हें अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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